सोमवार, 31 जनवरी 2022

*अग्नि की उत्पत्ति कथा तथा वेद एवं पुराणों में महात्म्य*

*अग्नि की उत्पत्ति कथा तथा वेद एवं पुराणों में महात्म्य*
एक समय पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे देव! आप जिस अग्नि देव की उपासना करते हैं उस देव के बारे में कुछ परिचय दीजिये। शिवजी ने उत्तर देना स्वीकार किया। तब पार्वती ने पूछा कि यह अग्नि किस महिने, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र तथा लग्न में उत्पन्न हुई है।

 श्री महादेवजी ने कहा-आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की आध्धी रात्रि में मीन लग्न की चतुर्दशी तिथि में शनिवार तथा रोहिणी नक्षत्र में ऊपर मुख किये हुए सर्वप्रथम पाताल से दृष्ट होती हुई अगोचर नाम्धारी यह अग्नि प्रगट हुई। 
उस महान अग्नि के माता-पिता कौन है? गौत्र क्या है? तथा कितनी जिह्वा से प्रगट होती है?

 श्री महादेवजी ने कहा-वन से उत्पन्न हुई सूखी आम्रादि की समिधा लकड़ी ही इस अग्नि देव की माता है क्योंकि लकड़ी में स्वाभाविक रूप से अग्नि रहती है , जलाने पर अग्नि के संयोग से अग्नि प्रगट होती है,  अग्निदेव अरणस के गर्भ से ही प्रगट होती है इसलिये लकड़ी ही माता है तथा वन को उत्पन्न करने वाला जल होता है इसलिये जल ही इसका पिता है। शाण्डिल्य ही जिसका गोत्र है। ऐसे गोत्र तथा विशेषणों वाली वनस्पति की पुत्री यह अग्नि देव इस धरती पर प्रगट हुई जो तेजोमय होकर सभी को प्रकाशित करती हुई उष्णता प्रदान करती है।

इस प्रत्यक्ष अग्नि देव के अग्निष्टोमादि चार प्रधान  यज्ञ जो चारों वेदों में वर्णित है वही शृंग अर्थात् श्रेष्ठता है। इस महादेव अग्नि के भूत, भविष्य वर्तमान ये तीन चरण हैं। इन तीनों कालों में यह विद्यमान रहती है। इह लौकिक पार लौकिक इन दो तरह की ऊंचाइयों को छूनेवाली यह परम अग्नि सात वारों में सामान्य रूप से हवन करने योग्य है क्योंकि ग्रह नक्षत्रों से यह उपर है इसलिये इन सातों हाथों से यह आहुति ग्रहण कर लेती है तथा मृत्युलोक, स्वर्ग लोक पाताल लोक इन तीनों लोकों में ही बराबर बनी रहती है अर्थात् तीनों लोक इस अग्नि से ही बंध्धे हुऐ स्थिर है। जिस प्रकार से मदमस्त वृषभ ध्वनि करता है उसी प्रकार से जब यह घृतादि आहुति से जब यह अग्नि प्रसन्न हो जाती है तो यह भी दिव्य ध्वनि करती है। इन विशेषणों से युक्त अग्नि देवता महान कल्याणकारी रूप धारण करके हमारे मृत्यु लोकस्थ प्राणियों में प्रवेश करे जिससे हम तेजस्वी हो सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। 

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जिस अग्नि ने उदर में समाहित कर रखा है, वह विश्वरूपा अग्नि देवी है जिसके उदर में प्रलयकालीन में सभी जीव शयन करते हैं तथा उत्पत्ति काल में भी सभी ओर से अग्नि वेष्टित है। उसकी ही परछाया से जगत आच्छादित है तथा जैसा गीता में कहा है अहं वैश्वानरो भूत्वा‘‘ अर्थात् यह अग्नि ही सर्वोपरि देव है। जिस अग्नि के बारह आदित्य यानि सूर्य ही बारह नेत्र है। उसके द्वारा सम्पूर्ण जगत को देखती है। सात इनकी जिह्वाएं जैसे काली,  कराली, मनोजवा, सुलोहिता , सुध्धूम्रवर्णा,  स्फुलिंगिनी , विश्वरूपी  इन सातों जिह्वाओं द्वारा ही सम्पूर्ण आहुति को ग्रहण करती है। 

इस महान अग्नि देव के ये सात प्रिय भोजन सामग्री है। जिसमें सर्व प्रथम घी, , दूसरा यव , तीसरा तिल, चौथा दही, पांचवां खीर, छठा श्री खंड, सातवीं मिठाई यही हवनीय सामग्री है जिसे अग्नि देव अति आनन्द से सातों जिह्वाओं द्वारा ग्रहण करते है।

भजन करने वाले ऋत्विक जन की यह अग्नि चाहे ऊध्ध्र्वमुखी हो चाहे अध्धोमुखी हो अथवा सामने मुख वाली हो हर स्थिति में सहायता ही करती है तथा इस अग्निदेव में प्रेम पूर्वक ‘‘स्वाहा‘‘ कहकर दी हुई मिष्ठान्नादि आहुति महा विष्णु के मुख में प्रवेश करती है अर्थात् महा विष्णु प्रेम पूर्वक ग्रहण करते हैं जिससे सम्पूर्ण देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों देवता तृप्त हो जाते हैं। इन्हीं देवों को प्रसन्न करने का एक मात्र साधन यही है।

पुराणों में अग्नि का महात्म्य

अग्निदेवता यज्ञ के प्रधान अंग हैं। ये सर्वत्र प्रकाश करने वाले एवं सभी पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले हैं। सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न होते हैं और सभी रत्नों को यही धारण करते हैं।

वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही प्राप्त होता है। अत: यह कहा जा सकता है कि विश्व-साहित्य का प्रथम शब्द अग्नि ही है। ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह बार-बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है।

आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे-आगे चलते हैं। युद्ध में सेनापति का काम करते हैं इन्हीं को आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को परास्त किया था।

पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी स्वाहा हैं। ये सब देवताओं के मुख हैं और इनमें जो आहुति दी जाती है, वह इन्हीं के द्वारा देवताओं तक पहुँचती है। केवल ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं।

 इसी प्रकार यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी इनकी स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्निदेवता की स्तुति करता हूँ, जो सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं। पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है। उसी प्रकार अग्निदेव भी यजमान की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

अग्निदेव की सात जिह्वाएँ बतायी गयी हैं। उन जिह्वाओं के नाम : - काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी तथा विश्वरुचि हैं।

पुराणों के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए। इनके पुत्र-पौत्रों की संख्या उनंचास है। भगवान कार्तिकेय को अग्निदेवता का भी पुत्र माना गया है। स्वारोचिष नामक द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं। ये आग्नेय कोण के अधिपति हैं। अग्नि नामक प्रसिद्ध पुराण के ये ही वक्ता हैं। प्रभास क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर इनका मुख्य तीर्थ है। इन्हीं के समीप भगवान कार्तिकेय, श्राद्धदेव तथा गौओं के भी तीर्थ हैं।

अग्निदेव की कृपा के पुराणों में अनेक दृष्टान्त प्राप्त होते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं। महर्षि वेद के शिष्य उत्तंक ने अपनी शिक्षा पूर्ण होने पर आचार्य दम्पति से गुरु दक्षिणा माँगने का निवेदन किया। गुरु पत्नी ने उनसे महाराज पौष्य की पत्नी का कुण्डल माँगा। उत्तंक ने महाराज के पास पहुँचकर उनकी आज्ञा से महारानी से कुण्डल प्राप्त किया। 

रानी ने कुण्डल देकर उन्हें सतर्क किया कि आप इन कुण्डलों को सावधानी से ले जाइयेगा, नहीं तो तक्षक नाग कुण्डल आप से छीन लेगा। मार्ग में जब उत्तंक एक जलाशय के किनारे कुण्डलों को रखकर सन्ध्या करने लगे तो तक्षक कुण्डलों को लेकर पाताल में चला गया। 

अग्निदेव की कृपा से ही उत्तंक दुबारा कुण्डल प्राप्त करके गुरु पत्नी को प्रदान कर पाये थे। अग्निदेव ने ही अपनी ब्रह्मचारी भक्त उपकोशल को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था।

अग्नि की प्रार्थना उपासना से यजमान धन, धान्य, पशु आदि समृद्धि प्राप्त करता है। उसकी शक्ति, प्रतिष्ठा एवं परिवार आदि की वृद्धि होती है।

अग्निदेव का बीजमन्त्र रं तथा मुख्य मन्त्र रं वह्निचैतन्याय नम: है।

ऋग्वेद के अनुसार,अग्निदेव अपने यजमान पर वैसे ही कृपा करते हैं, जैसे राजा सर्वगुणसम्पन्न वीर पुरुष का सम्मान करता है। एक बार अग्नि अपने हाथों में अन्न धारण करके गुफा में बैठ गए। अत: सब देवता बहुत भयभीत हुए। अमर देवताओं ने अग्नि का महत्व ठीक से नहीं पहचाना था। 

वे थके पैरों से चलते हुए ध्यान में लगे हुए अग्नि के पास पहुँचे। मरुतों ने तीन वर्षों तक अग्नि की स्तुति की। अंगिरा ने मंत्रों द्वारा अग्नि की स्तुति तथा पणि नामक असुर को नाद से ही नष्ट कर डाला। देवताओं ने जांघ के बल बैठकर अग्निदेव की पूजा की। अंगिरा ने यज्ञाग्नि धारण करके अग्नि को ही साधना का लक्ष्य बनाया।

तदनन्तर आकाश में ज्योतिस्वरूप सूर्य और ध्वजस्वरूप किरणों की प्राप्ति हुई। देवताओं ने अग्नि में अवस्थित इक्कीस गूढ़ पद प्राप्त कर अपनी रक्षा की। अग्नि और सोम ने युद्ध में बृसय की सन्तान नष्ट कर डाली तथा पणि की गौएं हर लीं। अग्नि के अश्वों का नाम रोहित तथा रथ का नाम धूमकेतु है।

महाभारत के अनुसार

 देवताओं को जब पार्वती से शाप मिला था कि वे सब सन्तानहीन रहेंगे, तब अग्निदेव वहाँ पर नहीं थे। कालान्तर में विद्रोहियों को मारने के लिए किसी देवपुत्र की आवश्यकता हुई। अत: देवताओं ने अग्नि की खोज आरम्भ की। अग्निदेव जल में छिपे हुए थे। मेढ़क ने उनका निवास स्थान देवताओं को बताया। अत: अग्निदेव ने रुष्ट होकर उसे जिह्वा न होने का शाप दिया। देवताओं ने कहा कि वह फिर भी बोल पायेगा। अग्निदेव किसी दूसरी जगह पर जाकर छिप गए। 

हाथी ने देवताओं से कहा-अश्वत्थ (सूर्य का एक नाम) अग्नि रूप है। अग्नि ने उसे भी उल्टी जिह्वा वाला कर दिया। इसी प्रकार तोते ने शमी में छिपे अग्नि का पता बताया तो वह भी शापवश उल्टी जिह्वा वाला हो गया। शमी में देवताओं ने अग्नि के दर्शन करके तारक के वध के निमित्त पुत्र उत्पन्न करने को कहा। अग्नि देव शिव के वीर्य का गंगा में आधान करके कार्तिकेय के जन्म के निमित्त बने।

भृगु पत्नी पुलोमा का पहले राक्षस पुलोमन से विवाह हुआ था। जब भृगु अनुपस्थित थे, वह पुलोमा को लेने आया तो उसने यज्ञाग्नि से कहा कि वह उसकी है या भृगु की भार्या। उसने उत्तर दिया कि यह सत्य है कि उसका प्रथम वरण उसने (राक्षस) ही किया था, लेकिन अब वह भृगु की पत्नी है। 

जब पुलोमन उसे बलपूर्वक ले जा रहा था, उसके गर्भ से 'च्यवन' गिर गए और पुलोमन भस्म हो गया। उसके अश्रुओं से ब्रह्मा ने 'वसुधारा नदी' का निर्माण किया। भृगु ने अग्नि को शाप दिया कि तू हर पदार्थ का भक्षण करेगी। शाप से पीड़ित अग्नि ने यज्ञ आहुतियों से अपने को विलग कर लिया, जिससे प्राणियों में हताशा व्याप्त हो गई। 

ब्रह्मा ने उसे आश्वासन दिया कि वह पूर्ववत् पवित्र मानी जाएगी। सिर्फ़ मांसाहारी जीवों की उदरस्थ पाचक अग्नि को छोड़कर उसकी लपटें सर्व भक्षण में समर्थ होंगी। अंगिरस ने अग्नि से अनुनय किया था कि वह उसे अपना प्रथम पुत्र घोषित करें, क्योंकि ब्रह्मा द्वारा नई अग्नि स्रजित करने का भ्रम फैल गया था। अंगिरस से लेकर बृहस्पति के माध्यम से अन्य ऋषिगण अग्नि से संबद्ध रहे हैं।

हरिवंश पुराण के अनुसार 
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असुरों के द्वारा देवताओं की पराजय को देखकर अग्नि ने असुरों को मार डालने का निश्चय किया। वे स्वर्गलोक तक फैली हुई ज्वाला से दानवों की दग्ध करने लगे। मय तथा शंबरासुर ने माया द्वारा वर्षा करके अग्नि को मंद करने का प्रयास किया, किन्तु बृहस्पति ने उनकी आराधना करके उन्हें तेजस्वी रहने की प्रेरणा दी। फलत: असुरों की माया नष्ट हो गई।

जातवेदस् नामक अग्नि का एक भाई था। वह हव्यवाहक (यज्ञ-सामग्री लाने वाला) था। दिति-पुत्र (मधु) ने देवताओं के देखते-देखते ही उसे मार डाला। अग्नि गंगाजल में आ छिपा। देवता जड़वत् हो गए। अग्नि के बिना जीना कठिन लगा तो वे सब उसे खोजते हुए गंगाजल में पहुँचे। अग्नि ने कहा, भाई की रक्षा नहीं हुई, मेरी होगी, यह कैसे सम्भव है? देवताओं ने उसे यज्ञ में भाग देना आरम्भ किया। अग्नि ने पूर्ववत् स्वर्गलोक तथा भूलोक में निवास आरम्भ कर दिया। देवताओं ने जहाँ अग्नि प्रतिष्ठा की, वह स्थान अग्नितीर्थ कहलाया।

दक्ष की कन्या (स्वाहा) का विवाह अग्नि (हव्यवाहक) से हुआ। बहुत समय तक वह नि:सन्तान रही। उन्हीं दिनों तारक से त्रस्त देवताओं ने अग्नि को सन्देशवाहक बनाकर शिव के पास भेजा। शिव से देवता ऐसा वीर पुत्र चाहते थे, जो कि तारक का वध कर सके। 

पत्नी के पास जाने में संकोच करने वाले अग्नि ने तोते का रूप धारण किया और एकान्तविलासी शिव-पार्वती की खिड़की पर जा बैठा। शिव ने उसे देखते ही पहचान लिया तथा उसके बिना बताये ही देवताओं की इच्छा जानकर शिव ने उसके मुँह में सारा वीर्य उड़ेल दिया। शुक (अग्नि) इतने वीर्य को नहीं सम्भाल पाए। 

उसने वह गंगा के किनारे कृत्तिकाओं में डाल दिया, जिनसे कार्तिकेय का जन्म हुआ। थोड़ा-सा बचा हुआ वीर्य वह पत्नी के पास ले गया। उसे दो भागों में बाँटकर स्वाहा को प्रदान किया, अत: उसने (स्वाहा ने) दो शिशुओं को जन्म दिया। पुत्र का नाम सुवर्ण तथा कन्या का नाम सुवर्णा रखा गया। मिश्र वीर्य सन्तान होने के कारण वे दोनों व्यभिचार दोष से दूषित हो गए।

 सुवर्णा असुरों की प्रियाओं का रूप बनाकर असुरों के साथ घूमती थी तथा सुवर्ण देवताओं का रूप धारण करके उनकी पत्नियों को ठगता था। सुर तथा असुरों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने दोनों को सर्वगामी होने का शाप दिया। ब्रह्मा के आदेश पर अग्नि ने गोमती नदी के तट पर, शिवाराधना से शिव को प्रसन्न कर दोनों को शापमुक्त करवाया। वह स्थान तपोवन कहलाया।

अग्नि का सनातन धर्म में महत्त्व 
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"अग्नि-सूक्त" 
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अग्नि-सूक्त ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है।

इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र है।

इसके देवता "अग्नि" हैं ।

इसका छन्द "गायत्री-छन्द" है ।

इस सूक्त का स्वर "षड्जकृ" है।

गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं। इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का छन्द होता है।

अग्नि-सूक्त में कुल नौ मन्त्र है ।

संख्या की दृष्टि से सम्पूर्ण वैदिक संस्कृत में इऩ्द्र (250) के बाद अग्नि (200) का ही स्थान है , किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है ।

स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है । सामूहिक रूप से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है ।

अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है। इनका पृथ्वीलोक में प्रमुख स्थान है।

अग्नि का स्वरूप 
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अग्नि शब्द "अगि गतौ" (भ्वादि. 5.2) धातु से बना है । गति के तीन अर्थ हैंः ज्ञान, गमन और प्राप्ति।

इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है।

अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता हैः"अग्निर्वै सर्वा देवता।" 
(ऐतरेय-ब्राह्मण---1.1, शतपथ 1.4.4.10) 

अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है। अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा हैः "अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा ।" (शतपथ-ब्राह्मणः--14.3.2.5)

निरुक्ति
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आचार्य यास्क ने अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति दिखाई हैः

(क) "अग्रणीर्भवतीति अग्निः ।" 
मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।

(ख) "अयं यज्ञेषु प्रणीयते ।" 
यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।

(ग) "अङ्गं नयति सन्नममानः ।" 
अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।

(घ) "अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः । न क्नोपयति न स्नेहयति ।" 
निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं ।

(ङ) त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।" 

शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से "अ", अञ्जू से या दह् से "ग" और णीञ् से "नी" लेकर बना है (निरुक्तः---7.4.15)

कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है। याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैंः 
गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि । 

"गार्हपत्याग्नि" सदैव प्रज्वलित रहती है । शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है ।

अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है ।

(1.) अग्नि का रूप :
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अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है"घृतपृष्ठ"। 
इसका मुख घृत से युक्त हैः--"घृतमुख"। इसकी जिह्वा द्युतिमान् है। दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान है। केश और दाढी भूरे रंग के हैं। जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है। इसके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं। इसके नेत्र घृतयुक्त हैंः "घृतम् में चक्षुः।" इसका रथ सुनहरा और चमकदार है। उसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं। अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं। वह अपने उपासकों का सदैव सहायक होता है।

(2.) अग्नि का जन्म 
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अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है। यह अपने आप से उत्पन्न होता है। अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होता है । इसके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है। इसका अभिप्राय है कि अग्नि का जन्म अग्नि से ही हुआ है। प्रकृति के मूल में अग्नि (Energy) है। ऋग्वेद के "पुरुष-सूक्त" में अग्नि की उत्पत्ति "विराट्-पुरुष" के मुख से बताई गई हैः
"मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च।"

(3.) भोजन
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अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है । "आज्य" उसका प्रिय पेय पदार्थ है । यह यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करता है।

(4.) अग्नि कविक्रतु है :
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अग्नि कवि तुल्य है। वह अपना कार्य विचारपूर्वक करता है। कवि का अर्थ हैः क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी। वह ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी है। उसमें अन्तर्दृष्टि है। ऐसा व्यक्ति ही सुखी होता हैः
"अग्निर्होता कविक्रतुः"  (ऋग्वेदः---1.1.5)

(5.) गमन 
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अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है । विद्युत् रथ पर सवार होकर चलता है । जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है । वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है , जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है ।

(6.) अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक है।
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अग्नि रोग-शोक , पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं। वह व्यक्ति पराजित नहीं होता "देवम् अमीवचातनम्" 
(ऋग्वेदः--1.12.7) 

और "प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः ।" (यजुर्वेदः--1.7)

(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध 
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यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। उसे यज्ञ का "ऋत्विक्" कहा जाता है। वह "पुरोहित" और "होता" है। वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता हैः "अग्निमीऴे पुरोहितम्।" (ऋग्वेदः--1.1.1)

(8.) देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध 
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अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं । मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि अपनी ऊर्जाएँ फैलाए हुए हैं। अश्विनी प्राण-अपान वायु है। इससे ही मानव जीवन चलता है।

इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं। अग्नि वायु का मित्र है। जब अग्नि प्रदीप्त होकर जलती है, तब वायु उसका साथ देता हैः "आदस्य वातो अनु वाति शोचिः।" (ऋग्वेदः--1.148.4)

(9.) मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध 
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अग्नि मनुष्य का रक्षक पिता हैः---"स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव" 
(ऋग्वेदः--1.1.9) उसे दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है।

(10.) पशुओं से तुलना 
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यह आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होती है। यह हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहती है। यह उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करता हैः "हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः " 
(ऋग्वेदः--1.65.5)

(11.) अग्नि अतिथि है 
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अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहता है और सत्यनिष्ठा से रक्षा करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी हैं, वह उसकी रक्षा करता है। यह अतिथि के समान इस शरीर में रहता है, जब उसकी इच्छा होती है, प्रस्थान कर जाता हैः--"अतिथिं मानुषाणाम् " (ऋग्वेदः--1.127.8)

(12.) अग्नि अमृत है 

संसार नश्वर है। इसमें अग्नि ही अजर-अमर है। यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है। अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है। जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता हैः
"विश्वास्यामृत भोजन" 
(ऋग्वेदः---1.44.5)

(13.) अग्नि के तीन शरीर 

अग्नि के तीन शरीर हैः👉 स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर। हमारा अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला शरीर स्थूल शरीर है। मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है। आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर हैः
"तिस्र उ ते तन्वो देववाता"
(ऋग्वेदः--3.20.2)

अग्नि-सूक्त के मन्त्र :
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(1.) ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम् ।।

I glorify Agni, the high priest of sacrifice, the divine, the ministrant, who is the offerer and possessor of greatest wealth।

हम अग्निदेव की स्तुति  करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ), 
देवता (अनुदान देने वाले), ऋत्विज (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवो का आवाहन करने वाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है ॥1॥

(2.) ॐ  अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत स देवाँ एह वक्षति ।।

May that Agni, who is worthy to be praised by ancient and modern sages,gather the Gods here.

जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥2॥

(3.) ॐ  अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव दिवेदिवे यशसं वीरवत्तमम् ।।

Through Agni, one gets lot of wealth that increases day by day. One gets fame and the best progeny।

(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥3॥

(4.) ॐ  अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि स इद् देवेषु गच्छति ।।

O Agni, you are surrounding the non-violent sacrifice on all sides, that which indeed reaches (in) the gods।

हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥4॥

(5.) ॐ  अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः देवो देवेभिरागमत् ।।

May Agni, the sacrificer, one who possesses immense wisdom, he who is true, has most distinguished fame, is divine, come hither with the gods।

हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥5॥

(6.) ॐ  यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।।

O Agni, whatever good you will do and whatever possessions you bestow (upon the worshipper), that, O Angiras, is indeed your essence।

हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥6॥

(7.) ॐ  उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् मनो भरन्त एमसि ।।

O Agni, the illuminer (dispeller) of darkness, we approach near thee (thy vicinity) with thought (willingness), day by day, while bearing obeisance।

हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥7॥

(8.) ॐ  राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् वर्धमानं स्वे दमे ।।

(We approach) Thee, the shining (the radiant), the protector of noninjuring sacrifices, growing in your own dwelling, the bright star of truth।

हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥8॥

(9.) ॐ  स नः पितेव सूनवेSग्ने सूपायनो भव सचस्वा नः स्वस्तये ।।
(ऋग्वेदः--1.1.1--9)

O Agni, be easily accessible to us, like a father to his son. Accompany us for our well being.

हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥9॥

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

*श्री बगलामुखी की साधना विधि :-


*श्री बगलामुखी की साधना विधि :-
ॐ हल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिहवां कीलय बुद्धिं विनाशय हल्रीं ॐ स्वाहा.

दस महाविद्याओं में एक का नाम बगुला मुखी है। वेदों में इनका नाम बल्गामुखी है। इनकी आराधना मात्र से साधक के सारे संकट दूर हो जाते हैं, शत्रु परास्त होते हैं और श्री वृद्धि होती है। बगलामुखी का जप साधारण व्यक्ति भी कर सकता है, लेकिन इनकी तंत्र उपासना किसी योग्य व्यक्ति के सान्निध्य में ही करनी चाहिए। देवी के अर्गला स्तोत्र का पाठ करने मात्र से इनकी आराधना हो जाती है। साधक को पीले वस्त्र (बिना सिले) पहनकर पीले आसन पर बैठकर सरसों के तेल का दीपक जलाकर पीली सरसों से यज्ञ करना चाहिए। इससे उसके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे और शत्रु परास्त होंगे। यह महारुद्र की शक्ति हैं। 
इस शक्ति की आराधना करने से साधक के शत्रुओं का शमन तथा कष्टों का निवारण होता है। यों तो बगलामुखी देवी की उपासना सभी कार्यों में सफलता प्रदान करती है, परंतु विशेष रूप से युद्ध, विवाद, शास्त्रार्थ, मुकदमे, और प्रतियोगिता में विजय प्राप्त करने, अधिकारी या मालिक को अनुकूल करने, अपने ऊपर हो रहे अकारण अत्याचार से बचने और किसी को सबक सिखाने के लिए बगलामुखी देवी का वैदिक अनुष्ठान सर्वश्रेष्ठ, प्रभावी एवं उपयुक्त होता है। असाध्य रोगों से छुटकारा पाने, बंधनमुक्त होने, संकट से उद्धार पाने और नवग्रहों के दोष से मुक्ति के लिए भी इस मंत्र की साधना की जा सकती है।

कृत युग में पूरे संसार को नष्ट करने वाला तूफान उठा, उसे देख जगत रक्षक श्री हरि भगवान विष्णु चिंतातुर हुए और सौराष्ट्र में स्थित हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर उन्होंने तपस्या की। उनकी तपस्या से महात्रिपुर संुदरी प्रसन्न होकर देवी बगला के रूप में प्रकट हुईं तथा तूफान को शांत किया। इन्हीं की शक्ति पर तीनों लोक टिके हुए हैं। विष्णु पत्नी सारे जगत की अधिष्ठान ब्रह्म स्वरूप हैं। तंत्र में शक्ति के इसी रूप को ‘‘श्री बगलामुखी’’ महाविद्या कहा गया है। वैदिक एवं पौराणिक शास्त्रों में श्री बगलामुखी महाविद्या का वर्णन अनेक स्थलों पर मिलता है। शत्रु के विनाश के लिए जो कृत्य विशेष को भूमि में गाड़ देते हैं, उनका नाश करने वाली महाशक्ति श्री बगलामुखी ही हैं।

श्री बगला देवी को शक्ति भी कहा गया है। सत्य काली च श्री विद्या कमला भुवनेश्वरी। सिद्ध विद्या महेशनि त्रिशक्तिर्बगला शिवे।। मंत्र महार्णव के अनुसार इस मंत्र का एक लाख जप करने से पुरश्चरण होता है। अन्य तंत्र ग्रंथों के अनुसार पुरश्चरण के लिए सवा लाख जप का विधान है। भेरूतंत्र के अनुसार यह मंत्र दस हजार के जप से ही सिद्ध हो जाता है। इसका जप नित्य नियत संख्या में ही करना चाहिए। जप का दशांश हवन, तर्पण और मार्जन कर ब्राह्मण तथा कन्या भोजन कराना चाहिए। पुरश्चरण 21 दिनों में सरलतापूर्वक संपन्न हो सकता है। प्राणी के शरीर में एक अथर्वा नाम का प्राण सूत्र भी होता है। प्राणरूप होने से हम इसे स्थूल रूप से देखने में असमर्थ होते हैं। यह एक प्रकार की वायरलेस टेलीग्राफी है। हजारों योजन दूर रहने वाले आत्मीय के दुख से हमारा चिŸा जिस परोक्ष शक्ति के माध्यम से व्याकुल हो जाता है, उसी परोक्ष सूत्र का नाम अथर्वा है। इस शक्ति सूत्र के माध्यम से हजारांे किमी दूर स्थित व्यक्ति से संपर्क संभव है। दूसरे अथर्वागिरा में अभिचार प्रयोग होता है। इसका उसी अथर्वा सूत्र से संबंध है। अथर्वा सूत्र रूपी इसी महाशक्ति का नाम बल्गामुखी है। उपासना: बगलामुखी की साधना में साधना के नियमों को जानना तथा उनका पालन करना अत्यंत आवश्यक है। साधना किसी प्रवीण गुरु से दीक्षा लेकर ही करनी चाहिए। बगलामुखी साधना के लिए ‘’वीर राजी’’ विशेष सिद्धिप्रदा मानी गई है। यदि सूर्य मकर राशिस्थ हो, मंगलवार को चतुर्दशी हो तो उसे वीर राजी कहा जाता है। इसी राजी में अर्द्धरात्रि के समय देवी श्री बगलामुखी प्रकट हुई थीं।

महाविद्या बगलामुखी का 36 अक्षरों का मंत्र इस प्रकार है।
पीताम्बर धरी भूत्वा पूर्वाशामि मुखः स्थितिः। लक्ष्मेकं जयेन्मंत्रं हरिद्रा ग्रन्थि मालया।। ब्रह्मचर्यŸाो नित्यं प्रचरो ध्यान तत्परः। प्रियंगु कुसुमेनादि पीत पुस्पै होमयेत।। 
बगलामुखी देवी के जप में पीले रंग का विशेष महत्व है। अनुष्ठानकर्ता को पीले वस्त्र पहनने चाहिए। पीले कनेर के फूलों का विशेष विधान है। देवी की पूजा तथा होम में पीले पुष्पों का प्रयोग करना चाहिए और हल्दी की गांठ की माला से पूजा करनी चाहिए। उसे ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा सदैव स्वच्छ तन और मन से भगवती का ध्यान करना चाहिए। जप आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर करना चाहिए। जप से पूर्व आसन शुद्धि, भूशुद्धि, भूतशुद्धि, अंग न्यास, करन्यास आदि करने चाहिए तथा प्रतिदिन जप के अंत मे दशांश होम पीले पुष्पों से अवश्य करना चाहिए। जप करने से पूर्व यह ध्यान करना आवश्यक है।

साधना विधि: सुबह स्नानादि कर स्वच्छ पीले व

स्त्र धारण करें। फिर देवी के चित्र को एक चैकी पर पीला वस्त्र बिछाकर उस पर पूर्व की ओर मुख करके स्थापित कर षोडशोपचार विधि से पूजन करें। साधना में वस्त्र, आसन, माला, गंध, अक्षत, पुष्प, फल आदि भी पीले रंग के होने चाहिए। साधना काल में बगला यंत्र की स्थापना भी अवश्य करनी चाहिए। यंत्र को शिव मंत्र ‘‘¬ नमः शिवायः’’ से अभिमंत्रित करना चाहिए। फिर उसे किसी पात्र में रखकर पंचामृत, दूध या शुद्ध जल और सुगंधित चंदन, कस्तूरी से स्थापित करें। इसके बाद निम्न गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हुए यंत्र का स्पर्श कर कुशामन से अभिमंत्रित करें। 
मंत्र ‘‘यंत्र राजाय विद्महे महा यंत्राय धीमहि तन्नो यंत्रः प्रचोदयात्।’’ फिर देवी-देवता की भाव सिद्ध के लिए अष्टोŸार शतबार पढ़ें। अष्टोŸारशतं देवि-देवता भाव सिद्धेय।। आत्म शुद्धि ततः कृत्वा षडंगे देवता यजेत्। तत्रावाहं महादेवी जीवन्यासं च कारयेत।। फिर महादेव जी का आवाहन करके प्राणन्यास करें। संकल्प:- आचमन एवं प्राणायाम करने के बाद देशकाल संकीर्तन करके बगलामुखी मंत्र की सिद्धि के लिए जप संख्या के निर्देश और तत् दशांश क्रमशः हवन, तर्पण, मार्जन और ब्राह्मण भोजन रूप पुरश्चरण करने का संकल्प करें। 
विनियोग मंत्र: ¬ अस्य श्री बगलामुखीमंत्रस्य नारदऋषिः त्रिष्टुपछन्दः बगलामुखी देवता ींीं बीजं स्वाहा शक्तिः मम अखिलावाप्तये जपे विनियोगः।
इससे उसमें प्राण शक्ति आ जाएगी। फिर अभीष्ट सिद्धि हेतु उपरोक्त मंत्र का जप करें। फिर देवी को यथा योग्य सामग्री अर्पित कर भक्ति भाव से प्रणाम करें। इस प्रकार से जो साधक साधना करता है, उसे सभी फल प्राप्त हो जाते हैं हृदयादि षडंगन्यास:- ¬ ींीं हृदयाय नमः। बगलामुखी शिरसे स्वाहा। सर्वदुष्टानां शिखायै वषट्। वाचं मुखं पदं स्तम्भय कवचाय हुम्। जिह्नां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट् बुद्धिं विनाशय ींीं ¬ स्वाहा अस्त्राय फट्। अथ ध्यानम्: सुधा सागर के मध्य मणियों से जड़ित मंडप में रत्नों से बनी वेदी पर स्वर्ण सिंहासन पर देवी विराजमान हैं। सिंहासन, मंडप तथा आसपास का वातावरण सब पीतवर्ण के हैं। मां पीले रंग के ही वस्त्र, मुकुट, माला, पीतवर्ण के ही रत्नों से जड़े स्वर्णाभूषण पहने हुए हैं। उन्होंने बायें हाथ में शत्रु की जीभ और दाहिने में मुद्गर पकड़ रखा है। ऐसी दो भुजाओं वाली देवी भगवती बगलामुखी को नमस्कार है। ऐसा ध्यान करके मानसोपचारों से पूजा करके पीठ पूजा करनी चाहिए। पीठ आदि पर रचित सर्वतोभद्रमंडल में मंडूकादि परतत्वांत पीठ देवताओं को स्थापित करके ¬ मं मण्डूकादि परतत्वान्त पीठ देवताम्भ्यो नमः मंत्र से पूजा करके नव पीठशक्तियों की निम्नलिखित मंत्रों से पूजा करें। पूर्वाद्यष्टसु दिक्षु ¬ जयायै नमः (1) ¬ विजयायै नमः (2) ¬ अजितायै नमः (3) ¬ अपराजितायै नमः (4) ¬ नित्यायै नमः (5) ¬ विलासिन्यै नमः (6) ¬ दोग्ध्यै नमः (7) ¬ अघोरायै नमः (8) मध्ये ¬ मंगलायै नमः (9) इति पीठ शक्तीः पूजयेत। ततः स्वर्णादि निर्मितं यंत्रं ताम्रपात्रे निधाय धृतेनाभ्यज्य तदुपरि दुग्धधारां जलधारां च दत्वा स्वच्छ वस्त्रेण सम्प्रोक्ष्य तदुपरि चंदनागुरुकर्पूरेण पूजनार्थ यंत्र विलिरव्य। ¬ ींीं बगलामुखी योगपीठाय नमः इति मंत्रेण पुष्पाधासनं दत्वा पीठ मध्ये संस्थाप्य प्रतिष्ठां च कृत्वा पुनध्र्यात्वा मूलेन मूर्ति प्रकल्प्य पाद्यादि पुष्पान्तैरूपचारैः सम्पूज्य देव्याज्ञां ग्रहीत्वा आवरण पूजां कुर्यात। तद्यथाः। इसके बाद सोने से निर्मित यंत्र को ताम्रपत्र में रखकर उस पर घी का अभ्यंग करके उस पर दूध और जल की धारा दें। तदनंतर उसे स्वच्छ वस्त्र से पोंछकर उसके ऊपर चंदन, अगरबत्ती और कपूर से पूजा के लिए यंत्र लिखें। ‘‘¬ ींीं बगलामुखी योगपीठाय नमः’’ मंत्र से पुष्पाद्यासन देकर पीठ के बीच स्थापित करके उसकी प्राण प्रतिष्ठा करें। फिर ध्यान कर मूल से मूर्ति की प्रकल्पना करें और पाद्य आदि से पुष्पान्जलि दान पर्यन्त उक्त उपचारों से पूजा करके देवी से आज्ञा लेकर आवरण पूजा करें। इत्यावरणपूजां कृत्वां धूपादि नमस्कारान्तं सम्पूज्य जपं कुर्यात अस्य पुरश्चरणं लक्ष जपः चम्पक कुसुमैर्दशांशतो होमः तद्दशांशेन तर्पण मार्जन ब्राह्मण भोजनानि कुर्यात। एवं कृते मंत्रः सिद्धौ भवति एतस्मिन्सिद्धे मंत्रे मंत्र प्रयोगान साधयेत। इस प्रकार आवरण पूजा करके धूपदान से नमस्कार तक पूजा कर जप करें। चम्पा के फूलों से दशांश होम और तद्दशांश तर्पण और मार्जन कर ब्राह्मण भोजन कराएं। ऐसा करने से मंत्र सिद्ध होता है। इस प्रकार ध्यान करके एक लाख जप करें। तदनंतर चंपा के दस हजार फूलों से होम करके पूर्वोक्त पीठ में इस देवी की पूजा करें। इस प्रकार साधक मंत्र को सिद्ध करके देवतादि को स्तंभित करें। साधना पीले वस्त्र और पीली माला धारण कर तथा पीले आसन पर बैठ कर करें। होम पीले फूलों से और मंत्र का जप हल्दी की माला से करें। जप दस हजार करें। मधु, घी और शर्करा मिश्रित तिल से किया जाने वाला हवन (होम) मनुष्यों को

वश में करने वाला माना गया है। यह हवन आकर्षण बढ़ाता है। तेल से सिक्त नीम के पत्तों से किया जाने वाला हवन विद्वेष दूर करता है। रात्रि में श्मशान की अग्नि में कोयले, घर के धूम, राई और माहिष गुग्गल के होम से शत्रु का शमन होता है। गिद्ध तथा कौए के पंख, कड़वे तेल, बहेड़े, घर के धूम और चिता की अग्नि से होम करने से साधक के शत्रुओं को उच्चाटन लग जाता है। दूब, गुरुच और लावा को मधु, घी और शक्कर के साथ मिलाकर होम करने पर साधक सभी रोगों को मात्र देखकर दूर कर देता है। कामनाओं की सिद्धि के लिए पर्वत पर, महावन में, नदी के तट पर या शिवालय में एक लाख जप करें। एक रंग की गाय के दूध में मधु और शक्कर मिलाकर उसे तीन सौ मंत्रांे से अभिमंत्रित करके पीने से सभी विषों की शक्ति समाप्त हो जाती है और साधक शत्रुओं की शक्ति तथा बुद्धि का स्तम्भन करने में सक्षम होता है। शत्रुओं पर विजय आदि के लिए बगलामुखी यंत्र की उपासना से बढ़कर और कोई उपासना नहीं है। इसका प्रयोग प्राचीनकाल से ही हो रहा है। श्री प्रजापति ने इनकी उपासना वैदिक रीति से की और वह सृष्टि की रचना करने में सफल हुए। उन्होंने इस विद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को दिया। फिर सनत्कुमार ने श्री नारद को और श्री नारद ने यह ज्ञान संख्यायन नामक परमहंस को दिया। संख्यायन ने बंगला तंत्र की रचना की जो 36 पटलों में उपनिबद्ध है। श्री परशुराम जी ने यह विद्या के ढ़ोग बताई। महर्षि च्यवन ने इसी विद्या के प्रभाव से इंद्र के वज्र को स्तंभित किया था। श्रमद्गोविन्द पाद की समाधि में विघ्न डालने वाली रेवा नदी का स्तंभन श्री शंकराचार्य ने इसी विद्या के बल पर किया था। तात्पर्य यह कि इस तंत्र के साधक का शत्रु चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, वह साधक से पराजित अवश्य होता है। अतः किसी मुकदमे में विजय, षड्यंत्र से रक्षा तथा राजनीति में सफलता के लिए इसकी साधना अवश्य करनी चाहिए। परंतु ध्यान रहे, उपासना किसी योग्य और कुशल गुरु के मार्गदर्शन में ही करें।साधनाकाल की सावधानियाँ 
- ब्रह्मचर्य का पालन करें।
- पीले वस्त्र धारण करें। 
- एक समय भोजन करें। 
- बाल नहीं कटवाए। 
- मंत्र के जप रात्रि के 10 से प्रात: 4 बजे के बीच करें। 
- दीपक की बाती को हल्दी या पीले रंग में लपेट कर सुखा लें। 
- साधना में छत्तीस अक्षर वाला मंत्र श्रेष्‍ठ फलदायी होता है।
- साधना अकेले में, मंदिर में, हिमालय पर या किसी सिद्ध पुरुष के साथ बैठकर की जानी चाहिए। 

मंत्र- सिद्ध करने की विधि 
- साधना में जरूरी श्री बगलामुखी का पूजन यंत्र चने की दाल से बनाया जाता है। 
- अगर सक्षम हो तो ताम्रपत्र या चाँदी के पत्र पर इसे अंकित करवाए। 
- बगलामुखी यंत्र एवं इसकी संपूर्ण साधना यहाँ देना संभव नहीं है। किंतु आवश्‍यक मंत्र को संक्षिप्त में दिया जा रहा है ताकि जब साधक मंत्र संपन्न करें तब उसे सुविधा रहे।

प्रभावशाली मंत्र माँ बगलामुखी 
विनियोग - 
अस्य : श्री ब्रह्मास्त्र-विद्या बगलामुख्या नारद ऋषये नम: शिरसि। 

त्रिष्टुप् छन्दसे नमो मुखे। श्री बगलामुखी दैवतायै नमो ह्रदये। 
ह्रीं बीजाय नमो गुह्ये। स्वाहा शक्तये नम: पाद्यो:। 
ऊँ नम: सर्वांगं श्री बगलामुखी देवता प्रसाद सिद्धयर्थ न्यासे विनियोग:। 

आवाहन
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखी सर्वदृष्टानां मुखं स्तम्भिनि सकल मनोहारिणी अम्बिके इहागच्छ सन्निधि कुरू सर्वार्थ साधय साधय स्वाहा।

ध्यान 
सौवर्णामनसंस्थितां त्रिनयनां पीतांशुकोल्लसिनीम्
हेमावांगरूचि शशांक मुकुटां सच्चम्पकस्रग्युताम् 
हस्तैर्मुद़गर पाशवज्ररसना सम्बि भ्रति भूषणै 
व्याप्तांगी बगलामुखी त्रिजगतां सस्तम्भिनौ चिन्तयेत्। 

मंत्र 
ऊँ ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां 
वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्ववां कीलय 
बुद्धि विनाशय ह्रीं ओम् स्वाहा। 

इन छत्तीस अक्षरों वाले मंत्र में अद्‍भुत प्रभाव है। इसको एक लाख जाप द्वारा सिद्ध किया जाता है। अधिक सिद्धि हेतु पाँच लाख जप भी किए जा सकते हैं। जप की संपूर्णता के पश्चात् दशांश यज्ञ एवं दशांश तर्पण भी आवश्यक है।इस साधना में विशेष सावधानियाँ रखने की आवश्यकता होती है । इस साधना को करने वाला साधक पूर्ण रूप से शुद्ध होकर (तन, मन, वचन) रात्री काल में पीले वस्त्र पहनकर व पीला आसन बिछाकर, पीले पुष्पों का प्रयोग कर, पीली (हल्दी या हकीक ) की 108 दानों की माला द्वारा मंत्रों का सही उच्चारण करते हुए कम से कम 11 माला का नित्य जाप 21 दिनों तक या कार्यसिद्ध होने तक करे या फिर नित्य 108 बार मंत्र जाप करने से भी आपको अभीष्ट सिद्ध की प्राप्ति होगी।खाने में पीला खाना व सोने के बिछौने को भी पीला रखना साधना काल में आवश्यक होता है वहीं नियम-संयम रखकर ब्रह्मचारीय होना भी आवश्यक है।
संक्षिप्त साधना विधि, छत्तीस अक्षर के मंत्र का विनियोग ऋयादिन्यास, करन्यास, हृदयाविन्यास व मंत्र इस प्रकार है--

विनियोग

ऊँ अस्य श्री बगलामुखी मंत्रस्य नारद ऋषिः
त्रिष्टुप छंदः श्री बगलामुखी

देवता ह्लीं बीजं स्वाहा शक्तिः प्रणवः कीलकं ममाभीष्ट सिद्धयार्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि न्यास-नारद ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुय छंद से नमः मुखे, बगलामुख्यै नमः, ह्मदि, ह्मीं बीजाय नमः गुहये, स्वाहा शक्तये नमः पादयो, प्रणवः कीलकम नमः सर्वांगे।

हृदयादि न्यास

ऊँ ह्मीं हृदयाय नमः बगलामुखी शिरसे स्वाहा, सर्वदुष्टानां शिरवायै वषट्, वाचं मुखं वदं स्तम्भ्य कवचाय हु, जिह्वां भीलय नेत्रत्रयास वैषट् बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाःआआ फट्।
ध्यान

मध्ये सुधाब्धि मणि मंडप रत्नवेघां 
सिंहासनो परिगतां परिपीत वर्णाम्। 
पीताम्बरा भरणमाल्य विभूषितांगी 
देवीं भजामि घृत मुदग्र वैरिजिह्माम ।।

मंत्र इस प्रकार है-- 

ऊँ ह्लीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ऊँ फट स्वाहा।

मंत्र जाप लक्ष्य बनाकर किया जाए तो उसका दशांश होम करना चाहिए। जिसमें चने की दाल, तिल एवं शुद्ध घी का प्रयोग करें एवं समिधा में आम की सूखी लकड़ी या पीपल की लकड़ी का भी प्रयोग कर सकते हैं। मंत्र जाप पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर करना चाहिए।

|| मन्त्र || 

ॐ रीम श्रीम बगलामुखी वाचस्पतये नमः ! 

|| साधना विधि || 

इस मन्त्र को बगलामुखी जयंती को पूरी रात लिंग मुद्रा का प्रदर्शन करते हुए सारी रात जप करते रहे यदि थक जाये तो थोडा आराम कर ले पर आसन से न उठे ! इस प्रकार यह मन्त्र एक रात में सिद्ध हो जाता है ! दुसरे दिन किसी लड़की को पीला प्रसाद जरूर खिलाये और मंदिर में देवी दुर्गा को भी पीले प्रसाद का भोग लगाये ! 

|| प्रयोग विधि || 

जब प्रयोग करना हो तो इस मन्त्र को 21 दिन 21 माला रात्रि में हल्दी की माला से जपे आपकी शत्रु बाधा से सम्बंधित सभी समस्याए शांत हो जाएगी !यह स्तोत्र शत्रुनाश एव परविद्या छेदन करने वाला एवं रक्षा कार्य हेतु प्रभावी है ।
साधारण साधकों को कुछ समय आवेश व आर्थिक दबाव रहता है, अतः पूजा उपरान्त नमस्तस्यादि शांति स्तोत्र पढ़ने चाहिये ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरा बगलामुखी खड्गमाला मन्त्रस्य नारायण ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, ॐ कीलकं, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगः ।
हृदयादि-न्यासः-नारायण ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयो, ॐ कीलकाय नमः नाभौ, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास - कर-न्यास – अंग-न्यास -
ॐ ह्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
बगलामुखी तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
सर्वदुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
वाचं मुखं पद स्तम्भय अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
ध्यानः-
हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परि-पीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
मानस-पूजनः- इस प्रकार ध्यान करके भगवती पीताम्बरा बगलामुखी का मानस पूजन करें -
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।
खड्ग-माला-मन्त्रः-
ॐ ह्लीं सर्वनिन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तम्भय-स्तम्भय बुद्धिं विनाशय-विनाशय अपरबुद्धिं कुरु-कुरु अपस्मारं कुरु-कुरु आत्मविरोधिनां शिरो ललाट मुख नेत्र कर्ण नासिका दन्तोष्ठ जिह्वा तालु-कण्ठ बाहूदर कुक्षि नाभि पार्श्वद्वय गुह्य गुदाण्ड त्रिक जानुपाद सर्वांगेषु पादादिकेश-पर्यन्तं केशादिपाद-पर्यन्तं स्तम्भय-स्तम्भय मारय-मारय परमन्त्र-परयन्त्र-परतन्त्राणि छेदय-छेदय आत्म-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणि रक्ष-रक्ष, सर्व-ग्रहान् निवारय-निवारय सर्वम् अविधिं विनाशय-विनाशय दुःखं हन-हन दारिद्रयं निवारय निवारय, सर्व-मन्त्र-स्वरुपिणि सर्व-शल्य-योग-स्वरुपिणि दुष्ट-ग्रह-चण्ड-ग्रह भूतग्रहाऽऽकाशग्रह चौर-ग्रह पाषाण-ग्रह चाण्डाल-ग्रह यक्ष-गन्धर्व-किंनर-ग्रह ब्रह्म-राक्षस-ग्रह भूत-प्रेतपिशाचादीनां शाकिनी डाकिनी ग्रहाणां पूर्वदिशं बन्धय-बन्धय, वाराहि बगलामुखी मां रक्ष-रक्ष दक्षिणदिशं बन्धय-बन्धय, किरातवाराहि मां रक्ष-रक्ष पश्चिमदिशं बन्धय-बन्धय, स्वप्नवाराहि मां रक्ष-रक्ष उत्तरदिशं बन्धय-बन्धय, धूम्रवाराहि मां रक्ष-रक्ष सर्वदिशो बन्धय-बन्धय, कुक्कुटवाराहि मां रक्ष-रक्ष अधरदिशं बन्धय-बन्धय, परमेश्वरि मां रक्ष-रक्ष सर्वरोगान् विनाशय-विनाशय, सर्व-शत्रु-पलायनाय सर्व-शत्रु-कुलं मूलतो नाशय-नाशय, शत्रूणां राज्यवश्यं स्त्रीवश्यं जनवश्यं दह-दह पच-पच सकल-लोक-स्तम्भिनि शत्रून् स्तम्भय-स्तम्भय स्तम्भनमोहनाऽऽकर्षणाय सर्व-रिपूणाम् उच्चाटनं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं क्लीं ऐं वाक्-प्रदानाय क्लीं जगत्त्रयवशीकरणाय सौः सर्वमनः क्षोभणाय श्रीं महा-सम्पत्-प्रदानाय ग्लौं सकल-भूमण्डलाधिपत्य-प्रदानाय दां चिरंजीवने । ह्रां ह्रीं ह्रूं क्लां क्लीं क्लूं सौः ॐ ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय राजस्तम्भिनि क्रों क्रों छ्रीं छ्रीं सर्वजन संमोहिनि सभास्तंभिनि स्त्रां स्त्रीं सर्व-मुख-रञ्जिनि मुखं बन्धय-बन्धय ज्वल-ज्वल हंस-हंस राजहंस प्रतिलोम इहलोक परलोक परद्वार राजद्वार क्लीं क्लूं घ्रीं रुं क्रों क्लीं खाणि खाणि , जिह्वां बन्धयामि सकलजन सर्वेन्द्रियाणि बन्धयामि नागाश्व मृग सर्प विहंगम वृश्चिकादि विषं निर्विषं कुरु-कुरु शैलकानन महीं मर्दय मर्दय शत्रूनोत्पाटयोत्पाटय पात्रं पूरय-पूरय महोग्रभूतजातं बन्धयामि बन्धयामि अतीतानागतं सत्यं कथय-कथय लक्ष्मीं प्रददामि-प्रददामि त्वम् इह आगच्छ आगच्छ अत्रैव निवासं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगले परमेश्वरि हुं फट् स्वाहा ।
विशेषः- मूलमन्त्रवता कुर्याद् विद्यां न दर्शयेत् क्वचित् ।
विपत्तौ स्वप्नकाले च विद्यां स्तम्भिनीं दर्शयेत् ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ।
प्रकाशनात् सिद्धहानिः स्याद् वश्यं मरणं भवेत् ।
दद्यात् शानताय सत्याय कौलाचारपरायणः ।
दुर्गाभक्ताय शैवाय मृत्युञ्जयरताय च ।
तस्मै दद्याद् इमं खड्गं स शिवो नात्र संशयः ।
अशाक्ताय च नो दद्याद् दीक्षाहीनाय वै तथा ।
न दर्शयेद् इमं खड्गम् इत्याज्ञा शंकरस्य च ।।
।। श्रीविष्णुयामले बगलाखड्गमालामन्त्रः ।।भगवती बगला सुधा-समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय  मण्डप में रत्नवेदी पर रत्नमय सिंहासन पर विराजती हैं।  पीतवर्णा होने के कारण ये पीत रंग के ही वस्त्र, आभूषण व माला धारण किये हुए हैं।इनके एक हाथ में शत्रु की  जिह्वा  और दूसरे हाथ में मुद्गर  है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं का नाश करने वाली और समष्टि रूप में परम ईश्वर की सहांर-इच्छा  की अधिस्ठात्री शक्ति बगला है।

श्री प्रजापति ने बगला उपासना वैदिक रीती से की और वे सृस्टि की संरचना करने में सफल हुए। श्री प्रजापति ने इस    विद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को दिया।  सनत्कुमार ने इसका उपदेश श्री नारद को और श्री नारद ने सांख्यायन  परमहंस को दिया, जिन्होंने छत्तीस पटलों में “बगला तंत्र” ग्रन्थ की रचना की। “स्वतंत्र तंत्र” के अनुसार भगवान् विष्णु  इस विद्या के उपासक हुए। फिर श्री परशुराम जी और आचार्य द्रोण इस विद्या के उपासक हुए। आचार्य द्रोण ने यह  विद्या परशुराम जी से ग्रहण की।

श्री बगला महाविद्या ऊर्ध्वाम्नाय के अनुसार ही उपास्य हैं, जिसमें स्त्री (शक्ति) भोग्या नहीं बल्कि पूज्या है। बगला    महाविद्या “श्री कुल” से सम्बंधित हैं और अवगत हो कि श्रीकुल की सभी महाविद्याओं की उपासना अत्यंत सावधानी पूर्वक गुरु के मार्गदर्शन में शुचिता बनाते हुए, इन्द्रिय निग्रह पूर्वक करनी चाहिए। फिर बगला शक्ति तो अत्यंत तेजपूर्ण शक्ति हैं, जिनका उद्भव ही स्तम्भन हेतु हुआ था। इस विद्या के प्रभाव से ही महर्षि  च्यवन ने इंद्र के वज्र को स्तंभित कर दिया था। श्रीमद् गोविंदपाद की समाधि में विघ्न डालने से रोकने के लिए आचार्य श्री शंकर ने रेवा नदी का स्तम्भन इसी महाविद्या के प्रभाव से किया था। महामुनि श्री निम्बार्क ने कस्सी ब्राह्मण को इसी विद्या के प्रभाव से नीम के वृक्ष पर, सूर्यदेव का दर्शन कराया था। श्री बगलामुखी को “ब्रह्मास्त्र विद्या” के नामे से भी जाना जाता है।  शत्रुओं का दमन और विघ्नों का शमन करने में विश्व में इनके समकक्ष कोई अन्य देवता नहीं है।

Baglamukhi Mantra in Hindi
Baglamukhi Mantras in Hindi
भगवती बगलामुखी को स्तम्भन की देवी कहा गया है।  स्तम्भनकारिणी शक्ति नाम रूप से व्यक्त एवं अव्यक्त सभी पदार्थो की स्थिति का आधार पृथ्वी के रूप में शक्ति ही है, और बगलामुखी उसी स्तम्भन शक्ति की अधिस्ठात्री देवी हैं।  इसी स्तम्भन शक्ति से ही सूर्यमण्डल स्थित है, सभी लोक इसी शक्ति के प्रभाव से ही स्तंभित है।  अतः साधक गण को चाहिये कि ऐसी महाविद्या कि साधना सही रीति व विधानपूर्वक ही करें।

बगलामुखी साधना और सिद्धी

सामग्री–इस साधना के लिए खुले हुए स्थान का चुनाव ना करें अर्थात आसमान के नीच खुले में साधना ना करें | अगर खुला स्थान हो तो ऊपर से चादर अथवा तिरपाल आदि से चंदोबा (टेंट) तान लें | स्थान की शुद्धता का ध्यान रहे | वस्त्रों के चुनाव में पीले रंग का ध्यान रखें | फूल भी पीले रंग के ही होने चाहिए | जप के लिए माला ले हल्दी की गांठ की बनी हुई | आसन भी पीला रंग का ही लें | भोजन में भी पीले रंग की वस्तुओं का विशेष ध्यान रखें |

मंत्र –” ओम् ह्वीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्वीं ओम् स्वाहा”

विधि– सबसे पहले किसी पाटे/चौकी पर पीले रंग का कपड़ा बिछा कर उस पर अष्टदल का कमल बनाएं पीले चावलों द्वारा| यह करने के बाद इसपर मां बगलामुखी की तस्वीर अथवा यंत्र को स्थापित करें | अब पूजन करें षोडसी का | उसके बाद जाप करना प्रारंभ करें | जाप संख्या आप अपने कार्य के अनुसार दस हजार अथवा एक लाख तक रखें | इसे आप ७, ९, ११ या २१ दिनों के भीतर पूरा करें | लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि हर दिन जाप की संख्या को उतना ही रखें जितना संख्या अपने पहले दिन रखी थी, इसमें परिवर्तन कदापि न करे | हवन जाप की संख्या का दशांश, तर्पण हवन की संख्या का दशांश, मार्जन तर्पण की संख्या का दशांश और ब्राह्मण भोजन मार्जन की संख्या का दशांश कराएं | सिद्धि प्राप्त करने हेतु इसी तरह से साधना करें |

बगलामुखी मंत्र प्रयोग –साधना की सिद्धी हो जाने पर इससे निम्नलिखित प्रयोग किये जा सकते हैं–

* मनवाछिंत संतान की प्राप्ति के लिए हवन करते समय करवीर एवं अशोक के पत्तों द्वारा हवन करें | * धन धन की प्राप्ति के लिए तिल, चावल एवं दूध से बनी हुए खीर से हवन करें |

* गुगल और तिल से हवन यदि हवन किया जाए तो कैदी को जेल से मुक्ति मिलती है |

* सिमर के फलों द्वारा हवन किए जाने पर निश्चय ही शत्रु को पराजित किया जा सकेगा |

* रोग निवारण हेतु कुम्हार के चाक की मिट्टी, चीनी का बुरा (शक्कर), शहद, चार अंगुल की लकड़ियां रेड़ी की, घी और खील लव को मिलाकर हवन करें | विभिन्न प्रकार के सभी रोगों से मुक्ति मिलेगी |

* हवन में अगर सरसों का व्यवहार किया जाए तो वशीकरण प्रभाव पैदा होता है |

* आकर्षण शक्ति बढ़ाने के लिए शक्कर, घी, शहद और नमक के साथ हवन करें |

 

बगला मुखी साबर मंत्र साधना

मन्त्र–”ओम ह्वलीं ब्रह्मस्त्राये विद्महे स्तंभन बाणाय धीमही तन्नो बगला प्रचोदयात् “

उपरोक्त विधि द्वारा ही अश्विनी नक्षत्र में इस मंत्र को १००० बार जाप कर सिद्ध कर ले |

प्रयोग

* लाभ किसी भी प्रकार के लाभ की प्राप्ति के लिए इस मंत्र का दो हजार बार

जाप करें भरणी नक्षत्र में |

* कृतिका नक्षत्र में जागृत हो जाता है मंत्र अगर २००० बार जाप किया जाए तो |

* कामना पूर्ति के लिए १०० या १००० बार जाप करें रोहिणी नक्षत्र में |

* तीव्र बुद्धि करने के लिए ५००० बार जाप करें मृगशिरा नक्षत्र में |

* किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए आद्रा नक्षत्र में मंत्र जाप करें ६००० बार |

* देवत्व की प्राप्ति होती है पुनर्वसु नक्षत्र में १००० बार जाप करने से |

* ७००० बार पुष्य में जाप करने से भी मंत्र की सिद्धि होती है |

* कामना पूर्ति के लिए अश्लेषा नक्षत्र में ६००० बार जाप करें |

* किसी भी अधिकार की प्राप्ति के लिए १०००० बार जाप करें मघा नक्षत्र में |

* तीनों पूर्वा नक्षत्र में ११००० बार जाप करने से प्राप्ति होती है धन की |

* उत्तरा नक्षत्र में १२००० बार जाप करने से किसी भी प्रकार के कामना की

पुर्ति सम्भव है |

* १३००० बार जाप करें हस्त नक्षत्र में तेजस्वी बनने के लिए|

* दो हजार बार जाप करें चित्रा नक्षत्र में सफलता की प्राप्ति के लिए |

* सौम्यता प्राप्त करने के लिए विशाखा नक्षत्र में जाप करें ४००० बार |

* परिवारिक सुख प्राप्त करने के लिए पूरे समय अनुराधा नक्षत्र में जाप करें |

* २००० बार जाप करें जेष्ठा नक्षत्र में | इससे भी मंत्र की सिद्धि होती है |

* ५००० बार जाप करें मूला नक्षत्र में साधना सफल करने के लिए |

* यशस्वी बनने के लिए २००० बार जाप करें श्रवन नक्षत्र में |

* कार्य सिद्धि के लिए २००० बार जाप करें घनिष्ठा में |

* किसी भी पाप की मुक्ति के लिए सतभिषा नक्षत्र में जाप करें २००० बार |

* अधिकार बढ़ाने के लिए ४ हजार बार जाप करें रेवती में |

* स्तंभन, उच्चाटन, वशीकरण आदि कार्यों की सिद्धि के लिए ८००० बार जाप

करें स्वाति नक्षत्र में |

 

बगलामुखी वशीकरण प्रयोग

“ ओम बगलामुखी सर्व अमुक (स्त्री/ पुरुष का नाम) हृदय मम् वश्यं कुरु एं ह्वीं स्वाहा” “.. पूरे विधि विधान से इस मंत्र का जाप करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करें

शनिवार, 22 जनवरी 2022

श्रीत्रिपुरसुन्दरीचक्रराजस्तोत्रम्

श्रीत्रिपुरसुन्दरीचक्रराजस्तोत्रम् 

            ॥ क॥

कर्तुं देवि ! जगद्-विलास-विधिना सृष्टेन ते मायया
सर्वानन्द-मयेन मध्य-विलसच्छ्री-विनदुनाऽलङ्कृतम् ।
श्रीमद्-सद्-गुरु-पूज्य-पाद-करुणा-संवेद्य-तत्त्वात्मकं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ १॥

            ॥ ए॥

एकस्मिन्नणिमादिभिर्विलसितं भूमी-गृहे सिद्धिभिः
वाह्याद्याभिरुपाश्रितं च दशभिर्मुद्राभिरुद्भासितम् ।
चक्रेश्या प्रकतेड्यया त्रिपुरया त्रैलोक्य-सम्मोहनं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ २॥

            ॥ ई॥

ईड्याभिर्नव-विद्रुम-च्छवि-समाभिख्याभिरङ्गी-कृतं
कामाकर्षिणी कादिभिः स्वर-दले गुप्ताभिधाभिः सदा ।
सर्वाशा-परि-पूरके परि-लसद्-देव्या पुरेश्या युतं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम्  ॥ ३॥

            ॥ ल॥

लब्ध-प्रोज्ज्वल-यौवनाभिरभितोऽनङ्ग-प्रसूनादिभिः
सेव्यं गुप्त-तराभिरष्ट-कमले सङ्क्षोभकाख्ये सदा ।
चक्रेश्या पुर-सुन्दरीति जगति प्रख्यातयासङ्गतं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ ४॥

            ॥ ह्रीं॥

ह्रीङ्काराङ्कित-मन्त्र-राज-निलयं श्रीसर्व-सङ्क्षोभिणी
मुख्याभिश्चल-कुन्तलाभिरुषितं मन्वस्र-चक्रे शुभे ।
यत्र श्री-पुर-वासिनी विजयते श्री-सर्व-सौभाग्यदे
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम्  ॥ ५॥

            ॥ ह॥

हस्ते पाश-गदादि-शस्त्र-निचयं दीप्तं वहन्तीभिः
उत्तीर्णाख्याभिरुपास्य पाति शुभदे सर्वार्थ-सिद्धि-प्रदे ।
चक्रे बाह्य-दशारके विलसितं देव्या पूर-श्र्याख्यया
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ ६॥

            ॥ स॥

सर्वज्ञादिभिरिनदु-कान्ति-धवला कालाभिरारक्षिते
चक्रेऽन्तर्दश-कोणकेऽति-विमले नाम्ना च रक्षा-करे ।
यत्र श्रीत्रिपुर-मालिनी विजयते नित्यं निगर्भा स्तुता
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम्  ॥ ७॥

            ॥ क॥

कर्तुं मूकमनर्गल-स्रवदित-द्राक्षादि-वाग्-वैभवं
दक्षाभिर्वशिनी-मुखाभिरभितो वाग्-देवताभिर्युताम् ।
अष्टारे पुर-सिद्धया विलसितं रोग-प्रणाशे शुभे
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ ८॥

            ॥ ह॥

हन्तुं दानव-सङ्घमाहव भुवि स्वेच्छा समाकल्पितैः
शस्त्रैरस्त्र-चयैश्च चाप-निवहैरत्युग्र-तेजो-भरैः ।
आर्त-त्राण-परायणैररि-कुल-प्रध्वंसिभिः संवृतं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ ९॥

            ॥ ल॥

लक्ष्मी-वाग-गजादिभिः कर-लसत्-पाशासि-घण्टादिभिः
कामेश्यादिभिरावृतं शुभ~ण्करं श्री-सर्व-सिद्धि-प्रदम् ।
चक्रेशी च पुराम्बिका विजयते यत्र त्रिकोणे मुदा
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम्  ॥ १०॥

            ॥ ह्रीं॥

ह्रीङ्कारं परमं जपद्भिरनिशं मित्रेश-नाथादिभिः
दिव्यौघैर्मनुजौघ-सिद्ध-निवहैः सारूप्य-मुक्तिं गतैः ।
नाना-मन्त्र-रहस्य-विद्भिरखिलैरन्वासितं योगिभिः
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ ११॥

            ॥ स॥

सर्वोत्कृष्ट-वपुर्धराभिरभितो देवी समाभिर्जगत्
संरक्षार्थमुपागताऽभिरसकृन्नित्याभिधाभिर्मुदा ।
कामेश्यादिभिराज्ञयैव ललिता-देव्याः समुद्भासितं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम्  ॥ १२॥

            ॥ क॥

कर्तुं श्रीललिताङ्ग-रक्षण-विधिं लावण्य-पूर्णां तनूं
आस्थायास्त्र-वरोल्लसत्-कर-पयोजाताभिरध्यासितम् ।
देवीभिर्हृदयादिभिश्च परितो विन्दुं सदाऽऽनन्ददं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम्  ॥ १३॥

            ॥ ल॥

लक्ष्मीशादि-पदैर्युतेन महता मञ्चेन संशोभितं
षट्-त्रिंशद्भिरनर्घ-रत्न-खचितैः सोपानकैर्भूषितम् ।
चिन्ता-रत्न-विनिर्मितेन महता सिंहासनेनोज्ज्वलं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ १४॥

            ॥ ह्रीं॥

ह्रीङ्कारैक-महा-मनुं प्रजपता कामेश्वरेणोषितं
तस्याङ्के च निषण्णया त्रि-जगतां मात्रा चिदाकिरया ।
कामेश्या करुणा-रसैक-निधिना कल्याण-दात्र्या युतं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ १५॥

            ॥ श्रीं॥

श्रीमत्-पञ्च-दशाक्षरैक-निलयं श्रीषोडशी-मन्दिरं
श्रीनाथादिभिरर्चितं च बहुधा देवैः समाराधितम् ।
श्रीकामेश-रहस्सखी-निलयनं श्रीमद्-गुहाराधितं
श्री-चक्रं शरणं व्रजामि सततं सर्वेष्ट-सिद्धि-प्रदम् ॥ १६॥

बुधवार, 12 जनवरी 2022

षोडश संस्काराणां क्रमशः कण्ठस्थीकरणसूत्रम्-

षोडश संस्काराणां क्रमशः कण्ठस्थीकरणसूत्रम्-

गपुंसीजानान्यचूकव्युवेकेसमवर्तनैः।
विवाहान्त्येष्टिसंस्कारैर्षोडशैर्मानवोच्यते।।
१. ग  = गर्भाधान
२. पुं  = पुंसवन
३. सी = सीमन्तोन्नयन
४. जा = जातकर्म
५. ना = नामकरण
६. नि = निष्क्रमण (नि+अ)
७. अ = अन्नप्राशन
८. चू = चूडाकरण/मुण्डन
९. क = कर्णवेध
१०.वि= विद्यारम्भ (वि+उ)
११. उ= उपनयन
१२. वे= वेदारम्भ
१३.के= केशान्त/गोदान
१४.स= समावर्तन
१५.वि= विवाह
१६.अ= अन्त्येष्टि

कुछ लोगों का प्रश्न आ रहा है गृह्य सूत्र क्या हैं ?
गृह्यसूत्र मनुष्य जीवन के द्वितीय अवस्था गृहस्थ आश्रम के नियमों का वर्णन करता है। गृहस्थ आश्रम के नियमों का वर्णन करने वाले सूत्र हैं अतः इनको गृह्यसूत्र कहते हैं।  मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास उसके संस्कारों पर आधारित होता है, जो गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक शास्त्रों के अनुसार सम्पादित किये जाते हैं। संस्कार शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घञ् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ होता है- दोषों का निराकरण करते हुए गुणों की आधान क्रिया का सम्पादन करना। गृह्य सूत्रों में सस्कारों की संख्या 16 है, जो इस प्रकार है- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन,जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, विद्यारम्भ, कर्णभेद, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, केशान्त और अन्त्येष्टि।

उपर्युक्त संस्कारों की विधियां, नियम एवं संस्कार का समय इत्यादि विषय गृह्यसूत्रों में विस्तार से वर्णित है। भारतीय गृहस्थ जीवन की पवित्रता, दैवीय बल के प्रति पूर्ण आस्था का स्वरूप तथा आदर्श जीवन पद्धति का स्वरूप कर्मकाण्ड के माध्यम से गृह्यसूत्रों में व्यवस्थित रूप से अभिव्यक्त किया गया है। हमारे जीवन में नित्य प्रति जाने-अनजाने कुछ गलतियां या दोष होते हैं और इन्हीं के प्रायश्चित्त के लिए बलिवैश्वदेव, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, तथा पितृयज्ञ -इन पंचमहायज्ञों का विधान, गृह्यसूत्रों में विस्तृत रूप से वर्णित है। साथ ही इनमें मनुष्य जीवन के लिए उपयोगी गृहनिर्माण विधि, अपशकुन निवारण की विधियों के साथ-साथ पुनर्जन्म एवं स्वर्गादि की मान्यता पर भी प्रकाश डाला गया है।

वर्तमान समय में उपलब्ध गृह्यसूत्र इस प्रकार है-

*ऋग्वेद 
अश्वलायन गृह्यसूत्र
शंखयान गृह्यसूत्र
कौशिकी गृह्यसूत्र

 *शुक्ल यजुर्वेद
पारस्कर गृह्यसूत्र

*कृष्ण यजुर्वेद 
बौधायन गृह्यसूत्र
मानव गृह्यसूत्र
हिरण्यकेशी/सत्याषाढ गृह्यसूत्र
भारद्वाज गृह्यसूत्र
आपस्तम्ब गृह्यसूत्र
कथक गृह्यसूत्र
लौगाक्षी गृह्यसूत्र
अग्निवेश्य गृह्यसूत्र
वाराह गृह्यसूत्र
वैखानस गृह्यसूत्र
वधूल गृह्यसूत्र

*सामवेद 
गोभिल गृह्यसूत्र
खदिर गृह्यसूत्र
जैमिनीय गृह्यसूत्र
कौथुम गृह्यसूत्र
द्रहयान गृह्यसूत्र

*अथर्ववेद 
कौशिक गृह्यसूत्र


मंगलवार, 11 जनवरी 2022

*प्रज्ञाविवर्धन स्तोत्र*

🙏🏻 *प्रज्ञाविवर्धन स्तोत्र* 🙏🏻

योगीश्वरो महासेनः कार्तिकेयोऽग्निनंदनः। 
स्कंदः कुमारः सेनानीः स्वामी शंकरसंभवः।। १ ।।
गांगेयस्ताम्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वजः। 
तारकारिरुमापुत्रः क्रौंचारिश्च षडानन।। २ ।।
शब्दब्रह्मसमुद्रश्च सिद्धः सारस्वतो गुहः।
सनत्कुमारो भगवान् भोगमोक्षफलप्रदः।। ३ ।।
शरजन्मा गणाधीश पूर्वजो मुक्तिमार्गकृत्। 
सर्वागमप्रणेता च वांच्छितार्थप्रदर्शनः।। ४ ।।
अष्टाविंशतिनामानि मदीयानीति यः पठेत्। 
प्रत्यूषं श्रद्धया युक्तो मूको वाचस्पतिर्भवेत्।। ५ ।।
महामंत्रमयानीति मम नामानुकीर्तनम्। 
महाप्रज्ञामवाप्नोति नात्र कार्या विचारिणा।। ६।।
इति श्री रुद्रयामले प्रज्ञाविवर्धनाख्यं श्री मत्कार्तिकेयस्तोत्रं संपूर्णम्।। ७।।

*यह स्तोत्र छात्रों के लिए, बच्चों के लिए लाभदायक है रोज पाठ करे तो बुद्धि तेज होती है इसके पाठ से*
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर
 पंडयाजी
+919824417090