सोमवार, 31 अगस्त 2020

*प्रेतसूक्तम*

प्रेतसूक्तम् - 
ॐ अपेतो यन्तु पणयोऽसुम्ना देवपीयव: । अस्य लोकः सुतावतः । धुभिरहोभिरक्तुभिर्व्यक्तं यमो ददात्ववसानमस्मै ।।१ ॥ सविता ते शरीरेभ्यः पृथिव्यां लोकमिच्छतु । 
तस्मै युज्यन्तामुस्रियाः ॥२ ॥ 
वायुः पुनातु सविता पुनात्वग्नेर्भ्राजसा सूर्य्यस्य वर्चसा । विमुच्यन्तामुस्त्रियाः ॥३ ॥ 
अश्वत्थे वो निषदनं पणे वो वसतिष्कृता । गोभाजऽ इत्किला सथयत्सनवथ पूरुषम् ॥४ ॥
सविता ते शरीराणि मातुरुपस्थऽआ वपतु । तस्मै पृथिवि शं भव ॥५ ॥
प्रजापतौ त्वा देवतायामुपोदके लोके निदधाम्यसौ । अप नः शोशुचदधम् ॥६ ॥ 
परं मृत्योऽअनु परेहि पन्थां यस्तेऽअन्य इतरो देवयानात् । चक्षुष्मंते शृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजा (गूं) रीरिषो मोत वीरान् ॥७ ॥ 
शं वातः श (गूं) हि ते घृणिः शं ते भवन्त्विष्टकाः । शं ते भवन्त्वग्नयः पार्थिवासो मा त्वाभि शूशुचन् ।। ८ ।।
कल्पतान्ते दिशस्तुभ्यमापः शिवतमास्तुभ्यं भवन्तु सिन्धवः । अन्तरिक्ष (गूं) शिवड्ंकल्पतान्ते दिशः सर्वाः ॥ ९ ॥ 
अश्मन्वती रीयते स (गूं) रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः । अत्रा जहीमोऽशिवा ये ऽअसञ्छिवान्वयमुत्तरेमाभि वाजान् ।। १० ॥ अपाघमप किल्बिष मपकृत्या मपो रपः । अपामार्ग त्व मस्म दपदुः ष्वप्न्य  (गूं) सुव।।११ ।। 
सुमित्रिया नऽआपऽ ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मः ॥१२ ॥ अनड्वाहमन्वारभामहे सौरभेय (गूं) स्वस्तये । स न ऽ इन्द्रऽइव देवेभ्यो वह्निः सन्तारणो भव ॥१३ ॥ 
उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम् । देवन्देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्  ।। १४॥
इमञ्जीवेभ्यः परिधिन्दधामि मैषान्नु गादपरोऽअर्थमेतम् । शतञ्जीवन्तु शरदः पुरुचीरन्तर्मृत्युन्दधतां पर्वतेन ।। १५ ।। अग्नऽ आयू (गूं) षि पवसऽआ सुवोर्जामिषञ्च नः । आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ।। १६ ॥ आयुष्मानग्ने हविषा वृधानो घृतप्रतीको घृतयोनिरेधि । घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रमभि रक्षतांदिमान्त्स्वाहा ।।१७ ।। परीमे गामनेषत पर्यग्निमहृषत । देवेष्वक्रत श्रवः कऽ इमाँ २ ऽआ दधर्षति
 ॥१८ ॥ क्रव्यादमग्निं प्र हिणोमि दूरञ्यमराज्यङ्गच्छतु रिप्रवाहः । इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् ।।१६ ।। वह वपाञ्जातवेदः पितृभ्यो यत्रैनान्वेत्थ निहितान् पराके । मेदसः कुल्याऽउप तान्त्स्रवन्तु सत्या ऽ एषामाशिषः सन्नमन्ता (गूं) स्वाहा ।।२० ।। स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथाः । अप नः शोशुचदघम् ।।२१ ॥ अस्मात्त्वमधि जातोऽसि त्वदयजायतां पुनः । असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा।। २२ ।। ...

शनिवार, 22 अगस्त 2020

*टाइगर रत्न*

*टाइगर रत्न*

सबसे अधिक प्रभावी तथा बहुउपयोगी एवं शीघ्र फल प्रदान करने वाला स्टोन है । इस रत्न पर टाइगर के समान पिली एवं काली धारिया होने के कारण इसे " टाइगर रत्न " कहते है । 
यह प्रभाव में भी चीते के समान त्वरित फल प्रदान करता है । इसे धारण करने से तुरन्त फल की प्राप्ति हो जाती है । जो व्यकित आत्म विश्वाश की कमी के कारण बार बार व्यापार एवं अन्य कार्यो से असफल होता हो या दुखी जीवन व्यतीत कर रहा हो , उस व्यकित को टाइगर स्टोन गजब का का आत्म विश्वाश प्रदान करता है । इसे धारण करने से हर क्षेत्र में पूर्ण सफलता मिलती है तथा व्यकित साहसी एवं पुरुषार्थी बनता है । शेर जैसा आत्म बल और साहस भी यह रत्न प्रदान करता है । डरपोक और उदासीन व्यक्तियों का यह रत्न अदृश्य साथी माना गया है ।
यह रत्न उन व्यक्तियों के लिए भी शुभ फल प्रदान करता है । जिनका भाग्य सोया हुआ हो । सोए भाग्य से आशय है कि व्यक्ति अपने प्यर्ण प्रयासों का पूर्ण फल नही ले पा रहा हो । मेहनत का फल बराबर नही मिल रहा हो , पग-पग पर विभिन्न परेशानियों एवं संघर्षो का सामना कर पड़ रहा हो। जीवन में मृत्यु तुल्य दुःख भोग रहा हो , यश कीर्ति की कमी हो , दुश्मनों से परेशान हो , गरीबी , दरिद्रता जाने का नाम ना ले रही हो ।
ऐसी सिथति में टाइगर स्टोन वरदान साबित होता है । इसे प्राण प्रतिष्ठा सिद्ध करवा कर धारण करने से हर प्रकार के दुखों से निजात मिलती है । सोए हुए भाग्य को टाइगर स्टोन जगा देगा । यदि आप अन्य ग्रहों को भी इस टाइगर स्टोन से जगाना चाहते है तो निम्न प्रकार से टाइगर स्टोन को धारण करे। यह एक रत्न सभी ग्रहों को जगाने का बल रखता है ।
टाइगर स्टोन निम्नलिखित परिसिथतियों में भी लाभदायक है ।
★ जिसका व्यापार घाटे में जा रहा हो , सरकारी परेशानियां बढ़ती जा रही हो , घाटा बढ़ता जा रहा हो तो टाइगर स्टोन शुक्ल पक्ष के बुधवार को बुध की होरा में अनामिका उंगली में धारण करे ।
★ कार्य स्थल पर व अन्य जगहों से मान - सम्मान , प्रतिष्ठा , प्रसिद्धि प्राप्त करने व यश ,कीर्ति की पताका फहराने के इच्छुक टाइगर स्टोन शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तर्जनी उंगली या अनामिका उंगली में धारण करे ।
★ जिस व्यकित का विवाह नही हो रहा हो सगाई तक भी ना हो पा रही हो उस जातक को शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि या गुरु पुष्य योग में धारण करने से शीघ्र विवाह के योग बनते है ।
★ जिस लड़की का विवाह ना हो रहा हो सगाई टूट जाती हो , सगाई हो ही नही पा रही हो उस लड़की को टाइगर रत्न नाग पंचमी के दिन या गुरु पुष्य योग में इसे धारण करने से शीघ्र ही विवाह के योग बनते है ।
★ जिन व्यकितयों के सन्तान होती है मर जाती है या बार - बार आबर्शन हो जाता है तब ऐसी सिथति में दोनो पति-पत्नी बराबर वजन का टाइगर रत्न प्राण प्रतिष्ठा करवा कर शुक्ल पक्ष में जब स्त्री मासिक धर्म में हो तब धारण करे तुरंत लाभ होगा ।
★ जिस घर में लड़ाई - झगड़ा अधिक होता हो , सुख शांति न हो , छोटी - छोटी बातों पर क्लेश हो जाता हो तो उस परिवार का मुखिया टाइगर रत्न सोमवार के दिन चंद्र की होरा में आम के पत्ते के रस का अभिषेक करवा कर धारण करे । टाइगर रत्न सिद्ध व प्राण प्रतिष्टित होना चाहिये ।
★ शत्रुओं से परेशान व्यकित मंगलवार के दिन मंगल की होरा में टाइगर स्टोन धारण करे ।
★ घर में जिन बच्चों या व्यक्तियों को बार - बार नजर लग जाती हो उन्हें टाइगर स्टोन गले में धारण करना चाहिये ।
★ बार-बार वाहन दुर्घटना हो जाती हो तो प्राण प्रतिष्ठित टाइगर स्टोन मंगलवार के दिन धारण करे ।
★ यदि आप निरन्तर कर्जे में डूबते जा रहे हो तो शुक्रवार के दिन सिद्ध किया हुआ टाइगर स्टोन गले में लॉकेट के रूप में सफेद धागे में धारण करे ।
★ जिन व्यक्तियों को नोकरी में समस्या आ रही या कार्यस्थल में परेशानी हो रही हो तो रविवार को सूर्य की होरा में टाइगर स्टोन धारण करने से लाभ होगा ।श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी +९१९८२४४१७०९०...

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

*जनेऊ पहनने के लाभ*

*जनेऊ पहनने के लाभ*

पूर्व काल में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था।

वर्तमान में यह प्रथा लोप सी  हो गयी है। 
जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है।

पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर तीन बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है।आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है।

जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है।

जनेऊ उसके वेग को रोक देती है,जिससे कब्ज, एसीडीटी,पेट रोग,मूत्रेन्द्रीय रोग,रक्तचाप,हृदय 
रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।

जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता।

जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है।

यह सफाई उसे दांत,मुंह,पेट,कृमि,जीवाणुओं के 
रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। 
इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है।

यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता।

अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसकी मात्र अनुभूति होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है।

यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।

इसीलिए सभी हिंदुओं में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है।

यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है,अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए।

शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। 
आदित्य,वसु,रूद्र,वायु,अगि्न,धर्म,वेद,आप,सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है।

यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) 
शब्द के दो अर्थ हैं-

उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। 
मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।

जनेऊ पहनाने का संस्कार

सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है।

यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, 
यज्ञसूत्र या जनेऊ

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें तीन ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। 
तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। 
तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा,विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं।

तीन सूत्र हमारे ऊपर तीन प्रकार के ऋणों का बारम्बार स्मरण कराते हैं कि उन्हें भी हमें चुकाना है।

1 - पितृ ऋण 
2 - मातृ ऋण
3 - गुरु ऋण

अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल ग्रहण नहीं 
किया जाता।

यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है।क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है।

दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है।दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता।आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है,एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का।

अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं।जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है।
अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं।

अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है।

अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है,जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है,जो एक पूर्ण अंक है।

अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है कि हमारा जीवन अकेले अकेले दो 
लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने से बना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है।जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें असीम शांति की प्राप्ति हो जाती है|

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं 
कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।

अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। 
इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है।

दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस,गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है।

मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। 
दाएं कान को ब्रह्म सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है।

यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रह्मसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।

बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है।

अंडवृद्धि के सात कारण हैं। 
मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। 
दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। 
इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी +९१९८२४४१७०९०...

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

*श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष उपाय*

*श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष उपाय*

शास्त्रानुसार, किसी भी सिद्धि को पाने के लिए या मनोकामना पूर्ति के लिए चार रात्रियां सबसे श्रेष्ठ हैं पहली है कालरात्रि (नरक चतुर्दशी या दीपावली), दूसरी है अहोरात्रि (शिवरात्रि), तीसरी है दारुणरात्रि (होली) व चौथी है मोहरात्रि अर्थात जन्माष्टमी यानी इस दिन किए गए उपाय जरुर फलीभूत होते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण श्री विष्णु के आठवें अवतार हैं। सोलह कलाओं से परिपूर्ण दिव्यतम अवतार है। विलक्षण और अद्भुत शक्तियों के स्वामी है।
भगवान श्रीकृष्ण के अवतरण दिवस अष्टमी के दिन इतना शुभ माना जाता है कि यदि कोई मन से उन्हें प्रसन्न कर ले तो उसके सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को उनकी कृपा प्राप्ति के लिए किए जाने वाले कुछ विशेष उपाय
जन्माष्टमी के दिन
ॐ क्लीं कृष्णाय वासुदेवाय
हरये परमात्मने
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः
इस मन्त्र का तुलसी माला से किसी श्रीकृष्ण, श्रीराधाकृष्ण मंदिर या समीप स्थित किसी भी मंदिर में जाप करने से घर में हर प्रकार सुख व शान्ति बनी रहेगी।
अस्थिरता एवं संघर्ष को दूर करने हेतु जन्माष्टमी को सायंकाल तुलसी पौधे के समीप घी का दीपक प्रज्वलित कर निम्न मन्त्र
ऊं वासुदेवाय नमः की 11 माला का जाप करें।
सुख व शान्ति के लिए दक्षिणावर्ती शंख से श्रीकृष्ण का अभिषेक करने से घर में रोग का नाश होता है तथा लक्ष्मी जी की कृपा बनी रहती है।
समस्याओ के निवारण के निवारण हेतु मन्त्र
कृष्णः शरणं मम् का जाप करें।
बीमारी और क्लेश दूर करने के लिए
“ ॐ क्लीं कृष्णाय सर्व क्लेशनाशाय नम: हथेली में हल्दी और तुलसी पत्र लेकर मंत्र का जाप, विशेष लाभदायी है |
सौभाग्य वृद्धि हेतु महिलाओं द्वारा मंत्र
ॐ ऐं श्रीं क्लीं प्राणवल्लभाय
सौः सौभाग्यदाय श्रीकृष्णाय स्वाहा
का जाप विशेष फलप्रदायक है।
सन्तान प्राप्ति हेतु जन्माष्टमी के दिन मंत्रो के साथ बाल गोपाल का पंचामृत से अभिषेक करें
ॐ देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते।
छेहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत:।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के व्रत को शास्त्रों में "व्रतराज" कहा जाता है। ऐसी धारणा है कि इस एक दिन व्रत रखने से कई व्रतों का फल मिल जाता है।
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर 
पंडयाजी +९१९८२४४१७०९०... 

*जन्माष्टमी मे करें यह उपाय*

*जन्माष्टमी मे करें यह उपाय* 
होगी हर परेशानी दूर
 जन्माष्टमी का पवित्र और खुशियों भरा त्योहार है। ऐसे में लोग इस खास दिन को मनाने के लिए कुछ दिन पहले से ही तैयारियां शुरू कर देते है। बहुत से लोग इस शुभ दिन पर श्रीकृष्ण के बाल गोपाल स्वरूप की मूर्ति की घर के मंदिर में स्थापना करते हैं। उनकी ड्रेस, भोग, झुले आदि का ध्यान रखते हैं। इस दिन खासतौर पर उन्हें झुले पर बिठाकर झुला झुलाया जाता है। ऐसे में लोग उनके झुले को अलग और विशेष रूप से सजाते हैं। साथ ही लोग भगवान जी को खुश करने और उनकी कृपा पाने के लिए उनका अच्छे से ख्याल रखते हैं। तो चलिए आज हम आपको कुछ ऐसी वास्तु के उपाय बताते हैं, जिसे विशेषतौर पर जन्माष्टमी के दिन करके आप भगवान श्रीकृष्ण की असीम कृपा पा सकते हैं।
खुले रखें मंदिर के द्वार
जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर अपने घर के मंदिर के दरवाजे खुले रखें। साथ ही रात के समय वहां पर दीये जलाकर अच्छे से रोशनी का प्रबंध करें। 
चांदी की बांसुरी
कृष्ण जन्माष्टमी के दिन कान्हा जी को छोटी सी चांदी की बांसुरी चढ़ाएं। उसके बाद विधिवत पूजा करें और बाद में उस बांसुरी को अपने पर्स में संभाल कर रख लें। इससे आपके जीवन की चल रही परेशानियों का हल हो तरक्की के रास्ते खुलेंगे। 
मोरपंख
मोरपंख श्रीकृष्ण को अति प्रिय होने से इसे अपने घर के मंदिर में या कान्हा जी को जरूर अर्पित करें। इसे घर पर रखने से घर-परिवार में खुशहाली भरा माहौल बनता है। कलह-क्लेश दूर हो घर में सुख-शांति व समृद्धि आती है।
ऐसी तस्वीरें और मूर्ति घर में खुशहाली और बर्कत लाती है 
- घर के मंदिर में बालरूप में कृष्णा जी की मूर्ति रखना बेहद शुभ माना जाता है। इसके साथ ही इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि कान्हा जी की मूर्ति बैठी हुई मुद्रा में होनी चाहिए।
- श्रीकृष्ण और देवी राधा की जुगल-जोड़ी की खड़ी मूद्रा में मूर्ति या तस्वीर रखने से परिवार के सदस्यों में प्यार बढ़ता है। अगर किसी प्रकार का मनमुटाव चल रहा हो तो वह दूर हो घर पर खुशियों का आगमन होता है। 
- संतान प्राप्ति के इच्छुक भक्तों को कृष्णा जी के बाल गोपाल रूप की मूर्ति को या तस्वीर को बेडरूम के पूर्व-पश्चिम दिशा में रखना शुभ होता है। 
- वासुदेव द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को टोकरी में रख कर नदी पार करने वाले चित्र या तस्वीर को घर में लगाना शुभ होता है। इससे घर-परिवार में चल रही परेशानियां दूर होती है। 
- लड्डू गोपाल के रूप में भगवान कृष्ण को घर पर रखना और उनका अपने बच्चे की तरह ध्यान रखने से घर का वातावरण खुशनुमा रहता है। 
जन्माष्टमी के दिन करें ये काम
1.  जन्माष्टमी के दिन 7 कन्याओं को खीर या मिठाई खिलाने से पैसों से जुड़ी समस्या दूर होती है। 
2. जीवन में चल रही परेशानियों को दूर करने के लिए इस शुभ दिन पर बाल गोपाल जी को नारियल और बादाम का भोग लगाएं। 
3. घर पर बर्कत बनाएं रखने के लिए इस दिन पान के पत्ते पर तिलक से श्रीयंत्र बनाकर उसे अपनी तिजोरी में रखें। 
4. पीले चंदन में गुलाब की पंखुड़ियां और केसर को मिलाकर बाल गोपाल जी को तिलक कर खुद के माथे पर भी लगाएं। इससे घर में सुख-समृद्धि व खुशियों का आगमन होगा। 
5. आर्थिक परेशानी से जुझ रहें लोगों को जन्माष्टमी के शुभ दिन पर सुबह नहाकर, साफ कपड़ें पहन कर भगवान श्रीकृष्ण को माथा टेके। फिर उनकी पूजा कर पीले रंग के फूल चढ़ाए। इससे आर्थिक परेशानी से जल्द ही राहत मिलेगी। 
6. जन्माष्टमी से 6 शनिवार तक श्मशान घाट से पानी लेकर पीपल के पेड़ पर चढ़ाने से कर्ज से मुक्ति मिलतीहै। श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय
 सुरेन्द्रनगर पंडयाजी +९१९८२४४१७०९०... 

*भगवान् श्रीकृष्ण की सोलह कलाएं*

*भगवान् श्रीकृष्ण की सोलह कलाएं*

१. अमृतदा ---   जीवात्मा तथा परमात्मा का साक्षात्कार कराकर ज्ञान रूपी अमृत पिलाकर मुक्त करने वाली कला अमृतदा है ।

२. मानदा ---  मानवती स्वाभिमानिनी गोपिकाओं को मान देने वाली ।  भगवान् की रास-क्रीड़ा में दो प्रकार की गोपिकाएं थी । उनमें से एक निराभिमानिनी तथा दूसरी मानिनी थी । उनमें राधा सहित आठ सखियां मानिनी थी। बात-बात में रूठ जाती थी । तब भगवान् उन्हें अनुनय-विनय द्वारा मनाया करते थे ।---  यह भगवान् की कला इसी कारण मानदा कही गई है ।

३ . पूषा ---     अनन्त-कोटि ब्रह्माण्ड का भरण-पोषण करने वाली ।

४ . पुष्टि ---     गीता के पन्द्रहवें अध्याय में भगवान् ने कहा है --- 

"पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमोभूत्वा रसात्मक:।" 

मैं रस-स्वरूप चन्द्रमा होकर सभी औषधियों को पुष्ट करता हूँ । अर्थात्  औषधि शब्द का प्रयोग यहां पर सभी स्थावर-जंगम प्राणियों को पुष्ट करने के अर्थ में है । ऐसी भगवान् की कला पुष्टि नाम की है ।

५ . तुष्टि ---    प्रारब्धानुसार जो प्राप्त हो जाये , उसी में सन्तोष देने वाली शक्ति तुष्टि कही जाती है ।

६ . रति ---    भगवान् के प्रति अभेद तथा स्वार्थ रहित अनुरागात्मक भक्ति रति है ।

७ . धृति ---     अनुकूल पदार्थों के मिलने पर उनको शीघ्र न भोगने की सामर्थ्य तथा प्रतिकूल दुःख देने वाले पदार्थों के मिलने पर मन-बुद्धि को स्थिर रखने वाली कला का नाम धृति है ।

८ . शीर्षणि ---    विदेह-कैवल्य मुक्ति देने वाली शक्ति शीर्षणि है ।

९ .  चण्डिका ---     बाहर तथा भीतर के शत्रुओं को दण्डित करने वाली शक्ति चण्डिका है ।

१० . कान्ति ---    भगवान् की स्वयंप्रकाशिनि कला कान्ति है ।

११ . ज्योत्स्ना ---     शम-दमादि के द्वारा शीतल प्रकाश देकर अंतःकरण की ज्योति को जलाकर परमात्मा की दिव्य ज्योति से मिलाने वाली कला ज्योत्स्ना है ।

१२ . मोक्षदा ---    ब्रह्म-विद्या के द्वारा जीव के तीनों कर्म , तीनों शरीरों को ज्ञानरूपी अग्नि से दग्ध करके ब्रह्म के साथ मिलाने वाली कला मोक्षदा है ।

१३ .  प्रीति ---    लोक-परलोक के अपयश या नरक के भय की चिन्ता से रहित भगवान् के प्रति सच्चा अनुराग कराने वाली कला प्रीति है ।

जैसे भगवान् ने सभी रानियों तथा गोपियों की प्रेम-परीक्षा के लिए पेट में दर्द का बहाना किया । अनेकों उपचार करने पर भी भगवान् ठीक न हुये । नारद जी उस समय वहीं थे । उन्होंने पूछा -- "आपका दर्द कैसे दूर होगा ?"

तब भगवान् ने कहा ----  "कोई प्रेमी भक्त अपने चरणों की धूलि या चरणोदक दे दे । तब पीड़ा दूर होगी ।"

नारद जी कमण्डलु लेकर ब्रह्मा-विष्णु-शिव के पास गये , सनकादिकों से मिले , गोलोक से लेकर पाताल तक किसी ने भी चरणोदक नहीं दिया । सभी कानों पर हाथ रखकर कहने लगे -- "इतना बड़ा पाप करके कौन अनन्त काल तक नरक भोगेगा !"

अन्त में नारद जी ब्रज में पहुँचे । ब्रज की गोपियाँ सकुचा गई । किन्तु जब राधा ने सुना तो परम-प्रसन्न चित्त से बोली ---

"यदि मेरे इष्ट को चरण-रज तथा पादोदक से सुख मिल सकता है , तो मुझे भले ही नरक में जाना पड़े , किन्तु मेरे प्रियतम को रंच मात्र भी कष्ट नहीं होना चाहिए ।"

प्रसन्नता से चरणोदक दे दिया । इस प्रकार की स्वार्थ रहित सच्ची भक्ति का नाम प्रीति है ।

१४. अंगदा ---    भगवान् के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग के समान सारूप्य मुक्ति देने वाली कला अंगदा है ।

१५ . पोषणा ---    अष्टाङ्ग-योग के द्वारा या नवधा-भक्ति के द्वारा ,  साधन-चतुष्टय द्वारा अथवा वेदान्त के महावाक्यों के श्रवण-मनन-निदिध्यासन द्वारा जीव की संसाराकार वृत्ति को हटाकर ब्रह्माकार या भगवदाकार वृत्ति का पोषण करने वाली कला पोषणा है ।

१६ . पूर्णा ---    जिस प्रकार घड़ा फूटने पर घटाकाश महाकाश में लय हो जाता है ।  दूध दूध में , जल सागर में मिलकर पूर्णता को प्राप्त करता है । उसी प्रकार भगवान् की वह शक्ति जो जीव की सम्पूर्ण उपाधियों को दूर करके सच्चिदानन्द रूपी महासागर में लीन कर भगवान् के पूर्ण पद को प्राप्त कराने वाली जो कला है --- उसे पूर्णा कहते हैं ।

इन सोलह कलाओं के स्वामी नन्द-नन्दन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के प्राकट्योत्सव पर सभी को अनन्त शुभकामनाएं !  💐💐💐
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर 
पंडयाजी +९१९८२४४१७०९०...

सोमवार, 10 अगस्त 2020

*श्री शीतलाष्टकं*

*श्री शीतलाष्टकं*

।।श्री शीतलायै नमः।।
 
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीशीतलास्तोत्रस्य महादेव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीशीतला देवता, लक्ष्मी (श्री) बीजम्, भवानी शक्तिः, सर्व-विस्फोटक-निवृत्यर्थे जपे विनियोगः ।।
 
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीमहादेव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीशीतला देवतायै नमः हृदि, लक्ष्मी (श्री) बीजाय नमः गुह्ये, भवानी शक्तये नमः पादयो, सर्व-विस्फोटक-निवृत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।।
 
ध्यानः-
ध्यायामि शीतलां देवीं, रासभस्थां दिगम्बराम्।
मार्जनी-कलशोपेतां शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम्।।
 


मानस-पूजनः-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
 

मन्त्रः-
“ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः।।” (11 बार)
 
।।मूल-स्तोत्र।।
।।ईश्वर उवाच।।
वन्देऽहं शीतलां-देवीं, रासभस्थां दिगम्बराम् ।
मार्जनी-कलशोपेतां, शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम् ।।१
वन्देऽहं शीतलां-देवीं, सर्व-रोग-भयापहाम् ।
यामासाद्य निवर्तन्ते, विस्फोटक-भयं महत् ।।२
शीतले शीतले चेति, यो ब्रूयाद् दाह-पीडितः ।
विस्फोटक-भयं घोरं, क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति ।।३
यस्त्वामुदक-मध्ये तु, ध्यात्वा पूजयते नरः ।
विस्फोटक-भयं घोरं, गृहे तस्य न जायते ।।४
शीतले ! ज्वर-दग्धस्य पूति-गन्ध-युतस्य च ।
प्रणष्ट-चक्षुषां पुंसां , त्वामाहुः जीवनौषधम् ।।५
शीतले ! तनुजान् रोगान्, नृणां हरसि दुस्त्यजान् ।
विस्फोटक-विदीर्णानां, त्वमेकाऽमृत-वर्षिणी ।।६
गल-गण्ड-ग्रहा-रोगा, ये चान्ये दारुणा नृणाम् ।
त्वदनुध्यान-मात्रेण, शीतले! यान्ति सङ्क्षयम् ।।७
न मन्त्रो नौषधं तस्य, पाप-रोगस्य विद्यते ।
त्वामेकां शीतले! धात्री, नान्यां पश्यामि देवताम् ।।८
 
।।फल-श्रुति।।
मृणाल-तन्तु-सदृशीं, नाभि-हृन्मध्य-संस्थिताम् ।
यस्त्वां चिन्तयते देवि ! तस्य मृत्युर्न जायते ।।९
अष्टकं शीतलादेव्या यो नरः प्रपठेत्सदा ।
विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते ।।१०
श्रोतव्यं पठितव्यं च श्रद्धाभाक्तिसमन्वितैः ।
उपसर्गविनाशाय परं स्वस्त्ययनं महत् ।।११
शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता ।
शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः ।।१२
रासभो गर्दभश्चैव खरो वैशाखनन्दनः ।
शीतलावाहनश्चैव दूर्वाकन्दनिकृन्तनः ।।१३
एतानि खरनामानि शीतलाग्रे तु यः पठेत् ।
तस्य गेहे शिशूनां च शीतलारुङ् न जायते ।।१४
शीतलाष्टकमेवेदं न देयं यस्यकस्यचित् । *देव नील*
दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धाभक्तियुताय वै ।।१५
।।इति श्रीस्कन्दपुराणे शीतलाष्टकं सम्पूर्णम् ।।
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर
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