गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

यज्ञीय पदार्थ तथा पात्र परिचय

यज्ञीय पदार्थ तथा पात्र परिचय
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श्रौत-स्मार्त्त यज्ञों में विविध प्रयोजनों के लिये पात्रों की आवश्यकता होती है । जिस प्रकार कुण्ड बनाया जाता है, उसी प्रकार इन यज्ञ-पात्रों को निश्चित वृक्षों के काष्ठ से, निर्धारित माप एवं आकार का बनाया जाता है । विधि पूर्वक बने यज्ञ-पात्रों का होना यज्ञ की सफलता के लिये आवश्यक है । नीचे कुछ यज्ञ-पात्रों का परिचय आवश्यक है । नीचे कुछ यज्ञ-पात्रों का परिचय दिया जा रहा है । इनका उपयोग विभिन्न यज्ञों में, विभन्न शाखाओं एवं सूत्र-ग्रंथों के आधार पर दिया जाता है। वेदों में इनका उल्लेख इस प्रकार मिलता है।

(1)अग्निहोत्रहवणी
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अग्निहोत्रहवणी एक प्रकार की सूची का ही नाम है। यह बाहुमात्रलम्बी, आग्र हंसमुखी और चार अंगुल गर्त वाली होती है। इसमें स्रुवा से आज्य लेकर अग्निहोत्र किया जाता है, जिससे यह अग्निहोत्र-हवणी कही जाती है।

स्फ्यशच कपालानि चाऽगिहोत्रहवर्णी च शूर्पं च कृष्णजिनं च शय्या चोलूखलं च मुसलं च दृषच्चोपला चैतानि वै दश यज्ञायुधानि...(तै.सं.1.6.8)

(2)अतिग्राह्यपात्र
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सोमाभिषव काल में दक्षिण शकट के पास तीन पात्र, ऐन्द्रपात्र, सौर्यपात्र । इस पात्र-समूह को ही अतिग्राह्य भी कहा जाता है । कात्यायन श्रौतसूत्र में प्रातः कालीन यज्ञ में अतिग्राह्य को ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है-

प्रातः सवनेऽतिग्राह्यान्गृहीत्वा (का.श्रौ.14.1.26)
धु्रवसदमिति प्रतिमन्त्रमतिग्राह्यगृहीत्वा (का.श्रौ.14.2.1 वीर्याय)
इत्यतिग्राह्यं वा षोडशिनं वावेक्षते (बौ.श्रौ.14.8)

(3)अदाभ्य पात्र
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यह सोमरस रखने का गूलर की लकड़ी का बना एक पात्र है, जो अग्निष्टोम आदि याग में प्रयुक्त होता है । सोम के साथ अदाभ्य नाम उल्लिखत होता है-

यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृति तस्मै ते सोम सोमाय स्वाहा (मैत्रा.सं. 1.3.4)

अथातोऽ शवदाभ्ययोरेव ग्रहणम् । अश्वदाभ्यौ ग्रहीष्यन्नुपकल्पयते, औदुम्बरे नवे पात्रे श्लक्ष्णमदाभ्यपात्रम् (बा. श्रौ.14.12)
(4) अन्तर्धानकट
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यह एक अर्धचन्द्राकार यज्ञ-पात्र है, गार्हपत्य अग्नि पर पत्नी-संयाज (कर्मकाण्ड-विशेष) करने के समय अध्वर्यु द्वारा अपने और यजमान-पत्नी के बीच रखा जाता है, उसी समय देवपत्नियों का आवाहन होता है । यह बारह अँगुल लम्बा, छः अंगुल चौड़ा पात्र होता है, जैसा कि कहा गया-
अन्तर्धानकटसत्वर्धचन्द्राकारो द्वादशाङ्गुलः ।

(5)अभ्रि
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यह एक नोकदार (तीक्ष्णमुख) वाले डण्डे के आकार का तथा एक हाथ लम्बा उपकरण है, जो वेदिका-खनन के काम आता है । अभ्रि की तुलना वज्र से भी की गयी -

व्रजो वाऽअभ्रिः । (शत.ब्रा.6.3.1.3.9)
अभ्रिं व्याममात्रीं वारत्रिमात्री बोभयतः क्ष्णमृदं च अन्र्तवेद्याभ्रिं निदधाति । अभ्रिया प्रहरति ऋध्यासमद्य मखस्य शिरः इति -बौ.श्रौ.9.1.2. यजुर्वेद संहिता परिशष्टांक 

    
(6)अरणि-मंथन
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अग्निहोत्री, जिससे श्रौताग्नि को प्रकट करता है, उसे अरणि कहते हैं । इसके चार अंग होते हैं- अधराणि उत्तरारणि, ओविली और नेत्र । अधरारणि पर मन्थी रखकर अग्नि-मंथन किया जाता है । मन्थी में उत्तरारणि (लम्बा काष्ठ) का टुकड़ा काटकर काम में लेते हैं । इस मन्थी को दबाने के लिए ओवली (12 अँगुल लम्बा काष्ठ) प्रयुक्त करते हैं । मंथन में उपयोग में आने वाली डोरी को नेत्र कहते हैं।

वापाश्रपण्यौ रशनेअरणी अधिमन्थनःशकलोवृषणौ (शत.ब्रा. 3.6.3.1()
यह सब मिलकर अरणि-मंथन का उपकरण पूरा होता है।

(7) अवट
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कूप और गर्त के अर्थों में प्रयुक्त किया गया है । उखा निर्माण के सम्बंध में इसका विवेचन होता है-

(यजु.11.61 उपट भा.)
हे अवट गर्त! अतिर्तिदेवी पृथिव्याः सधस्थे सहस्थाने उपरिभागे त्वा त्वां खनतु
-यजु.11.61
मही. भा. तदवटं परिलिखित (शत. ब्रा. 3.8.1.4)

(8) असि-
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छेदने और विदारण कार्य में प्रयुक्त होने वाली लोहे कही नुकीली शलाका को 'असि'कहते हैं । शतपथ ब्राह्माण में वज्र को ही असि कहा गया है- 

वज्रोवाऽअसिः (शत. ब्रा. 3.8.2.12)
असिं वै शास इत्याचक्षते (शत.ब्रा.3.8.1.4)

(9) आज्य
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तप्त घृत की आज्य कहा गया है । स्रुवा पात्र से स्रुची में लेकर आज्य होम किया जाता है ।
रस रूप द्रव्य को भी आज्य कहा गया है- रस 

आज्यम् (शत.ब्रा. 3.7.1.13)
देवगण आज्य से ही संतुष्ट होते हैं-
एतद्वै जुष्टं देवाना यदाज्यम् (शत.1.7.2.1)
अखण्ड हवन में सूर्यास्त के बाद के प्रत्येक प्रहर में क्रमशः आज्य, सतू, धाना और लाजा से हवन करने को कहा गया है-
आज्यसूक्त धानालाजानामेकै जुहोति (का.श्रौ.2(.4.32)

(10) आज्यस्थाली
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याग में आज्य रखने के पात्र को आज्यस्थाली कहते हैं । आज्यस्थाली में से स्रुवा आज्य जुहू में आठ स्रुवा उपभृत में और चार स्रुवा ध्रुवा में भरने को कहा गया है-
स्रुवेणाज्यग्रहणं चतुर्जुह्ना . . . . । अष्टावुपभूति. . । ध्रुवयाञ्व जुहूवत ( का०- श्रो० 2.7.9.10.15)

(11)आदित्य -ग्रह
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आदित्य ग्रह प्रतिप्रस्थाता नाम ऋत्विज् से सम्बंध है, जो द्रोणाकलश से सोम को आदित्य ग्रह में लेकर होम करते हैं-

होमाय प्रतिप्रस्थाता आदित्यपात्रे द्रोणकलशशादु पयामगृहीतेऽसीते गृहीत्वा द्विदेवत्याननुजुहोति (यजु.8.1 उ.भा.)
अष्टमे तृतीय सवनगता आदित्यग्रहादिमंत्रा उच्यन्ते (यजु.8.1 मही.भा.)
आदित्यग्रह रस-युक्त ही रहता है- अथैष सरसे ग्रहो यदादित्यग्रहः (कौषी.ब्रा.16.1) आदित्यग्रह से याग करने से गायों की वृद्धि होती है-
आदित्यग्रहं (अनु) गावः (प्रजायन्ते) (तैत्ति.सं.6.5.1(.1)

(12)आसन्दी
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आसन या आश्रय फलक के अर्थ में प्रयुक्त हुई है । औदुम्बर, खदिर आदि काष्ठ की मूँज की डोरी से बीनी हुई खटौली को आसन्दी कहते हैं । वाजपेय याग और सौंत्रामणी याग में यजमान को इस पर बिठाकर उनका अभिषेक किया जाता है । अग्निष्टोम याग में धर्मपात्र रखने के लिए धर्मासन्दी और सोमपात्र रखने के लिए सोमासन्दी होती है । अग्निचयन याग में इस पर उखा रखी जाती है । उद्गाता राजा आदि को बिठाकर अभिषेक करने की आसन्दी उद्गाता-आसन्दी राजासन्दी आदि कही जाती है-

पुरस्तादुद्रात्रासन्दीवदासन्द्यां चतरश्राड्ग्याम् -का.श्रौ. 16.5.5 ।
आसन्दी पर अधिष्ठित होने की महत्ता ब्राह्मण ग्रंथ में दी गयी है-
इयं वा आसन्द्यस्या हीद सर्वमासत्रम् अर्थात् यह आसन्दी है, क्योंकि इस पर सब कुछ आसन्न (रखा हुआ) है । (शत.ब्रा. 6.7.1.12)

(13)इड़ापात्री
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अधवर्यु, याग के बाद शेष बचे हविदररव्य को इड़ापात्री में रखकर होता को देते हैं । इड़ा पात्री में शेष इस द्रव्य को इडा कहते हैं । होता द्वारा मंत्र पाठ के अनन्तर ऋत्विज् और यजमान इडा भक्षण करते हैं-

इडाहोत्रे प्रदायाविसृजन् दक्षिणाऽतिक्रामति । (का.श्रौ. 3.4.5)
इडापात्री एक हाथ लम्बी, छह अंगुल चौड़ी एवं बीच में गहरी होती है ।

(14) इष्टका
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अग्निचयन के प्रसंग में इष्टकाओं (ईटों) का प्रयोग होता है । चित्ति-संरचना ईटों के माध्यम से की जाती है । ईंट-निर्माण की मिट्टी में राख का मिश्रण उचित होता है । चिति-निर्माण में विकृति, भंग और अधपकी ईंटों के प्रयोग को निषिद्ध कहा गया है-

न भिन्न न कृष्णामुपध्यात् । (शत.ब्रा. 8.7.16)

(15)उखा
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मिट्टी की बनायी मंजूषा को उखा कहते हैं । अग्निहोत्री वनीवाहन कर्म में रखा पात्र में अग्नि को लेकर प्रवास में जाते हैं । उखा पात्र में अंगश्रयण भी होता है । उखा पात्र में अग्नि की स्थापना करके उसका भरण करना उखा संभरण कहलाता है-

उखा संभरणमष्टभ्याम् । (का.श्रौ.16.2.1 )
शतपथ ब्रा. के अनुसार उखा की ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई एक प्रादेश (बालिश्त) की होती है-
तां प्रादेशमात्रीमेवोर्ध्वाम् करोति । (शत. 6.5.2.8 )
इसे यज्ञ की मूर्धा (सिरा) भी कहा गया है- शिर एमद्यजम्य यदुखा (का.सं. 196 )

(16) उपभृत्
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यह जुहू के नाप और आकार की अश्वत्थ (पीपल) काष्ठ की बनी एक स्रुची है । जुहू का आज्य समाप्त होने पर इसके आज्य को जुहू में लेकर आहुति दी जाती है-

आश्वत्क्ष्युपभृत (का.श्रौ. 1.3.3.6)
आज्यस्थाली में से चार स्रुवा आज्य जुहू में आठ स्रुवा उपभृत में और चार स्रुवा धु्रवा में रखने का विधान है । जुहू के उत्तर में उपभृत और उसके उत्तर में ध्रुवा पात्र रखे जाते हैं ।
वास्पत्यम में भी इसे एक स्रुचि भेद कहा गया है-
आश्वत्थे यज्ञाङ्गपात्रभेदे स्रुचि (वा.पृष्ठ 1233 )
पाणिभ्यां जुहूं परिग्रह्योपभृत्या धानम् (आश्व.गृ.1.10.9 )

(17) उपयमनी
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उपयमनी अग्नि-प्रस्थापन करने का मिट्टी का एक पात्र है । चातुर्मास्य याग में अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता गार्हपत्य अग्नि में से इन पात्रों में अग्नि निकालकर उत्तरवेदी और आहवनीय में अग्नि का प्रस्थापन करते हैं । जुहू से बड़े आकार की एक स्रुची भी उपयमनी कहलाती है । उपयमनी से धर्मपात्र में आज्य लेने का कहा गया है-

उपयमन्यासिञ्चति धर्मे (का. श्रौ. 26.6.1 )
वाचस्पत्यम् में इसका सम्बंध अग्न्याधान स बताया गया है- अग्याधानाङ्ग सिकतादौ ।
-वा.पृ. 1282
उपयमनीरु पकल्पयन्ति (शत. ब्रा. 3.5.2.1 )
उपयमनीरुपनिवपति (का.श्रौ. 5.4.18 )

(18)उपयाम
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उपयाम याग का काष्ठ निर्मित एक ग्रह पात्र है, जो सोम आदि द्रव रखने के उपयोग में आता है- यज्ञाङ्गे ग्रहरूपे पात्रभेदे (वा.पृ. 1283 )
यर्जुवेद में उपयाम शब्द अनेक बार उल्लिखित हुआ है- 

उपयाम गृहीतोऽसि -यजु. 7.4
वातं प्राणेनापानेने नासिके उपयाममधरेण.... (युज. 25.2)
यही तथ्य संहिता में भी उल्लेखित है- उपयाममधरे णौष्टेन (मैत्रा.सं.3.15.2)

(19) उपवेष (धृष्टि)
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यह यज्ञ का एक काष्ठ पात्र है । इसका आकार आगे से पंजे का और पीछे डंडे जैसा तथा नाप से एक हाथ लम्बा होता है । अग्निहोत्री इसका उपयोग खर की अग्नि को इधर-उधर हटाने में करते हैं- 

अङ्गार विभजनरथे काष्ठे (वा.पृ. 1330। )
स उपवेषमादने धृष्टिरसीति (शत. ब्रा. 1.2.1.3 । )
धृष्टिरसी त्युपवेषमादायापाग्न इत्यङ्गरान् प्राच. करोति (का. श्रौ. 2.4.25)
उपवेषोऽङ्गारापोहन समर्थ हस्ताकृति काष्ठम (का. श्रौ. 2.4.25 का.भा. )
पलाश शाखा के मूल को काटकर उपवेष निर्माण करने को कहा गया है- मूदुपवेषं करोति का.श्रौ.4.2.12 (उपसर्जनी)
ताँबे की जिस बटलोई में याग के लिए जल लिया जाता है, जल सहित वह पात्र उपसर्जनी कहलाता है । उपसर्जनी (जलपात्र) को गार्हपत्य अग्नि पर तपाना उपसर्जनी अधिश्रयण कहलाता है-
उपसर्जनीरधिश्रयति का.श्रौ. 2.5.1 ।
इसके बाद इस इध्र्वयु के निकट लाने को कहा गया है- उपसर्जनी राजरूत्यन्यः का.श्रौ.2.5.12

(21)उपांशु (ग्रह)
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जिन पात्रों को हाथ में लेकर यज्ञ-कार्य सम्पन्न किया जाता है, उन्हें ग्रह कहते हैं-

तद्यदेनं पात्रर्व्यवगृहणत् तस्माद्ग्रहा नाम-शत. ब्रा. 4.1.3.5 अध्र्वयु उपांशु ग्रह से याज्ञिक कार्य (सोमाहुति) करते हैं-उपांशु यजुषा- मै9ा. सं. 3.6.5 उपांशु ग्रह को मन्त्र से शुद्ध करके हवन करना चाहिए-
उत्तरादुपांशु जुहूयात् - कपि. क.सं. 42.1 याग के बाद भी उसका सम्मार्जन किया जाता है- उपांशुग्रहं हुत्वा पात्रमार्जन कुर्यात् - यजु. 7.3 मही. भा. । उपांशु सवन (बट्टा को ) उपांशु (ग्रह) के निकट रखा जाता है ।

(22) उलूखल
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उलूखल हवि रूप द्रव्य पदार्थ को कूटने का एक काष्ठ-पात्र है । पुरोडाश निर्माण के निमित्त जौ या ब्रीहि भी इसी से कूटा जाता है।

धान्यादिकण्डनसाधने काष्ठयमे पात्रे तच्च यज्ञियपात्रभेदःवा.पृ. 137( । कात्यायन श्रौत सूत्र में उलूखल-मुसल का उल्लेख मिलता है-
उलूखलमुसले स्वयमातृणामुत्तरेणारत्निमात्रेऽ औदुम्बरे प्रादेश मात्रे चतुरश्रमुलूखलं मध्यड्गृहीतमूद्ध वृत्तं - का.श्रौ. 17.513 अथोलूखलमुसलेऽ उपदधाति(शत. ब्रा. 7.5.1.12)

(23) ऋतुग्रह
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अग्निष्टोम याग में ऋतुग्रह नामक उपयाम पात्र का समानयन किया जाता है? ऋतुग्रह से सोम रसाहुति दी जाती है । इस कार्य के ऋत्विज् अध्र्वयु और प्रतिप्रस्थाता होते हैं । ऋतुओं की संख्या बारह है । अतएवं ऋतुग्रह से बारह सोम आहुतियाँ समर्पित की जाती हैं-

ऋतु ग्रहैश्चरत ..
(का.श्रौ.9.13.1)
द्वादश वै मासा संवत्सरस्य तस्मात् द्वादशगृहणीयात् (शत.ब्रा. 4.3.1. 5)
ऋत् ग्रह से प्रातः सवन में आहुतियों का विधान है- ऋतुग्रहैः प्रातः सवनमृतुमत ।
मैत्रा सं. 4.6.8
ऋतुग्रहों की उत्पत्ति सोम-पानक इन्द्र के साथ हुई बताया गया है- सोमपा इन्द्रस्य सजाता यद् ऋतुग्रहाः । कपि. क. सं. 44.2
ऋतुग्रह पात्र से आहुति देने पर प्राणियों की वृद्धि होना बताया गया है-ऋतृपात्रमेवान्वेकशफं प्रजायते ।(शत.ब्रा. 4.5.5.8)

(24) करम्भपात्र
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चातुर्मास्य याग में प्रतिप्रस्थाता जौ के आटे का करम्भपात्र बनाता है । इसका आकार डमरू जैसा और नाप अंगुष्ठ पर्व जितना होता है । इनकी संख्या यजमान की प्रजा (सन्तान) से एक अधिक रखी जाती है- तेषां करम्भपात्राणि कुर्वन्ति यावन्तो गृह्याः स्मुस्तावन्त्येकेनारिक्तानि । (शत. ब्रा. 2.5.2.14)
र्पूवेद्युर्दक्षिणाग्नौ निस्तुषाम भृष्ठयवानां करम्भपात्र करणम् । यावन्तो यजमानगृह्या एकाधिकानि ।(का. श्रौ. 5.3.2.3)

(25) कुश (दर्भ)
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कुश का प्रयोग याज्ञिक कृत्यों में विशेषतः किया जाता है । चारों दिशाओं में कुशकण्डिका आस्तरण एवं जल प्रोक्षण के निमित्त इसका प्रयोग होता है । शोधन-कारक होने के कारण इसे जल रूप भी माना गया है- आपो हि कुशा शत.ब्रा. 1.3.1.3 । कुश का पर्यायवाची शब्द दर्भ माना गया है । दर्भ को मन्युशमन करने वाला कहा गया है । दर्भ का औषधीय प्रयोग द्रष्टव्य है- उभयं देतदन्नयद्दर्भा आपश्च होता ओषधयश्च या ।शत. ब्रा. 7.2.3.2
अपां वा एतदोषधीनीं तेजो यद्दर्भाः काठ.सं. 30.10
दर्भ की शुद्धता याज्ञिक कृत्य में महत्त्पूर्ण होती है- ते हि शुद्ध मेध्याः । शत.ब्रा. 7.3.2.3

(26)ग्रह पात्र
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जिन पात्रों में हवन सामग्री या द्रव पदार्थ रखे जाते हैं, उन्हें ग्रह कहा गया है । सोमाभिषव काल में निचोड़ हुए सोम को एकत्र करने के लिए इस ग्रह पात्र को छन्ने के नीचे रखा जाता है- यद् गृह्णीति तस्माद् ग्रहः (शत.ब्रा. 10.1.1.5)
यद्वितं (यज्ञम्) ग्रहर्ैव्यगृह्णत तद् ग्रहाणां ग्रहाणां ग्रहत्वम् । (ऐत.ब्रा. 3.9)
इनका पवित्र प्रोक्षण करने के बाद इसे ग्रहण कर सोमाहुति दी जाती है-तान् पुरस्तात् पवित्रस्य व्यगृहणात् ते ग्रहा अभवन्- तैति. ब्रा. 1.4.1.1

(27) चमस होतृ अच्छावाक्, उद्गातृ
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चमस यज्ञीय सोमपत्र को कहते है- पलाशादिकाष्ठ जाते यज्ञियपात्रभेदे तल्लक्षणभेदादिकं यज्ञपार्श्वे । सोमपानपात्रभेदे च- वा. पृ. 2895 ।
तच्चाविशेषेऽपि सति चतुरश्रं स्यात् ''चमसेनापः प्रणयति'' इतिका.श्रौ.2.311 का.भा. । अच्छावाक् होता का सहकारी ऋत्विज् होता है । इनके द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले अच्छावाक् चमस और उद्गाता एवं अध्वर्यु के नाम पर क्रमशः उद्गातृ चमस एवं चमसाध्वर्यु प्रयुक्त किये जाते हैं ।
सोमस्य प्रतिष्ठा यमसोऽस्य प्रतिष्ठा सोमः स्तोमस्य स्तोम उक्थानां ग्रहं वा गृहीत्वा चमसं ।(बौधा.श्रौ. 14.2)
अच्छावाकचमसमेवैते त्रयः समुपहूय भक्षयन्ति ।(बौध.श्रौ. 7.20)

    
(28) चर्म (कृष्णाजिन, शर्दूल आदि)
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याज्ञिका कार्यों में चर्म का विविध प्रयोग पाया जाता है । इनका प्रयोग मुख्यतः आसतरण के रूप में किया जाता है । फलों पर बिछाकर उनकी रक्षा की जाती थी। चर्म पर सोम को पत्थर से कूटते थे तथा उसके रस को निकालते थे। गाय, मृग, मेष, व्याघ्र आदि के चर्म का उल्लेख यज्ञ-कार्यों में हुआ है- व्याघ्र चर्मारोहति-यज्ञु. 10.5 उ.भा.। पौर्णमासयाग में अध्र्वयु कृष्णाजिन को हाथ में लेकर विविध क्रियाएँ करते हैं- कृष्णाजिनादानम् - का.श्रौ. 2.4.1।
चर्म से चमस बनाकर भी याज्ञिक-कार्य सम्पन्न होते हैं- अथ होत्रणां चमसानभ्युन्न्यन्ति । (शत.ब्रा. 4.2.1.31)
कृष्ण मृग के चर्म को कृष्णाजिन और व्याघ्र या सिंह के चर्म को शार्दूल कहा जाता हैः कृष्णाजिनमादत्ते-शत.ब्रा. 1.1.4.4. । मृत्योर्वा एषवर्णः । यच्छर्दूल ।
(तैत्ति.ब्रा. 1.7.8.1)
(29) चात्वाल
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चातुर्मास्य या अग्निष्टोम याग की वेदिका से उत्तर की ओर चात्वाल बनाया जाता है । यह एक विशेष यज्ञकुण्ड होता है, जिसकी नाप 32324 अंगुल है । इसका उल्लेख कात्यायन श्रौत्यायन श्रौतसूत्र में अनेक स्थानों पर मिलता है-

श्य्यामादाय चात्वलं मिमीते- का.श्रौ. 5.3.19 ।
विददग्निरिति चात्वो प्रहरहत का.श्रौ. 5.3.23 ।
चात्वालोत्करावन्तरेण सञ्चरः का. श्रौ.1.3.41 ।
वाचस्पत्यम् में इसका एक अर्थ है- उत्तरवेदी में स्तूप का स्थान उत्तरवेद्यङ्गे भृत्स्तूपे वा.पृ.2912

(30)जूहू
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याग में हविद्र्रव्य अर्पित करने के निमित्त प्रयुक्त होने वाली स्रुची को जुहू कहते हैं । यह पलाश काष्ठ की, एक अरित्न (बाहुमात्र नाप की आगे में चार अंगुल गर्तवाली और हंसमुखी होती है- यज्ञिये स्रुगाख्ये पात्रभेदे सा च पत्नाश्घटिता वा.पृ. 3142 ।
पालाशी जुहू -का.श्रौ. 1.3.35 । पर्णयमी जुहूः तै.सं. 3.5.7.2 । इसे यज्ञ का मुख और द्युलोक की उत्पत्तिकारक कहा गया है- जुर्हूवैयज्ञमुखम् मैत्रा1 सं. 3.1.1 । जुह्वेहि घृताची द्यौर्जन्मना । (काठ.मं. 1.11)

(31) दण्ड
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अग्निष्टोम याग में यजमान को ब्रह्मचर्य पूर्वक जीवन यापन करते हुए परिभ्रमण करना पड़ता था, इसलिए उस समय दण्डधारण का विधान आत्मरक्षार्थ किया था- 

दण्डोदेवता! हे वनस्पते वृक्षावयव दण्ड, उच्छ्रयस्व उन्नतो भव । ऊध्र्वोभूत्वा अंह सः पापात् मा मां पाहि रक्ष । तत्र कालावधिरुच्यते यजु.4.1 ( मही.भा. । याग में यजमान का मुँह के बराबर तक ऊँचाई वाला औदुम्बर काष्ठ का दण्ड धारण कराया जाता है- मुखसम्मितमादुम्बरं दण्डं प्रयच्छिति का. श्रौ. 7.4.1 । दण्ड को वज्र का प्रतीक माना गया है- वज्ररो वै दण्डो विरक्षस्तायै (शत.ब्रा. 3.2.1.32)

(32)दर्वि
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यह विकङ्कत काष्ठ की बनी हुई और कलछुल के आकार की होती है । चातुर्मास्य याग में इसी से हवि रूप द्रवव्य की आहुतियाँ दी जाती हैं- 

दर्व्याऽऽदत्ते पूर्णादर्वीति (का.श्रौ.5.6.10)
अग्निहोत्रं च हुत्वा अहुत्वा वा दर्विहोमः र्कत्तव्यः (का.श्रौ.5.6.3( का.भा.)
एष खलु वै स्रिया हस्तो यद् दर्वि (मैत्रा.सं.1.1(.16)

(33)द्रोणकलश
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द्रोणकलश में सोमरस छाना जाता है । यह विकङ्गत काष्ठ का मध्य में गर्तवाला और चारों ओर परिधि वाला होता है । इसकी लम्बाई अठारह अँगुल और चौड़ाई बारह अँगुल रहती है-

अतिरिक्तं वा एतत् प्रात्राणं यदू द्रोण कलशः (कपि. क.सं. 44.9)
आहवनीयं गच्छत्यादाय ग्राव द्रोणकलश सोमपात्राणि का.श्रौ.8.7.4 ।
द्रोणकलशस्य स्वशब्दाभिधानात् सोमपात्रशब्देन ग्रहपात्राणि गृह्यन्तेका.श्रौ.8.7.4 का.भा. ।
स्रुचशाच में चमसाश्च मे वाय व्यानि च मे द्रोणकलशश्च मे... ।
(यजु. 18.21
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मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

*वास्तु देवता की उत्पत्ति उनका स्वरूप और क्या है उनका मूल मन्त्र आओ जाने*

*वास्तु देवता की उत्पत्ति  उनका स्वरूप और क्या है उनका मूल मन्त्र आदौ जाने*

वास्तुदेवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा तथा वास्तुचक्र बनाया जाता है । वास्तुचक्र अनेक प्रकार के होते हैं । अलग-अलग अवसरों पर भिन्न-भिन्न पद के वास्तुचक्र बनाने का विधान है । वास्तु कलश में वास्तुदेवता (वास्तोष्पति) की पूजा कर उनसे सब प्रकार की शान्ति व कल्याण की प्रार्थना की जाती है।

जिस भूमि पर मनुष्य या प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है । शुभ वास्तु के रहने से वहां के निवासियों को सुख-सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है और अशुभ वास्तु में निवास करने से हानिकारक परिणाम मिलते हैं ।

*वास्तु देवता कौन हैं ?*

मत्स्यपुराण के अनुसार प्राचीनकाल में अन्धकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेदबिन्दु (पसीने की बूंदें) गिरे उनसे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष प्रकट हुआ जो विकराल मुंह फैलाये हुए था । अन्धकासुर के गणों का रक्तपान करने पर भी जब उसे तृप्ति नहीं हुई तो भूख से व्याकुल होकर वह त्रिलोकी का भक्षण करने को उद्यत हो गया । तब भगवान शंकर आदि देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता (वास्तुपुरुष) के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया इसलिए वह वास्तु देवता या वास्तुपुरुष के नाम से प्रसिद्ध हो गया । 

देवताओं ने उसे गृह निर्माण, वैश्वदेव बलि के और पूजन-यज्ञ के समय पूजित होने का वर दिया । देवताओं ने उसे वरदान दिया कि तुम्हारी सब मनुष्य पूजा करेंगे । तालाब, कुएं और वापी खोदने, गृह व मन्दिर के निर्माण व जीर्णोद्धार में, नगर बसाने में, यज्ञ-मण्डप के निर्माण व यज्ञ आदि के समय वास्तुदेवता की पूजा का विधान है ।

*वास्तु देवता का स्वरूप (ध्यान)*

श्वेतं चतुर्भुजं शान्तं कुण्डलाद्यैरलंकृतम् । 
पुस्तकं चाक्षमालां च वराभयकरं परम् ।। 
पितृवैश्वानरोपेतं कुटिलभ्रूपशोभितम् । 
करालवदनं चैव आजानुकरलम्बितम् ।। (मध्यमपर्व २।११।११-१२)

अर्थात्—वास्तुगेवता श्वेत वर्ण के, चार भुजा वाले, शान्तस्वरूप, और कुण्डलों से सुशोभित हैं । हाथ में पुस्तक, अक्षमाला, वरद और अभय की मुद्रा धारण किये हुए हैं । पितरों और वैश्वानर से युक्त हैं तथा उनकी भौंहें कुटिल (तिरछी) हैं । उनका मुख भयंकर है । हाथ घुटनों तक लम्बे हैं ।

वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा तथा वास्तुचक्रबनाया जाता है । वास्तुचक्र अनेक प्रकार के होते हैं । अलग-अलग अवसरों पर भिन्न-भिन्न पद के वास्तुचक्र बनाने का विधान है ।

वास्तु कलश में वास्तु देवता (वास्तोष्पति) की पूजा कर उनसे सब प्रकार की शान्ति व कल्याण की प्रार्थना की जाती है ।

*वास्तुदेवता का मूल मन्त्र!!!!!!!!*

ऋग्वेद (७।५४।१) में वास्तुदेवता का मूल मन्त्र इस प्रकार है—

वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान् त्स्वावेशो अनमीवो भवान: । 
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।।

*अर्थात्—* हे वास्तुदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं , इस पर पूर्ण विश्वास करें और तदनन्तर हमारी स्तुति-प्रार्थनाओं को सुनकर आप हम सभी उपासकों को आधि-व्याधि मुक्त कर दें और जो हम अपने धन-ऐश्वर्य की कामना करते हैं, आप उसे भी परिपूर्ण कर दें, साथ ही इस वास्तुक्षेत्र या गृह में निवास करने वाले हमारे स्त्री-पुत्रादि परिवार-परिजनों के लिए कल्याणकारक हों तथा हमारे अधीनस्थ गौ, घोड़े, सभी चौपायों (वाले प्राणियों) का भी कल्याण करें ।

*किस दिशा के कौन हैं देवता...*

हवा के चलने को आज भी भारत में उसे उसी दिशा का नाम दे दिया जाता है जैसे- पूर्व से चलने वाली हवा को पुरवाई इसी प्रकार अन्य दिशाओं में चलने वाली हवाओं का नाम होता है। प्रत्येक मानव जब भी चलता है किसी न किसी दिशा में ही चलता है बिना दिशा वह कभी चल ही नहीं सकता या तो वह सही दिशा में जाएगा या गलत दिशा में, गलत दिशा में चलने वाले को दिशाहीन, पथ भ्रष्ट की संज्ञा दी जाती है। फिलहाल हम बात कर रहे हैं वास्तु की दिशा और उनके देवताओं की.... 
 
- उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है। जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित होता है।

- उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता हैं। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान मामले प्रभावित होते हैं।

- पूर्व दिशा के देवता इंद्र हैं जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आम तौर पर सूर्य ही को इस दिशा का स्वामी माना जाता जो प्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तुनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं। जिससे सुख-संतोष तथा आत्मविश्वास प्रभावित होता है।

- दक्षिण-पूर्व (अग्नेय कोण) के देवता अग्नि देव हैं जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं।

- दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं। जिन्हें धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियाँ व शांति प्राप्ति होती है।
 
- दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं जिन्हे दैत्यों का स्वामी कहा जाता है। जिससे आत्मशुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एव आयु प्रभावित होती है।

- पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं जिन्हें जलतत्व का स्वामी कहा जाता है। जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं। जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है।
 
- उत्तर-पश्चिम के देवता पवन देव है। जो हवा के स्वामी हैं। जिससे सम्पूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है।
 
इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तु शास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशाएं आपको रंक से राजा बना जीरसदेहैं।श्री कामदं ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी ९८२४४१७०९०... 





*आदी शंकराचार्य लिखित साहित्य*

*आदी शंकराचार्य लिखित साहित्य*

अष्टोत्तरसहस्रनामावलिः
उपदेशसहस्री
चर्पटपंजरिकास्तोत्रम्‌
तत्त्वविवेकाख्यम्
दत्तात्रेयस्तोत्रम्‌
द्वादशपंजरिकास्तोत्रम्‌
पंचदशी कूटस्थदीप.
चित्रदीप
तत्त्वविवेक
तृप्तिदीप
द्वैतविवेक
ध्यानदीप
नाटक दीप
पञ्चकोशविवेक
पञ्चमहाभूतविवेक
पञ्चकोशविवेक
ब्रह्मानन्दे अद्वैतानन्द
ब्रह्मानन्दे आत्मानन्द
ब्रह्मानन्दे योगानन्द
महावाक्यविवेक
विद्यानन्द
विषयानन्द

परापूजास्तोत्रम्‌
प्रपंचसार
भवान्यष्टकम्‌
लघुवाक्यवृत्ती
विवेकचूडामणि
सर्व वेदान्त सिद्धान्त सार संग्रह
साधनपंचकम
भाष्ये अध्यात्म पटल भाष्य
ईशोपनिषद भाष्य
ऐतरोपनिषद भाष्य
कठोपनिषद भाष्य
केनोपनिषद भाष्य
छांदोग्योपनिषद भाष्य
तैत्तिरीयोपनिषद भाष्य
नृसिंह पूर्वतपन्युपनिषद भाष्य
प्रश्नोपनिषद भाष्य
बृहदारण्यकोपनिषद भाष्य
ब्रह्मसूत्र भाष्य
भगवद्गीता भाष्य
ललिता त्रिशती भाष्य
हस्तामलकीय भाष्य
मंडूकोपनिषद कारिका भाष्य
मुंडकोपनिषद भाष्य
विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र भाष्य
सनत्‌सुजातीय भाष्य

छोट्या तत्त्वज्ञानविषक रचना (कंसात श्लोकसंख्या/ओवीसंख्या)
अद्वैत अनुभूति (८४)
अद्वैत पंचकम्‌ (५)
अनात्मा श्रीविगर्हण (१८)
अपरोक्षानुभूति (१४४)
उपदेश पंचकम्‌ किंवा साधन पंचकम्‌ (५)
एकश्लोकी (१)
कौपीनपंचकम्‌ (५)
जीवनमुक्त आनंदलहरी (१७)
तत्त्वोपदेश(८७)
धन्याष्टकम्‌ (८)
निर्वाण मंजरी (१२)
निर्वाणशतकम्‌ (६)
पंचीकरणम्‌ (गद्य)
प्रबोध सुधाकर (२५७)
प्रश्नोत्तर रत्‍नमालिका (६७)
प्रौढ अनुभूति (१७)
यति पंचकम्‌ (५)
योग तरावली(?) (२९)
वाक्यवृत्ति (५३)
शतश्लोकी (१००)
सदाचार अनुसंधानम्‌ (५५)
साधन पंचकम्‌ किंवा उपदेश पंचकम्‌ (५)
स्वरूपानुसंधान अष्टकम्‌ (९)
स्वात्म निरूपणम्‌ (१५३)
स्वात्मप्रकाशिका (६८)
गणेश स्तुतिपरगणेश पंचरत्‍नम्‌ (५)
गणेश भुजांगम्‌ (९)
शिवस्तुतिपरकालभैरव अष्टकम्‌ (१०)
दशश्लोकी स्तुति (१०)
दक्षिणमूर्ति अष्टकम्‌ (१०)
दक्षिणमूर्ति स्तोत्रम्‌ (१९)
दक्षिणमूर्ति वर्णमाला स्तोत्रम्‌ (१३)
मृत्युंजय मानसिक पूजा (४६)
वेदसार शिव स्तोत्रम्‌ (११)
शिव अपराधक्षमापन स्तोत्रम्‌ (१७)
शिव आनंदलहरी (१००)
शिव केशादिपादान्तवर्णन स्तोत्रम्‌ (२९)
शिव नामावलि अष्टकम्‌ (९)
शिव पंचाक्षर स्तोत्रम्‌ (६)
शिव पंचाक्षरा नक्षत्रमालास्तोत्रम्‌ (२८)
शिव पादादिकेशान्तवर्णनस्तोत्रम्‌ (४१)
शिव भुजांगम्‌ (४)
शिव मानस पूजा(५)
सुवर्णमाला स्तुति (५०)
शक्तिस्तुतिपरअन्‍नपूर्णा अष्टकम्‌ (८)
आनंदलहरी
कनकधारा स्तोत्रम्‌ (१८)
कल्याण वृष्टिस्तव (१६)
गौरी दशकम्‌ (११)
त्रिपुरसुंदरी अष्टकम्‌ (८)
त्रिपुरसुंदरी मानस पूजा (१२७)
त्रिपुरसुंदरी वेद पाद स्तोत्रम्‌ (१०)
देवी चतु:षष्ठी उपचार पूजा स्तोत्रम्‌ (७२)
देवी भुजांगम्‌ (२८)
नवरत्‍न मालिका (१०)
भवानी भुजांगम्‌ (१७)
भ्रमरांबा अष्टकम्‌ (९)
मंत्रमातृका पुष्पमालास्तव (१७)
महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम्‌
ललिता पंचरत्नम्‌ (६)
शारदा भुजंगप्रयात स्तोत्रम्‌ (८)
सौंदर्यलहरी (१००)
विष्णू आणि त्याच्या अवतारांच्या स्तुतिपरअच्युताष्टकम्‌ (९)
कृष्णाष्टकम्‌ (८)
गोविंदाष्टकम्‌ (९)
जगन्‍नाथाष्टकम्‌ (८)
पांडुरंगाष्टकम्‌ (९)
भगवन्‌ मानस पूजा (१०)
मोहमुद्‌गार (भज गोविंदम्‌) (३१)
राम भुजंगप्रयात स्तोत्रम्‌ (२९)
लक्ष्मीनृसिंह करावलंब (करुणरस) स्तोत्रम्‌ (१७)
लक्ष्मीनरसिंह पंचरत्‍नम्‌ (५)
विष्णुपादादिकेशान्त स्तोत्रम्‌ (५२)
विष्णु भुजंगप्रयात स्तोत्रम्‌ (१४)
षट्‌पदीस्तोत्रम्‌ (७)
इतर देवतांच्या आणि तीर्थांच्या स्तुतिपरअर्धनारीश्वरस्तोत्रम्‌ (९)
उमा महेश्वर स्तोत्रम्‌ (१३)
काशी पंचकम्‌ (५)
गंगाष्टकम्‌ (९)
गुरु अष्टकम्‌ (१०)
नर्मदाष्टकम्‌ ९)
निर्गुण मानस पूजा (३३)
मनकर्णिका अष्टकम्‌ (९)
यमुनाष्टकम्‌ (८)
यमुनाष्टकम्‌-२ (९)

*अष्ट -शंकरुद्घोष*

(१) श्री आद्य शंकराचार्य इस कलिकाल में सनातन हिन्दू धर्म के सर्वोच्च तथा प्रामाणिक जगद्गुरु हैं - ये धारणा प्रत्येक हिन्दू के हृदय मे सुदृढ हो !

(२) श्री आद्य शंकराचार्य ने जो कहा है उसी के अनुकूल किसी भी वर्त्तमान संन्यासी अथवा अन्य धर्मोपदेशक का कथन मान्य है तद्विपरीत नही - ये धारणा प्रत्येक हिन्दू के हृदय मे सुदृढ हो !

(३) श्री आद्य शंकराचार्य का विरचित शांकर भाष्य ही सनातन धर्म का यथार्थ अभिप्राय व्यक्तकरता है , यह भाष्य सनातन वैदिक धर्म का प्रामाणिक सार -सर्वस्व है - ये धारणा प्रत्येक हिन्दू के हृदय मे सुदृढ हो !

(४) श्री आद्य शंकराचार्य के विरचित साहित्य का एक -एक वाक्य सनातन हिन्दू धर्म का सम्पोषक अमृतरस है - ये धारणा प्रत्येक हिन्दू के हृदय मे सुदृढ हो !

(५) श्री आद्य शंकराचार्य का ध्यान , उनकी धारणा , उन पर दृढ विश्वास , उनके दर्शाए मार्ग का अनुगमन - ये हमारा धर्म है - ये धारणा प्रत्येक हिन्दू के हृदय मे सुदृढ हो !

(६) श्री आद्य शंकराचार्य ब्राह्मणत्व के आदर्श , हिन्दुत्व के गौरव तथा कैवल्य के नायक हैं - ये धारणा प्रत्येक हिन्दू के हृदय मे सुदृढ हो !

(७) श्री आद्य शंकराचार्य के कथन के अनुकूल श्रुत्यर्थ उचित है तथा प्रतिकूल श्रुत्यर्थ अनुचित है - ये धारणा प्रत्येक हिन्दू के हृदय मे सुदृढ हो !

(८) श्री आद्य शंकराचार्य के सन्देश का प्रवर्तन , प्रवर्धन अथवा प्रचार -प्रसार ये प्रत्येक ब्राह्मण का कर्त्तव्य है और इसका अनुशीलन वा समर्थन प्रत्येक हिन्दू का कर्त्तव्य है - ये धारणा प्रत्येक हिन्दू के हृदय मे सुदृढ हो !

- शिवः केवलोsहम् ।।

श्रीजगद्गुरुभ्यो नमः ।।
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो !
विश्व का कल्याण हो !
गोहत्या बंद हो !
गोमाता की जय हो !
हर हर महादेव

रविवार, 26 अप्रैल 2020

🚩अक्षय तृतीया दिन विशेष🚩

🚩अक्षय तृतीया दिन विशेष🚩

१) साडेतीन मुहूर्तो में से एक
२) अक्षय फल प्रदान करनेवाला
३) 'लीग ऑफ डिओटीज' की झान्सी मे स्थापना, 16 मई 1953 (श्रील प्रभूपाद द्वारा)
४) चंदन यात्रा प्रारंभ
५) श्री परशुराम एवं श्री हयग्रीव जयंती
६) श्री जगन्नाथ रथ का पुरी बनना शुरु
७) श्री बद्रीनाथ दर्शन एवं सेवा शुरु
८) श्री बांकेबिहारीजी चरण दर्शन
९) कृष्ण और सुदामा मिलन
१०) द्रौपदी चिरहरण से रक्षण
११) व्रज में पावन सरोवर का प्राकट्य
१२) सिंहाचलम नृसिंह के पूर्ण दर्शन
१३) सूर्यदेव द्वारा पांडवोंको अक्षयपात्र प्रदान
१४) महाभारत का युद्ध समापन
१५) कुबेर को धन और पद की प्राप्ती
१६) गंगामाता का पृथ्वीपर अवतरण
१७) चारों युग का प्रारंभ दिन
१८) महाभारत की रचना प्रारंभ
१९) ब्रह्माजी के पुत्र अक्षयकुमार का जन्म
२०) अन्नपूर्णा देवी का प्राकट्य
२१) आदिशंकराचार्य जी द्वारा कनकधारा स्तोत्ररचना
🌸श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी९८२४४१७०९०🌸

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

*यज्ञ कुंड के प्रकार :-

*यज्ञ कुंड के प्रकार :-

यज्ञ कुंड मुख्यत: आठ प्रकार के होते हैं और सभी  का प्रयोजन अलग अलग होताहैं ।
1. योनी कुंड – योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु ।
2. अर्ध चंद्राकार कुंड – परिवार मे सुख शांति हेतु । पर पतिपत्नी दोनों को एक साथ आहुति देना पड़ती हैं ।
3. त्रिकोण कुंड – शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु ।
4. वृत्त कुंड - जन कल्याण और देश मे शांति हेतु ।
5. सम अष्टास्त्र कुंड – रोग निवारण हेतु ।
6. सम षडास्त्र कुंड – शत्रुओ मे लड़ाई झगडे करवाने हेतु ।
7. चतुष् कोणा स्त्र कुंड – सर्व कार्य की सिद्धि हेतु ।
8. पदम कुंड – तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु ।
तो आप समझ ही गए होंगे की सामान्यतः हमें
चतुर्वर्ग के आकार के
इस कुंड का ही प्रयोग करना हैं । ध्यान रखने योग्य बाते :- अबतक आपने शास्त्रीय बाते समझने का
प्रयास किया यह बहुत जरुरी हैं । क्योंकि इसके बिना सरल बाते पर आप गंभीरता से विचार नही कर सकते । सरल विधान का यह मतलबआप ह्रद्यंगम ना करें ।
पर जप के बाद कितना और कैसे हवन किया जाता हैं ? कितने लोग और किस प्रकार के लोग की
आप सहायता ले सकते हैं ? कितना हवन किया जाना हैं ? हवन करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना हैं ? क्या कोई और सरल उपाय भी जिसमे हवन ही न करना पड़े ? किस दिशा की ओर मुंह करके बैठना हैं ? किस प्रकार की अग्नि का आह्वान करना हैं ? किस प्रकार की हवन
सामग्री का उपयोग करना हैं ? दीपक कैसे और किस चीज का लगाना हैं ? कुछ ओर आवश्यक सावधानी ? आदि बातों के साथ अब कुछ बे हको देखे जब शास्त्रीय
गूढता युक्त तथ्य हमने समंझ लिए हैं तो अब सरल बातों और किस तरह से करना हैं पर भी
कुछ विषद चर्चा की आवश्यकता हैं ।

1. कितना हवन किया जाए ?
शास्त्रीय नियम
तो दसवे हिस्सा का हैं ।
इसका सीधा मतलब की एक अनुष्ठान मे
1,25,000 जप या 1250 माला मंत्र जप अनिवार्य हैं और इसका दशवा हिस्सा होगा 1250/10 =
125 माला हवन मतलब लगभग 12,500 आहुति । (यदि एक माला मे 108 की जगह सिर्फ100  गिनती ही माने तो) और एक आहुति मे मानलो 15 second लगे तब कुल 12,500 *
15 = 187500 second मतलब 3125 minute मतलब 52 घंटे लगभग। तो किसी एक व्यक्ति
के लिए इतनी देर आहुति दे पाना क्या संभव हैं ?
2. तो क्या अन्य
व्यक्ति की सहायता ली जा सकती हैं? तो इसका
उतर
हैं हाँ । पर वह सभी शक्ति मंत्रो से दीक्षित हो या अपने ही गुरु भाई बहिन हो तो अति उत्तम हैं । जब यह भी न संभव हो तो गुरुदेव के श्री चरणों मे अपनी असमर्थता व्यक्त कर मन ही मन
उनसे आशीर्वाद लेकर घर के सदस्यों की सहायता ले सकते हैं ।
3. तो क्या कोई और उपाय नही हैं ? यदि दसवां हिस्सा संभव न हो तो शतांश हिस्सा भी हवन
किया जा सकता हैं । मतलब 1250/100 = 12.5 माला मतलब लगभग 1250 आहुति = लगने वाला समय = 5/6 घंटे ।यह एक साधक के लिए
संभव हैं ।
4. पर यह भी हवन भी यदि संभव ना हो तो ? कतिपय साधक किराए के मकान में या फ्लैट में रहते हैं वहां आहुति देना भी संभव नही है तब क्या ? गुरुदेव जी ने यह भी विधान सामने रखा की साधक यदि कुल जप संख्या का एक चौथाई हिस्सा जप और कर देता है संकल्प ले कर की मैं दसवा हिस्सा हवन नही कर पा रहा हूँ । इसलिए यह मंत्र जप कर रहा हूँ तो यह भी संभव हैं । पर इस केस में शतांश जप नही चलेगा इस बात का ध्यान रखे ।
5. स्रुक स्रुव :- ये आहुति डालने के काम मे आते हैं । स्रुक 36 अंगुल लंबा और स्रुव 24 अंगुल लंबा होना चाहिए । इसका मुंह आठ अंगुल और कंठ एक अंगुल का होना चाहिए । ये दोनों स्वर्ण रजत पीपल आमपलाश की लकड़ी के बनाये जा सकते हैं ।
6। हवन किस चीज का किया जाना चाहिये ?
· शांति कर्म मे पीपल के पत्ते, गिलोय, घी का ।
· पुष्टि क्रम में बेलपत्र चमेली के पुष्प घी ।
· स्त्री प्राप्ति के लिए कमल ।
· दरिद्र्यता दूर करने के लिये दही और घी का ।
· आकर्षण कार्यों में पलाश के पुष्प या सेंधा नमक से ।
· वशीकरण मे चमेली के फूल से ।
· उच्चाटन मे कपास के बीज से ।
· मारण कार्य में धतूरे के बीज से हवन किया जाना चाहिए ।
7. दिशा क्या होना चाहिए ? साधरण रूप से
जो हवन कर रहे हैं वह कुंड के पश्चिम मे बैठे और उनका मुंह पूर्व
दिशा की ओर होना चाहिये । यह भी विशद व्याख्या चाहता है । यदि षट्कर्म किये
जा रहे हो तो ;
· शांती और पुष्टि कर्म में पूर्व दिशा की ओर हवन कर्ता का मुंह रहे ।
· आकर्षण मे उत्तर की ओर हवन कर्ता का मुंह रहे और यज्ञ कुंड वायु कोण में हो ।
· विद्वेषण मे नैऋत्य दिशा की ओर मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण में रहे ।
· उच्चाटन मे अग्नि कोण में मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण मे रहे ।
· मारण कार्यों में - दक्षिण दिशा में मुंह और दक्षिण दिशा में हवन कुंड हो ।
8. किस प्रकार के हवन कुंड का उपयोग किया जाना चाहिए ?
· शांति कार्यों मे स्वर्ण, रजत या ताबे का हवन कुंड होना चाहिए ।
· अभिचार कार्यों मे लोहे का हवन कुंड होना चाहिए।
· उच्चाटन मे मिटटी का हवन कुंड ।
· मोहन् कार्यों मे पीतल का हवन कुंड ।
· और ताबे के हवन कुंड में प्रत्येक कार्य में उपयोग किया जा सकता है ।
9. किस नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चाहिए ?
· शांति कार्यों मे वरद नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चहिये ।
· पुर्णाहुति मे मृृड नाम की ।
· पुष्टि कार्योंमे बलद नाम की अग्नि का ।
· अभिचार कार्योंमे क्रोध नाम की अग्नि का ।
· वशीकरण मे कामद नाम की अग्नि का आहवान किया जाना चहिये
: 10. कुछ ध्यान योग बाते :-
· नीम या बबुल की लकड़ी का प्रयोग ना करें ।
· यदि शमशान मे हवन कर रहे हैं तो उसकी कोई भी चीजे अपने घर मे न लाये ।
· दीपक को बाजोट पर पहले से बनाये हुए चन्दन के त्रिकोण पर ही रखे ।
· दीपक मे या तो गाय के घी का या तिल का तेल का प्रयोग करें ।
· घी का दीपक देवता के दक्षिण भाग में और तिल का तेल का दीपक देवता के बाए ओर लगाया जाना चाहिए ।
· शुद्ध भारतीय वस्त्र पहिन कर हवन करें ।
· यज्ञ कुंड के ईशान कोण मे कलश की स्थापना करें ।
· कलश के चारो ओर स्वास्तिक का चित्र अंकित करें ।
· हवन कुंड को सजाया हुआ होना चाहिए ।
अभी उच्चस्तरीय इस विज्ञानं के
अनेको तथ्यों को आपके सामने आना
बाकी हैं । जैसे की "यज्ञ कल्प सूत्र विधान"
क्या हैं । जिसके माध्यम से
आपकी हर प्रकार की इच्छा की पूर्ति केवल मात्र यज्ञ के
माध्यम से हो जाति हैं । पर यह यज्ञ कल्प
विधान हैं क्या ? यह और
भी अनेको उच्चस्तरीय तथ्य जो आपको विश्वास
ही नही होने देंगे की
यह भी संभव हैं । इस आहुति विज्ञानं के माध्यम
से आपके सामने
भविष्य मे आयंगे । अभी तो मेरा उदेश्य यह हैं
की इस विज्ञानं की
प्रारंभिक रूप रेखा से आप परिचित हो ।
तभी तो उच्चस्तर के ज्ञान की
आधार शिला रखी जा सकती हीं ।*

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

॥गन्धाष्टकं तत् त्रिविधं शक्तिविष्णुशिवात्मकम्

शारदातिलकम् २८२
॥  गन्धाष्टकं तत् त्रिविधं शक्तिविष्णुशिवात्मकम् ।

चन्दनागुरुकर्पूरचोरकुंकुमरोचनाः । ॥ ७९ ॥ जटामांसीकपियुताः शक्तर्गन्धाष्टकं विदुः । । चन्दनागुरुहनीवेरकुष्ठकुङ्कुमसेव्यकाः ॥ ८० ॥ जटामांसीमुरमिति विष्णोर्गन्धाष्टकं विदुः । चन्दनागुरुकर्पूरतमालजलकुंकुमम् ।  
कुशीतकुष्ठ संयुक्त शैवं गन्धाष्टकं स्मृतम् ॥ ८१ ॥

शक्ति , विष्णु तथा शिव के भेद से गन्धाष्टक तीन प्रकार का होता है ।
१~चन्दन , अगुरु , कपूर , चोर , कंकम , गोरोचन , जटामांसी तथा कपि - ये आठ शक्ति के गन्धाष्टक कहे गये हैं ।
२~चन्दन , अगुरु , ह्रीवेर , कुष्ठ , कंकुम , सेव्यक , जटामांसी और मुरा - ये विष्णु के गन्धाष्टक हैं ।
३~चन्दन , अगुरु , कपूर , तमाल , जल , कुंकुम , कुशीत तथा कुष्ठ - ये ८ शैव गन्धाष्टक कहे गये हैं । ।

गणपतिसंहितायां गणेशगन्धाष्टकमप्युक्तम्
स्वरूपं चन्दनं चोरं रोचनागुरुमेव च ।
मदं भृगद्वयोद्भूतं कस्तूरीचन्द्रसंयुतम् ।
अष्टगन्धं विनिर्दिष्टं गणेशस्य महाविभोः ॥

गंधाष्टक या अष्टगंध आठ गंधद्रव्यों के मिलाने से बना हुआ एक संयुक्त गंध है जो पूजा में चढ़ाने और यंत्रादि लिखने के काम में आता है।


तंत्र के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के लिये भिन्न-भिन्न गंधाष्टक का विधान पाया जाता है। तंत्र में पंचदेव (गणेश, विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य) प्रधान हैं, उन्हीं के अंतर्गत सब देवतामाने गए हैं; अतः गंधाष्टक भी पाँच यही हैं।

शक्ति के लिये-


चंदनअगरकपूर, चोर, कुंकुमरोचनजटामासी, कपि

विष्णु के लिये-


चंदन, अगर, ह्रीवेर, कुट, कुंकुम, उशीर, जटामासी और मुर;

शिव के लिये-


चंदन, अगर, कपूर, तमाल, जल, कुंकुम, कुशीद, कुष्ट;

गणेश के लिये-


चंदन, चोर, अगर, मृग और मृगी का मद, कस्तूरी, कपूर; अथवाचंदन, अगर, कपूर, रोचन, कुंकुम, मद, रक्तचंदन, ह्रीवेर;

सूर्य के लिये-


जल, केसर, कुष्ठ, रक्तचंदन, चंदगन, उशीर, अगर, कपूर।

शास्त्रों में तीन प्रकार की अष्टगन्ध का वर्णन है, जोकि इस प्रकार है-

शारदातिलक के अनुसार अधोलिखति आठ पदार्थों को अष्टगन्ध के रूप में लिया जाता है-


चन्दन, अगर, कर्पूर, तमाल, जल, कंकुम, कुशीत, कुष्ठ।

यह अष्टगन्ध शैव सम्प्रदाय वालों को ही प्रिय होती है।

दूसरे प्रकार की अष्टगन्ध में अधोलिखित आठ पदार्थ होते हैं-


कुंकुम, अगर, कस्तुरी, चन्द्रभाग, त्रिपुरा, गोरोचन, तमाल, जल आदि।

यह अष्टगन्ध शाक्त व शैव दोनों सम्प्रदाय वालों को प्रिय है।

वैष्णव अष्टगन्ध के रूप में इन आठ पदार्थ को प्रिय मानते है-


चन्दन, अगर, ह्रीवेर, कुष्ठ, कुंकुम, सेव्यका, जटामांसी, मुर।

अन्य मत से अष्टगन्ध के रूप में निम्न आठ पदार्थों को भी मानते हैं-


अगर, तगर, केशर, गौरोचन, कस्तूरी, कुंकुम, लालचन्दन, सफेद चन्दन।

ये पदार्थ भली-भांति पिसे हुए, कपड़छान किए हुए, अग्निद्वारा भस्म बनाए हुए और जल के साथ मिलाकर अच्छी तरह घुटे हुए होने चाहिए। श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय पंडयाजी सुरेन्द्रनगर गुजरातराज्य+919824417090/+917802000033...*विशेष:- जो व्यक्ति सुरेन्द्रनगर से बाहर अथवा देश से बाहर रहते हो, वह ज्योतिषीय परामर्श हेतु paytm या phonepe या Bank transfer द्वारा परामर्श फीस अदा करके, फोन द्वारा ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त कर सकतें है शुल्क- 551/-*+919824417090...

रविवार, 19 अप्रैल 2020

गोधूली का समय

गोधूली का समय

यदा नातं गतो भानु गोधूल्या पूरित नभः ।
सर्व मंगल कार्येषु गोधूलिश्च प्रशस्यते ॥

अर्थ - सूर्य अस्त न होये और गोखुरन की धूर आकाश में पूरित हो रहा हो तो यह सम्य सम्पूण उत्तम कार्यों में मंगलदायक है , इसको गोधूलि कहते हैं ।

अष्टमें जीव भौमौ च बुधो वा भार्गवो ऽष्टमे ।
लग्ने षष्ठेऽष्टमें चन्द्रस्तदा गोधूलिनाशक ॥

जो लग्न से आठवें स्थान में भौम गुरु बुध शक ये ग्रह बैठे हो अथवा लग्न  में वा छठवें चन्द्रमा हो तो गोधूजि नाशक दोष होता है । श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय
सुरेन्द्रनगर पंडयाजी९८२४४१७०९०...

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

||हवन में कवच के इन चार मन्त्रों की आहुति न दे||

||हवन में कवच के इन चार मन्त्रों की आहुति नहीं देनी चाहीयें||

। अत्र के चित्कवचादि त्रयस्य रहस्य त्रयस्य च प्रति श्लोकं होम मनुतिष्ठन्ति ॥
तत्र कवचांशे होमोनयुक्तस्तन्त्रान्तरे निषेधात् ॥
चण्डी स्तवे प्रतिश्लोकमेकाहुतिरिहेष्यते ॥
रक्षा कवचगैर्मन्त्रैर्होमं तत्र न कारयेत् ॥
मौखर्यात्कवचगैमंत्रैः प्रति श्लोकं जुहोति यः ॥
स्याद्देहपतनं तस्य नरकं च प्रपद्यते ॥
अंधकाख्यो महादैत्यो दुर्गा भक्ति परायणः । ।
कवचाहुतिजात्यापान्महेशेन निपातितः ॥ इतिकात्यायनी तंत्रे ॥
जो इन ४ मन्त्रों की आहुति करता है ।
उसका देह नाश होता है ।
इस कारण इन ४ मन्त्रों के स्थान में " ॐनमश्चण्डिकायै स्वाहा " बोलकर आहुति देना मन्त्रों का केवल पाठ करना चाहिए ॥
तथा इनका पाठ करने से सब प्रकार का भय नष्ट हो जाता है । । शूलेनपाहि० इस मन्त्र का केवल १२५००० यथा विधि जप करके फूंक मारने से आधा शीशी आदि माथे के दर्द दूर होंगे सत्य है ।
...दुर्गार्चनसृतौ....२८२ पाना

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः । ।
ज्ञान वैराग्ययोश्चापि षष्णां भग इतीर्यते । ।
नित्यं षड्गुणैश्चर्य शालिनीत्यर्थः ।

ध्यान सहित शक्रादयः स्तुति के १३ पाठ । सूर्योदय के पूर्व निरविच्छिन्न ४९ दिन तक निरन्तर करने से स्वाभीष्ट फल की प्राप्ति होगी तथा निशीथ कालानन्तर दीपक का पूजन करके दुर्गेस्मृता की ११ माला नमस्कारयुक्त जपने से ४९ दिन में धन की प्राप्ति अवश्य होगी और आपत्ति भी नष्ट होगी । स्नानान्तर शक्रादयः स्तुति का १ पाठ करने से भी लाभ होगा ।
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय
सुरेन्द्रनगर पंडयाजी९८२४४१७०९०...

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

संस्कृत व्यवहारिक शब्दावली

संस्कृत व्यवहारिक शब्दावली

1. *अन्नवर्ग - अन्नों के नाम*
अणुः - बासमती चावल
अन्नम् - अन्न
आढ़ की- अरहर
कलायः- मटर
कोद्रवः - कोदो
गोधूमः-गेहूँ
चणकः- चना
चणकचूर्णम्- वेसन
चूर्णम् - आँटा
तण्डुलः - चावल
तिलः - तिल
द्विदलम्- दाल
धान्यम् - धान
प्रियंगुः – बाजरा मसूरः – मसूर
माषः – उड़द
मिश्रचूर्णम् – मिस्सा आटा
मुद् गः – मूँग
यवः – जौ
यवनालः – ज्वार
रसवती- रसोई
वनमुद्गः- लोभिया
व्रीहिः – धान
शस्यम् - अन्न (खेत में विद्यमान)
श्यामाकः – सावां
सर्षपः – सरसों

2. *आयुध वर्ग- अस्त्रों शस्त्रों के नाम*
आयुधम् - शास्त्र-अस्त्र
आयुधागारम् - शास्त्रागार
आहवः- युद्ध
कबन्धः - धड़
करबालिका - गुप्ती
कारा - जेल
कार्मुकम् - धनुष
कौक्षेयकः - कृपाण
गदा - गदा
छुरिका - चाकू
जिष्णुः - विजयी
तूणीरः - तूणीर
तोमरः - गँड़ासा 2 धन्विन् – धनुर्धर
प्रहरणम् - शस्त्र
प्रासः - भाला
वर्मन् - कवच
विशिखः - बाण
वैजयन्ती - पताका
शरव्यम् - लक्ष्य
शल्यम् - वर्छी
सायुंगीनः - रणकुशल
सादिन् - घुड़सवार
हस्तिपकः – हाथीवान

32. *सर्वनाम वर्ग*
कदा--कब,
यदा--जब,
सदा (सर्वदा)---हमेशा,
एकदा--एक समय,
तदीयः--उसका,
यदीयः--जिसका,
परकीयः (अन्यदीयः)--दूसरे का,
उपरि --ऊपर,
अधः --नीचे,
अग्रे, (पुरः, पुरस्तात्)---आगे,, (पश्चात्, पीछे),
बहिः--बाहर,
अन्तः--भीतर,
उपरि -अधः ---ऊपर-नीचे,
इदानीम् , (सम्प्रति, अधुना) अब,इस समय,
आत्मीयः(स्वकीयः,स्वीयः)अपना,
शीघ्रम् --जल्दी,
शनैः शनैः--धीरे-धीरे,
महत् --महान्,
कुर्वत् --करता हुआ
पठत् --पढता हुआ,
ददत् --देता हुआ,
गमिष्यत्--जाने वाला,
कुर्वत् --करता हुआ, ददत्--देता हुआ,
गमिष्यत्--
जाने वाला,
*पठत् --पढता हुआ,*
सद्यः --तत्काल (अतिशीघ्र),
पुनः --फिर,
अद्य --आज,
अद्यैव ---आज ही,
अद्यापि --आज भी,
श्वः --आने वाला कल,
ह्यः --बीता हुआ कल,
परश्वः --आने वाला परसों,
ह्यश्वः --गया हुआ परसों,
प्रपरश्वः --आने वाला नरसों,
प्रह्यश्वः --बीता हुआ नरसों
पुनः पुनः --बार-बार,
युगपत् ---एक ही समय में,
सकृत् --एक बार,
असकृत् --अनेक बार,
पुरा ,प्राक्--पहिले,
पश्चात् ---पीछे,
अथ ,अनन्तरम् --इसके बाद,
कियत् कालम् --कब तक,
एतावत् कालम् --अब तक,
तावत् कालम्—तब तक


31. *धातु वर्ग*
अभ्रकम् - अभ्रक
आयसम्- लोहा
इन्द्रनीलः - नीलम
कार्तस्वरम् , हाटक- सोना
कांस्यम्- कांसा
कांस्यकूटः - कसकूट
गन्धकः - गन्धक
चन्द्रलौहम्- जर्मन सिल्वर
ताम्रकम्- ताँबा
तुत्थाञ्जनम्- तूतिया
निष्कलंकायसम्- स्टेनलेस स्टील
पारदः - पारा
पीतकम् - हरताल पीतलम् - पीतल
पुष्परागः - पुखराज
प्रवालम् - मूँगा
मरतकम् - पन्ना
माणिक्यम् - चुन्नी
मौक्तिकम् - मोती
यशदम् - जस्ता
रजतम् - चाँदी
वैदूर्यम् - लहसुनिया
सीसम् - सीसा
स्फटिका - फिटकरी
हीरकः - हीरा

32. *सर्वनाम वर्ग*
अत्र---यहाँ,
तत्र --वहाँ,
कुत्र--कहाँ,
यत्र --जहाँ,
अन्यत्र---दूसरी जगह,
सर्वत्र---सब जगह,
उभयत्र---दोनों जगह
अत्रैव ---यहीं पर,
तत्रैव---वहीं पर,
यावत्---जितना,
तावत्---उतना,
एतावत् , (इयत्)---इतना,
कियत्--कितना,
इतः---यहाँ से, ततः --वहाँ से,
कुतः --कहाँ से,
यतः --जहाँ से,
इतस्ततः ---इधर-उधर,
सर्वतः ---सब ओर से,
उभयतः --दोनों ओर से,
कुत्रापि ---कहीं भी,
तत्रापि – उसमें भी
यत्र - कुत्रापि ---
जहाँ कहीं भी,
कुतश्चित् ---कहीं से,
कदाचित् ---कभी,
क्व --कब,
क्वापि --कभी भी,
तदा , तदानीम्---तब,
उस समय,

*3.कृषि वर्ग*
उर्वरा - उपजाऊ
ऊषरः – ऊसर
कणिशः – बाल
कोटिशः - धुर्मुश
कृषिः – खेती
कृषियन्त्रम् - खैती का औजार
कृषीवलः – किसान
क्षेत्रम् - खेत
खनित्रम् -फावड़ा
खनियन्त्रम् - ट्रैक्टर
खलम् – खलिहान
खाद्यम् – खाद
तुषः – भूसी
तोत्त्रम् - चाबुक
दात्रम् – दँराती
पलालः – पराल
फालः – हल की फाल
बुसभ् – भूसा
मृत्तिका – मिट्टी
लाड़्गलम् – हल
लोष्टम् – ढेला
लोष्टभेदनः –मुँगरी, पटरा
वसुधा – पृथ्वी
शाद्वलः – शस्य श्यामल
सीता – जुती भूमि

4. *क्रीडासन वर्ग- खेल सम्बन्धी नाम*
आसन्दिका – कुर्सी
उपस्करः – फर्नीचर
कन्दुकः – गेंद
काष्ठपरिष्करः – रैकेट
काष्ठमंजूषा – आलमारी
काष्ठासनम् – बेंच
क्रीडाप्रतियोगिता- मैच
क्षेपककन्दुकः – वालीवाल
खट्वा – खटिया
जालम् – नेट
निर्णायकः – रेफरी
निवारः – निवाड़
पत्रिक्रीड़ा – बैटमिंटन
पर्पः – चारों ओर मुड़ने वाली कुर्सी
पर्यंङ्कः – सोफा
पल्यङ्कः – पलंग
पादकन्दुकः – फुटबाल
पुस्तकाधानम् – बुकरैंक
प्रक्षिप्त- कन्दुक-क्रीडा – टेनिस का खेल
फलकम् - मेज
मञ्जूषा - संदूक, पेटी
यष्टि-क्रीड़ा – हाकी का खेल
लेखनपीडम् – डेस्क
संवेशः- स्टूल
पत्रिन् – चिड़िया

5. *दिक्काल वर्ग- समय सम्बन्धी नाम*

अपराह्नः – तीसरा पहर
उदीची – उत्तर
कला - मिनट
काष्ठा – दिशा
घटिका – घड़ी
दक्षिणा – दक्षिण
दिवसः – दिन
दिवा – दिन में
नक्तम् – रात में
निदाघः – ग्रीष्म ऋतु
निशीथः – आधी रात
पराह्नः – दोपहर के बाद का समय पूर्वाह्नः – दोपहर के पहले का समय
प्रत्यूषः – प्रातः
प्रदोषः – सूर्यास्त समय
प्रतीची – पश्चिम
प्राची – पूर्व
प्रावृष् – वर्षा – काल
मध्याह्नः – दोपहर का समय
रात्रिन्दिवम् – दिन-रात
वादनम् – बजे
विकला – सेकेण्ड
विभावरी – रात
वेला – समय
हीरा – घण्टा

6. *देव वर्ग- देवता सम्बन्धी नाम*
अच्युतः – विष्णु
असुरः – राक्षस
कृतान्तः – यम
कृशानुः – अग्नि
त्रयम्बकः – शिव
नाकः – स्वर्ग
पविः – वज्र
पीयूषम् – अमृत
पुष्पधन्वन् – कामदेव
पौलोमी – इन्द्राणी
प्रचेतस् – वरूण
मनुष्यधर्मन – कुबेर
मातरिश्वन् – वायु
लक्ष्मीः – लक्ष्मी
वेधस् – ब्रह्मा
शतक्रतुः - इन्द्र
शार्वाणी – पार्वती
सुरः – देवता
सेनानीः – कार्तिकेय

30. *सैन्यवर्ग*
अग्निचूर्णम - बारूद
आग्नेयास्त्रम् - बम
आग्नेयास्त्रक्षेपः- बम फेंकना
एकपरिधानम् - एकवेष, यूनिफार्म
गुलिका- गोली
जलपरमाण्वस्त्रम् - हाइड्रोजन बम
जलान्तरिपोतः- पनडुब्बी
धूमास्रम्- टीयर गैस
नौसेनाध्यक्षः- जलसेनापति
पदातिः- पैदल सेना
परमाण्वस्त्रम्- एटम बम
पोतः- पोत भुशुण्डिः- बन्दूक
भूसेनाध्यक्षः- भू-सेनापति
युद्धपोतः- लड़ाई का जहाज
युद्ध विमानम्- लड़ाई का विमान
रक्षिन् - सिपाही
लघुभुशुण्डिः- पिस्तौल
वायुसेनाध्यक्षः- वायुसेनापति
विमानम् – विमान
शतघन्नी- तोप
शिरस्त्रम्- लोहे का टोप
सैनिकः- फौजी आदमी
सैन्यवेषः- वर्दी

29. *सम्बन्ध सूचक शब्दाः*
अग्रज : -बडा भाई
अनुज:,
निष्ठसहोदर: -छोटा भाई
अरिः – दुश्मन
आत्मजः – पुत्र
आत्मजा – पुत्री
आलिः – सखी
आवुत्तः – बहनोई
उपपतिः – जार
गणिका – वेश्या
जनकः – पिता
जननी – माता
जामाता – दामाद
दूती – दूती
देवर : -देवर
ननान्दृ (ननान्दा) -ननद
नप्तृ (नप्ता) -नाती
पति: -पति
पितामह : -दादा
पितामही -दादी
पितृव्यपुत्र : -चचेरा भाई
पितृव्य : -चाचा
पितृव्यपत्नी -चाची
प्रपौत्र:,
प्रपौत्री -पतोतरा (तरी)
परिचारिका -नौकरानी प्रपितामह : -परदादा
पौत्री -पोती
पितृष्वसृ (पितृष्वसा) -फूआ
पितृष्वसृपति : -फूफा
पैतृष्वस्रीय : -फुफेरा भाई
प्रपितामही -परदादी
प्रमातामह: -परनाना
प्रमातामही -परनानी
पुत्री, आत्मजा  - पुत्री
पौत्र : -पोता
प्रतिवेशी - पड़ोसी श्वसुरः – श्वसुर
सम्बन्धिन् – समधी
साध्वी –पतिव्रता
सौभाग्यवती – सोहागिन
स्वसृ - बहिन
गर्भिणी -गाभिन
बन्धुः –
रिश्तेदार
भागिनेयः – भानजा
भृत्यः – नौकर
भ्रात्रीयः – भतीजा
भातृसुता – भतीजी
मातामह : -नाना
मातामही -नानी
मातुलः –
माना
मातुली – मामी
मातृष्वसृपति : -मौसा -
मातृष्वस्रीय : -मौसेरा भाई
मातृष्वसृ -मौसी
यातृ - देवरानी
योषितः – स्त्री
वयस्यः – मित्र
विश्वस्ता – रण्डा
वृद्धप्रपितामहः – वृद्धपरनाना
श्यालः – साला
श्वश्रूः – सास

7. *नाट्यवर्ग/ संगीत /वाद्ययंत्र सम्बन्धी नाम*
अवरोहः – उतार
आरोहः – चढ़ाव
कोणः – मिजराव
जलतरङ्गः – जलतरङ्ग
डिण्डिमः – ढिढोरा
ढौलकः – ढोलक
तन्त्रीकवाद्यम् – पियानो
तानपूरः –तानापूरा
तारः – तीव्रस्वर
तूर्यम् – तुरही
दुन्दुभिः – नगाड़ा
नवरसाः - नवरस
पटहः – ढोल
मञ्जीरम् – मंजीरा
मध्यः - मध्यम स्वर
मनोहारिवाद्यम्
- हारमोनियम्
मन्द्रः – कोमल स्वर
मुरजः – तबला
मुरली – बाँसुरी
वादित्रगणः – बैण्ड
वीणावाद्यम् – बीनबाजा
सप्तस्वराः – सात स्वर
सारङ्गी – वायोलिन, सारंगी
संज्ञाशंखः – विगुल

8. *पक्षिवर्ग*
कीरः – तोता
कुक्कुटः – मुर्गा
कुलायः – घोंसला
कौशिकः – उल्लू
खञ्जनः – खञ्जन
गृध्रः – गिद्ध
चकोरः – चकोर
चटका – चिड़िया (गौरैया)
चक्रवाकः – चकवा
चातकः – चातक
चाषः – नीलकण्ठ
चिल्लः – चील
टिट्टिभिः – टिटिहीर
तित्तिरः – तीतर
दार्वाघाटः - कठफोड़ा
ध्वाङ्क्षः – कौआ
परभृतः – कोयल
पारावतः – कबूतर
बकः – बकुला
बर्हिन् - मोर
मरालः – हंस
लावः – बटेर
वर्तकः – बतख
वरटा – हंसी
शलभः – टिड्डी, पतंगा
श्येनः – बाज
षट्पदः – भौंरा
सरघा - मधुमक्खी
सारसः – सारस
सारिका – मैना

9. *पशुवर्ग - पशुओं के नाम*
उष्ट्र‚ क्रमेलकः - ऊट
कच्छप: - कछुआ
कर्कट: ‚
कुलीरः - केकड़ा
श्वान:, कुक्कुर:‚
सारमेयः - कुत्ता
सरमा‚ शुनि - कुतिया
कंगारुः -कंगारू
कर्णजलोका -कनखजूरा
शशक: - खरगोश
गो, धेनु: - गाय
खड्.गी - गैंडा
श्रृगाल:‚गोमायुः - गीदड (सियार)
चिक्रोड: -गिलहरी
कृकलास: -गिरगिट
गोधा - गोह
गर्दभ:, रासभ:‚
खरः - गधा
अश्व:,सैन्धवम्‚ सप्तिः‚वाजिन्‚हयः रथ्यः‚ - घोड़ा
मूषक: - चूहा -
तरक्षु:, चित्रक: - चीता
चित्ररासभ: -
चित्तीदार घोड़ा
छुछुन्दर: - छछूंदर
गृहगोधिका - छिपकली
चित्रोष्ट्र - जिराफ
मृग:- हिरन
नकुल: - नेवला
गवय: - नीलगाय
वृषभ: ‚ उक्षन्‚
अनडुह - बैल
मर्कट: - बन्दर
व्याघ्र:‚ द्वीपिन् - बाघ
अजा - बकरी
अज : - बकरा
वनमनुष्य : - बनमानुष
मार्जार:,
बिडाल: - बिल्ली
भल्लूक: - भालू
महिषी - भैस , महिषः भैंसा
वृक: - भेंडिया
मेष: - भेंड
उर्णनाभः‚
तन्तुनाभः‚ लूता - मकड़ी
मकर: ‚ नक्रः - मगरमच्छ
मत्स्यः ‚ मीनः‚
झषः - मछली
दर्दुरः‚ भेकः - मेंढक
लोमशः - लोमडी
सिंह:‚ केसरिन्‚
मृगेन्द्रः‚ हरिः - शेर
सूकर:‚ वराहः - सुअर
शल्यः - सेही
हस्ति, करि, गज: - हाथी
तरक्षुः - तेंदुआ
जलाश्व: - दरियाई घोड़ा

*28.वस्त्राणां नामानि – वस्त्रों के नाम*
अंगरक्षिका-
अंगरखा
उनी वस्त्र - रांकवम्
ओढनी - प्रच्छदपट:
कंबल - कम्बल:
कनात - काण्डपट:,
अपटी
कपड़ा - वस्त्रम्,
वसनम्, चीरम्
कमरबन्द - रसना,
परिकर:, कटिसूत्रम्
कुरता - कंचुक:,
निचोल:
कोट - प्रावार:
गात्रमार्जनी -
अंगोछा
गद्दा - तूलसंतर:
गलेबन्द - गलबन्धनांशुकम्
चादर - शय्याच्छादनम्,
प्रच्छद:
जांघिया - अर्धोरुकम्
जाकेट - अंगरक्षक:
मोजा - पादत्राणम्
रजाई - तूलिका,
नीशार:
रुई - कार्पास:, तूल:
सलवार - स्यूतवरः
साड़ी - शाटिका जूता - उपानह
तकिया - उपधानम्
दरी - आस्तरणम्
दुपट्टा - उत्तरीयम्
धोती - अधोवस्त्रम्,
धौतवस्त्रम्
नाइटड्रेस - नक्तकम्
नायलोन का - नवलीनकम्
पगड़ी - शिरस्त्रम्,
उष्णीषम्
परदा - यवनिका,
तिरस्करिणी,
पायजामा - पादयाम:
पेटीकोट - अन्तरीयम्
पैंट - आप्रपदीनम्
बिछौना - शैय्या
ब्लाउज - कंचुलिका
मरेठा (टोपी) - शिरस्त्राणम्
रेशमी- कौशेयम्
शेरवानी - प्रावारकम्

तक्षणी- बसुला

*वृत्तिः*

तैलकार :,
तैलिक: -तेली
तुन्दिल : -पेटू
त्वष्टा ,
स्थपति:, -बढई
द्यूतकर: -जुआरी
नापित:,
क्षौरिक: -नाई
निर्णेजक : -ड्राई क्लीनर
नीली - नील
अजाजीवः – गड़रिया
अनुपदीना – गमबूट
अन्त्यजः – हरिजन
उपानह – जूता
कुलालः – कुम्हार
चर्मकारः – चमार
चर्मप्रभेदिका- जूता सीने की सूई
तस्करः – चोर
पादुका – चप्पल शस्त्रमार्जक :,
असिजीवी -शाण्डवाला
शौण्डिक : -मांसविक्रेता
शौल्विक : -तांबे के बर्तन बनाने वाला
सूचिका - सूई
सूत्रम् –धागा
स्थापितः - बढ़ई
सौचिक :,
सूचक: -दर्जी
स्वर्णकारः - सुनार
प्रैस्यः – चपरासी
मायाकारः – जादूगर
मार्जनी – झाड़ू
मालाकारः – माली
मृगयुः – शिकारी
मृगया – शिकार
लेपकः – पुताई वाला
शाकुनिकः - बहेलिया
संमार्जकः - भंगी

*27.शैल वर्ग- पर्वत सम्बन्धी*
अद्रिः – पर्वत
अद्रिद्रोणी – घाटी
अधित्यका – पठार
उत्सः – सोता
उपत्यका – तराई
खानिः – खान
गह्वरम् – गुफा
ग्रावा – पत्थर दरीं –
दर्रा
निकुञ्जः – झाड़ी
निर्भरः – पहाड़ी नाला
प्रपातः – झरना
शिला – चट्टान
श्रृङ्गम् – चोटी
हिमसरित् – ग्लेशियर (बर्फीला)