बुधवार, 27 मई 2020

संत प्रह्लाद जानी -- चुनरी वाली माता जी का गुजरात मे हो गया निधन....ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः...

संत प्रह्लाद जानी -- चुनरी वाली माता जी का गुजरात मे हो गया निधन....ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः... 
आप 90 साल के थे ।
आपके बारे में कहा जाता था कि आपने पिछले 76 साल से अन्न जल ग्रहण नही किया है । आप सिर्फ श्वास के सहारे जीवित हैं .........

मैं आमतौर पे ऐसे चमत्कारी बाबाओं के फेर में नही पड़ता और ये मानता हूँ कि ये सब Fraud होते हैं । 
पर संत प्रह्लाद जी का केस अलग था ।

DRDO बोले तो Defence Research & Development Organisation की एक अनुषांगिक संस्था DIPAS बोले तो Defence Institute of Physiology and Allied Sciences ने दो बार संत प्रह्लाद जानी के इस दावे की जांच की कि उन्होंने पिछले 76 साल से अन्न जल ग्रहण नही किया है  ।
उनके ऊपर बड़ी वृहद Scientific Research हुई है ....... पहली बार 2003 मे और दोबारा 2010 में .......

2010 में DIPAS , DRDO , AIIMS जैसे संस्थानों के Doctors , Scientists और Researchers ने अहमदाबाद के Sterling हॉस्पिटल के एक शीशे के chamber नुमा रूम में पूरे 15 दिन तक उनकी निगरानी की ........कुल 40 Doctors की टीम और 24घंटे CC TV कैमरा की निगरानी में उन्हें देखते जांचते रहे । 
पल पल उनका Temperature , BP , Heart Beat ,  Blood Sugar , Lipid Profile , CBC , kidney एवं liver function जैसे तमाम tests होते रहे ....... इस बीच उनके शौचालय जाने , मल मूत्र विसर्जन , इत्यादि पे भी निगरानी और Tests हुए ।
वैज्ञानिकों ने पाया कि उन पंद्रह दिनों में संत जी ने एक बूंद भी जल या कोई अन्न नही लिया । 
24 घंटे में औसतन 100 ml पेशाब उनको होता था ।
मल त्याग नही किया एक बार भी । 

तमाम research के बाद वैज्ञानिकों ने यही निष्कर्ष निकाला कि संत जी एक अज्ञात रहस्यमयी प्राण शक्ति से ही ऊर्जा ग्रहण करते हैं ।
DIPAS और DRDO जैसे संस्थाएं सेना के लिए ऐसी researchs करती हैं जिनसे विकट परिस्थितियों में मरुस्थल या बर्फीली चोटियों पे सैनिक बिना कुछ खाये पिये भी न सिर्फ Survive कर सकें बल्कि लड़ सकें ...... इसी क्रम में DRDO Energy Drinks , Energy foods , पे रिसर्च करती हैं जिससे जेब मे रखी एक चॉकलेट मात्र से हफ्ते भर की ऊर्जा मिल सके । 

तो DIPAS जैसी संस्था ने भी संत प्रह्लाद जानी के इस दावे को सत्य माना कि उन्होंने लंबे समय तक अन्न जल ग्रहण नही किया ।

ऐसे में हमारे ग्रंथों में समाधि की जिस अवस्था का ज़िक्र आता है जिसमे योगी सिर्फ योग प्राणायाम और प्राण वायु के सहारे ही वर्षों समाधि में बिता देते थे .......  वैसे ही योगी थे संत प्रह्लाद जानी ।
प्रह्लाद जानी का निधन हो गया ।
उनको  भावपूर्ण श्रद्धांजलि ...पंडयाजी..

मंगलवार, 26 मई 2020

*सूर्य ग्रहण और मंत्र सिद्धि*

* सूर्य  ग्रहण और मंत्र सिद्धि*
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मंत्र सिद्धि के लिए सर्वश्रेष्ठ समय ग्रहण को माना गया है। ग्रहण काल में किसी भी एक मंत्र को, जिसकी सिद्धि करना हो या किसी विशेष प्रयोजन हेतु सिद्धि करना हो, जप सकते है। ग्रहण काल में मंत्र जपने के लिए माला की आवश्यकता नहीं होती बल्कि समय का ही महत्व होता है। आसन पर बैठ कर अपनी मनोकामना का संकल्प करके जाप प्रारम्भ करे 
अलग अलग साधना या मनोकामना प्राप्ति के लिए अलग अलग मंत्र उनका आसान का कलर माला का भी विशेष प्रभाव रहता है। 
जिससे जप का फल और बड़ जाता है।

*वाक् सिद्धि हेतु*-
 
*ॐ ह्लीं दूं दुर्गायै नम:*
 
लक्ष्मी प्राप्ति हेतु तांत्रिक मंत्र- 
 
*ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्षम्यै नमः*
 
नौकरी एवं व्यापार में वृद्धि हेतु प्रयोग-

 
*ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद-प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नम:*।
 
मुकदमे में विजय के लिए-
 
ॐ ह्लीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्ववां कीलय बुद्धि विनाशय ह्लीं ओम् स्वाहा।। 
 
इसमें 'सर्वदुष्टानां' की जगह जिससे छुटकारा पाना हो उसका नाम लें। 
 
बच्चो को विद्या प्राप्ति सद्बुद्धि ओर ज्ञान की प्राप्ति के लिए
*ॐ गं गणपतये नमः*
*ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः*

 इसी प्रकार नवग्रह शांति हेतु,स्वस्थता प्राप्ति हेतु,संतान प्राप्ति हेतु,मंगल दोष ,कालसर्प दोष, शिघ्र विवाह हेतु भी कई चमत्कारिक मंत्र होते है जिसका ग्रहण के समय मे जाप करके आप शीघ्र अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते है।

कोई मंत्र तब ही सफल होता है, जब आप में पूर्ण श्रद्धा व विश्वास हो। किसी का बुरा चाहने वाले मंत्र सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। मंत्र जपते समय एक खुशबूदार धूपबत्ती प्रज्ज्वलित कर लें। इससे मन एकाग्र होकर जप में मन लगता है व ध्यान भी नहीं भटकता है।
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी ९८२४४१७०९०...

सोमवार, 25 मई 2020

*5 जून से 5 जुलाई 2020 के बीच मे तीन ग्रहण है*

*5 जून से 5 जुलाई 2020 के बीच मे तीन ग्रहण है* 

एक महीने में तीन ग्रहण 
दो चंद्र ग्रहण 
एक सूर्य ग्रहण 

जब कभी एक महीने में तीन से ज्यादा ग्रहण आ जाये 
तो एक चिंता का विषय बनता है 

5 जून 2020 चंद्रग्रहण
प्रारंभ रात 11:15 मिनिट समाप्ति 6 जून सुबह 2:34 चंद्र ग्रहण जिसमे शुक्र वक्री और अस्त रहेगा गुरु शनि वक्री रहेंगे तो तीन ग्रह वक्री रहेंगे, जिसके कारण जिसके प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था पर होगा। शेयर बाजार से जुड़े हुए लोग सावधान रहें। यह ग्रहण वृश्चिक राशि पर बहोत बुरा प्रभाव डालेगा। किसी ख्यातिप्राप्त व्यक्ति की रहस्यात्मक मौत।
परिवार वालो के साथ वाद विवाद का सामना करना पड़ेगा तो वृश्चिक राशिवाले सावधान।

21 जून 2020 सूर्य ग्रहण
एक साथ छ ग्रह वक्री रहेंगे बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु यह छह ग्रह 21 जून 2020 को वक्री रहेंगे। इन छह ग्रह का वक्री होना यानी एक बहोत बड़ा तहलका मचाने वाला है।

5 जुलाई 2020 चंद्रग्रहण एक बहुत बड़ा परिवर्तन
मंगल का राशि परिवर्तन
सूर्य का राशि परिवर्तन
गुरु धन राशि मे वापस, लेकिन वक्री रहेंगे।
शुक्र मार्गी
प्राकृतिक आपदाएं आयेगी।
विश्व युद्ध होगा वैश्विक शक्तियां लड़ने को हावी होगी।
किसी ख्यातिप्राप्त यशस्वी कीर्तिमान राजनीति नेता की हत्या होगी कुछ जगह पर आपसी लड़ाईया होगी। जल प्रलय का खतरा हम सभी पे मंडरा रहा है।

5 जून को चंद्र ग्रहण
21 जून को सूर्य ग्रहण
5 जुलाई को चंद्र ग्रहण 

यह तीन ग्रहण के कारण उथल-पुथल मच जायेगी 
मांसाहार का त्याग करें, अन्यथा भयकर परिणाम भुगतने पडेंगे... श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी ९८२४४१७०९०... 

रविवार, 24 मई 2020

*पूजन के प्रकार एवं अन्य महत्त्वपूर्ण जानकारी*

*पूजन के प्रकार एवं अन्य महत्त्वपूर्ण जानकारी*

पंचोपचार (05)
दशोपचार (10)
षोडसोपचार(16)
राजोपचार
द्वात्रिशोपचार (32)
चतुषष्टीपोचार (64)
एकोद्वात्रिंशोपचार (132)

पंचोपचार👉 गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने को पंचोपचार पूजन कहते हैं।

दशोपचार👉  आसन, पाद्य, अर्ध्य, मधुपर्क, आचमन, गंध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने को दशोपचार पूजन कहते हैं।

षोडशोपचार👉 आवाहन, आसन, पाद्य, अर्ध्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, अलंकार, सुगन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, ताम्बुल तथा दक्षिणा द्वारा पूजन करने की विधि को षोडषोपचार पूजन कहते हैं।

राजोपचार पूजन👉 राजोपचार पूजन में षोडशोपचार पूजन के अतिरिक्त छत्र, चमर, पादुका, रत्न व आभूषण आदि विविध सामग्रियों व सज्जा से की गयी पूजा राजोपचार पूजन कहलाती है | राजोपचार अर्थात राजसी ठाठ-बाठ के साथ पूजन होता है, पूजन तो नियमतः ही होता है परन्तु पूजन कराने वाले के सामर्थ्य के अनुसार जितना दिव्य और राजसी सामग्रियों से सजावट और चढ़ावा होता है उसे ही राजोपचार पूजन कहते हैं।
पूजन के अलावे कुछ विशिष्ट जानकारियां

पंचामृत👉  दूध , दही , घृत , शहद तथा शक्कर इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं।

पंचामृत बनाने की विधि👉 
दूध; दूध की आधी दही; दही का चौथाई घी; घी का आधा शहद और शहद का आधा देशी खांड़ या शक्कर।

(अपने सामर्थ्य के अनुसार बनावें परन्तु ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि दूध, दही व घी यदि गाय का रहेगा तो सर्वोत्तम होगा)।

पंचगव्य👉 गाय के दूध ,दही, घृत , मूत्र तथा गोबर को मिलाकर बनाए गए रस को ‘पंचगव्य’ कहलाते हैं।

*पंचगव्य बनाने की विधि*

दूध की आधी दही; दही का आधा घृत; घृत का आधा गाय का मूत्र और मूत्र का आधा गोबर का रस ( गोबर को गंगाजल या स्वच्छ जल में घोलकर मोटे नये सूती कपड़े से छानकर रस लेना चाहिए )
त्रिधातु – सोना , चांदी और लोहा के संभाग मिश्रण को ‘त्रिधातु’ कहते हैं.  ।

पंचधातु👉  सोना , चांदी , लोहा, तांबा और जस्ता के संभाग मिश्रण को पंचधातु कहे...

अष्टधातु👉  सोना , चांदी ,लोहा ,तांबा , जस्ता , रांगा , कांसा और पारा का संभाग मिश्रण अष्टधातु कहलाता है।

नैवैद्य👉 खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुये जो देवी देवता को भोग लगाते हैं वो नैवेद्य कहलाता है।

नवग्रह👉 सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध, गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु नवग्रह कहे गए हैं।

नवरत्न👉 माणिक्य , मोती , मूंगा , पन्ना , पुखराज , हीरा , नीलम , गोमेद , और वैदूर्य(लहसुनिया) ये नवरत्न कहे गए हैं।
अष्टगंध – अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम ,गोरोचन , जटामासी , कस्तूरी और कपूर का मिश्रण अष्टगन्ध कहलाता है, अष्टगंध तीन प्रकार के होते  है, शिव~शक्ति~ विष्णु...

गंधत्रय या त्रिगन्ध👉 सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम।

पञ्चांग👉 किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़ ये पांच अंग पञ्चांग कहलाते हैं।

दशांश👉 दसवां भाग।

सम्पुट👉 मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना या मन्त्र के शुरू और अंत में कोई और मन्त्र या बीजाक्षर को जोड़ना मन्त्र को सम्पुटित करना कहलाता है। 

भोजपत्र👉 यह एक वृक्ष की छाल होती है जो यंत्र निर्माण के काम आती है यह दो प्रकार का होता है। लाल और सफ़ेद, यन्त्र निर्माण के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए , जो कटा-फटा न हो।
 
मन्त्र धारण👉 किसी मन्त्र को गुरु द्वारा ग्रहण करना मन्त्र को धारण करना कहलाता है या किसी भी मन्त्र को भोजपत्र आदि पर लिख कर धारण करना भी मन्त्र धारण करना कहलाता है इसे स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण करें, यदि भुजा में धारण करना हो तो पुरुष अपनी दायीं भुजा में और स्त्री अपनी बायीं भुजा में धारण करे।

ताबीज👉 यह सोना चांदी तांबा लोहा पीतल अष्टधातु पंचधातु त्रिधातु आदि का बनता है और अलग अलग आकारों में बाजार में आसानी से मिल जाता है।

मुद्राएँ👉 हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है। मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं। अलग अलग पूजा पाठ या साधनाओं में अलग अलग मुद्रा देवी देवता को प्रदर्शित की जाती है जिस से वो देवी देवता शीघ्र प्रशन्न हो कर वांछित फल शीघ्र प्रदान करते हैं।

स्नान यह मुख्य दो प्रकार का होता है । बाह्य तथा आतंरिक। बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान मानसिक रूप से जप और तप द्वारा होता है।
वेसै तो स्नान अनेक प्रकार के बताये गये है  दशविध स्नान, मंत्रस्नान आदि आदि..... 

तर्पण👉 नदी , सरोवर ,आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है। जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है। किसी मन्त्र जप का दसांश हवन और उसका दसांश तर्पण किया जाता है।
पितृ को दिया गया जल भी तर्पण कहलाता है।

आचमन👉 हाथ में जल लेकर उसे अभिमंत्रित कर के अपने मुंह में पानी पिने  की क्रिया को आचमन कहते हैं | ये मुखशुद्धि के लिए किसी भी जप या पाठ के पहले अवश्य करना चाहिए।

करन्यास👉 अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है।

हृदयादिन्यास👉 ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ‘ हृदयादिन्यास ’ कहते हैं।

अंगन्यास👉 ह्रदय , शिर , शिखा, कवच , नेत्र एवं करतल इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं।

अर्घ्य👉 शंख , अंजलि ,अर्घपात्र आदि द्वारा जल को देवी देवता को चढ़ाना अर्घ्य देना कहलाता है।श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी ९८२४४१७०९०...

गुरुवार, 21 मई 2020

*वेदस्य पर्यायवाची शब्दा:*

*वेदस्य पर्यायवाची शब्दा:*


(१) *श्रुति:-* सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्म के नि:श्वासभूत सूक्ष्म वेद का ऋषियों ने श्रवण किया था, तथा इस वेद को ऋषियों ने वैखरी वाणी में अपने शिष्य प्रशिष्यो को उपदेश द्वारा प्रदान किए जाने के कारण वेद को हम श्रुति कहते हैं। यह परंपरा आज भी गुरुकुल में विद्यमान है। (श्रुति: स्त्री वेद आम्नायस्रयी-अमरकोश:) श्रुयते धर्मोऽनया- इति वा.

(२) *आम्नाय:-* वैदिक मन्त्रो का शिक्षा ग्रन्थों में निर्दिष्ट विधि एवं आचार-संहिता के अनुसार बार-बार अभ्यास करने के कारण वेद को आम्नाय भी कहा जाता है।

(३) *आगम:-* धर्म के ज्ञान का ‍साधन होने के कारण वेद को आगम कहते हैं। त्रयी- (वेदत्रयी) ऋग् यजु: साम- इन श्रचनात्मक तीन अवयवों से विभूषित होने के कारण वेद को त्रयी- कहते हैं।

(४) *निगम:-* निश्चत रूप से धर्म का ज्ञान कराने के कारण या आलौकिक ज्ञान (यागादि विषयक) कराने के कारण वेद को निगम कहा जाता है।

(५) *ब्रह्म:-* यज्ञ सम्बन्धी ज्ञान के साथ आध्यात्मिक तत्व (ब्रह्म) का भी प्रतिपादक होने के कारण अथवा स्वयं शब्द ब्रह्म होने के कारण वेद की ब्रह्म" शब्द से भी प्रसिद्धि है।

(६) *छन्द:-* वेदों में गायत्री इत्यादि छन्दो की बहुलता के कारण उपासकों अथवा अध्येताओं की सुरक्षा करने के कारण एवं आच्छादक (व्यापक) होने के कारण वेद को छन्द भी कहा जाता है।एक अन्य अर्थ के अनुसार आनन्द-दायक होने के कारण वेद को छन्द कहते हैं। (बहुलं छन्दसि)...
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी ९८२४४१७०९०...

बुधवार, 20 मई 2020

*संस्कृत व्याकरण*

*संस्कृत व्याकरण*
१. वि+आङ्ग+कृ+ल्युट (व्युत्पत्ति)
२. व्याक्रियंते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः अनेन इति व्याकरण:
३. व्याकरण को "शब्दानुशासन" भी कहा जाता है ।
४. स्वर-व्यंजन,संधि-समास,शब्द-धातु,प्रकृति-प्रत्यय व् स्फोट सिद्धांत व्याकरण के प्रमुख विभाग है ।
५. रक्षा,ऊह,आगम,लाघव व संदेहनिवारण इसके पञ्च प्रयोजन है ।
६. वेदांगों में व्याकरण को "मुख" की संज्ञा दी गई है ।
७. व्याकरण के विना व्यक्ति को " अंधे" की संज्ञा दी गई है ।
८ . व्याकरण के महत्त्व को गोपथ ब्राह्मण में स्पष्ट किया गया है-
ओम्कारं पृच्छामः, को धातु:, किं प्रतिपादिकं, किं नामाख्यातं, किं लिंगं,किं वचनं, का विभक्तिः, कः प्रत्ययः, कः स्वरः, उपसर्गोनिपात:, किं वै व्याकरणं...।

९. ऋकतंत्र के अनुसार व्याकरण का प्रवर्तन-
प्रथम वक्ता [ ब्रह्मा ] - बृहस्पति - इंद्र - भारद्वाज- ऋषियों- ब्राह्मणों- समाज

१०. पाणिनि से परवर्ती प्रमुख वैयाकरण-
गार्ग्य,काश्यप,गालव,चाक्रवर्मन् ( ३१०० ईस्वी पूर्व ), आपिशलि,काश्यप,भारद्वाज,शाकटायन ( ३००० ईस्वी पूर्व),सेनक, स्फोटायन ( २९५० ईस्वी पूर्व )

११.  व्याकरण के भेद
छान्दसं ( प्रतिशाख्य )
लौकिक ( कातंत्र [ प्राचीनतम ], चांद्र, जैनेन्द्र, सारस्वत
लौकिक-छान्दस - पाणिनिय व्याकरण
१२. वोपदेव ने " कविकल्पद्रुम " वे संस्कृत व्याकरण के ८ सम्प्रदायों का उल्लेख किया है-

इन्द्रश्चंद्र: काश्कृत्स्नापिश्ली शाकटायन: ।
पाणिन्यमरजैनेंद्रा: ज्यन्त्त्यष्टादि शाब्दिका: ।।

       ● पाणिनीय व्याकरण (नव्य व्याकरण)

१. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार पाणिनीय व्याकरण शैव संप्रदाय से सम्बंधित है..
२. इसका आधार १४ माहेश्वर सूत्र है ।
३ पुरुषोत्तम देव ने  "त्रिकांड कोष" पे पाणिनि के ६ नाम बताये है-
पाणिनिरत्त्वारहिको दाक्षीपुत्रो शालांकि पाणिनौ ।
शालोत्तरीय....।
४. शालातुरीयको दाक्षीपुत्र: पाणिनिराहिक: (वैजयंती कोष)
५. पाणिनि के पिता का नाम शलंक (दाक्षी) था ।
६. ये शालातुर (लाहौर) के निवासी थे ।
७. राजशेखर के अनुसार इनके गुरु पाटलिपुत्र (पटना) निवासी "वर्षाचार्य" थे ।
८. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार "कात्यायन" इनके साक्षात शिष्य थे ।
९. पंचतंत्र की एक कथा के अनुसार "त्रयोदशी" के दिन एक शेर द्वारा इनकी हत्या कर दी गई थी, इसलिए इस दिन व्याकरण पाठ निषेध है।
१०. पाणिनि की रचनाये-
√अष्टक(अष्टाध्यायी, शब्दानुशासन)
√ गण पाठ
√ धातुपाठ
√ लिंगानुशासन
√ पाणिनीय शिक्षा
* कुछ विद्वान् "उणादि सूत्रों" को भी इनकी रचना मानते है ।
११. इनकी रचनाओं को व्याकरण का "पंचांग" कहा जाता है, क्योंकी यह व्याकरण के पांच प्रमुख अंग है।
१२.अष्टाध्यायी में कुल ३९९६ सूत्र है जो आठ अध्यायों में विभक्त है ।
१३. #SirHunter- सर हंटर के अनुसार- अष्टाध्यायी मानव मस्तिष्क का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आविष्कार है,इसकी वर्ण शुद्धता,धातु अन्वय सिद्धांत व् प्रयोजन विधि अद्वितीय है, वस्तुत: "पाणिनीय व्याकरण" विश्व की सर्वोत्कृष्ट व्याकरण है तथा #पाणिनि वैयाकरण ।
१४.#प्रो_टी_शेरावातास्की - पाणिनिय व्याकरण मानव मस्तिष्क की सर्वोत्तम रचना है.......

●कात्यायन
१. यह पाणिनि के साक्षात शिष्य माने जाते है ।
२. इन्होने अष्टाध्यायी के सूत्रों को आधार कर "वर्तिकों" की रचना की ।
३. महाभाष्यकार इनको दक्षिणात्त्य मानते है-
√प्रियतद्धिता दाक्षिणात्या 
४. "कथासरित्सागर" में इनको कौशाम्बी निवासी तथा वास्तविक नाम "वररुचि" बताया गया है-
√ततः सः मर्त्यवपुष्पा पुष्पदंत: परिभ्रमन ।
   नाम्ना वररुचि: किञ्च कात्यायन इति श्रुतः ।।
५. समुद्रगुप्त ने "कृष्णचरित काव्य" में इनको "स्वर्गारोहण काव्य" कर्ता वररुचि व वैयाकरण कात्यायन बताया है ।
६.कालक्रम-
√युधिष्ठिर मीमांसक- २९००-३००० ई०पू०
√लोकमणि दहल- २००० ई०पू०
√सत्यव्रत शास्त्री-२३५० ई०पू०
√मैक्समूलर-३०० ई०पू०
√कीथ- २५० ई०पू०
७. इनकी रचना "वार्तिक" सम्प्रति स्वतंत्र रूप से अप्राप्त है परन्तु महाभाष्य में संरक्षित अवश्य है ।
८. वार्तिक-
√उक्तानुक्तादुरक्तचिंता वार्तिकम (राजशेखर)
√ उक्तानुक्तादुरक्तचिंता यत्र प्रवर्तते ।
    तं ग्रंथं वर्तिकं प्राहुवार्तिक्ज्ञा मनीषिण: ।। 
                                       (पराशर पुराण)
९. वार्तिक वस्तुतः पाणिनीय सूत्रों की समिक्षा,परिष्कार व परिवर्धन है ।

●पतंजलि
१. इनका जन्म कश्मीर के गोनार्द जनपद में हुआ था ।
२. इनको "शेषनाग" का अवतार माना जाता है ।
३. वस्तुतः ये योग व आयुर्वेद के आचार्य थे ।
४. अपर नाम-
√गोणिकापुत्र
√नागनाथ
√अहिपति
√फणी
√शेष
√गोनार्दीय
६. इनका स्थितिकाल ई०पू० १५० माना जाता है ।
७.रचनाये-
√महाभाष्य [ पाणिनीय सूत्रों व कात्यायन के वर्तिकों का भाष्य ]
√योगसूत्र
√चरक परिष्कार 
√महानंद काव्य
८. भाष्य लक्षण-
" सुत्रार्थो वर्ण्यते यत्र पदै:सूत्रानुसारिभि: ।
   स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदु: ।।
९. पाणिनीय व्याकरण के त्रिमुनियों में इनको सर्वोच्च स्थान प्राप्त है " यथोत्तरम् मुनीनां प्रमाण्यम™ उक्ति इनको पाणिनि व कात्यायन से अधिक प्रमाणिक घोषित करती है ।
१०. महाभाष्यं वा पठनीयं महाराज्यं वा पालनीयं इति।
भाषा सरला, सरसा प्रान्जला च ।अनुपमा हि तत्र संवाद शैली।

३.. भर्तृहरि
- इनको कुछ विद्वान्  अवन्ति नरेश विक्रमादित्य अनुज,कुछ कश्मीर निवासी,कुछ चुनार दुर्ग निवासी बताते है ।
- राजस्थान के अलवर जिले में आई सिलीसेढ़ झील के आस-पास का क्षेत्र इनकी तपस्थली मानी जाती है,यहाँ इनकी गुफा व मंदिर है ।
- कुछ विद्वान् इनको बौद्ध मतावलंबी मानते है ।
- बलदेव उपाध्याय इनका स्थितिकाल ४५० ईस्वी मानते है ।

- √रचनायें- 
√महाभाष्यदीपिका
            ● महाभाष्य की प्राचीनतम टीका
             ● वर्तमान ने तीन पाद ही उपलब्ध
√वाक्यपदीयं
           ● तीन कांडों में विभक्त
                      १.ब्रह्म (आगम)
                       २.वाक्य
                        ३. प्रकीर्ण
√वाक्यपदीय टीका
√भट्टिकाव्य
√भागवृत्ति
√शतकत्रय
√ मीमांसाभाष्य
√वेदांतसूत्रवृत्ति
√शब्दधातुसमीक्षा

४.जयादित्य-वामन(८००-५० ईस्वी)
- आप  दोनों विद्वानों ने अष्टाध्यायी का प्रमुख वृतिग्रंथ √काशिका लिखा ।
- आप का जन्मस्थान काशी माना जाता है तथा यही रचित होने के कारण आपका ग्रन्थ "काशिका" कहलाया
   √काशिका देशतो अभिधानं, काशीषु भवा 
- इसके प्रारम्भिक पांच भाग जयादित्य तथा अंतिम तीन वामन ने लिखे है ।

६. कैयट ( १०००-५० ईस्वी)
- आप कश्मीर निवासी थे, आप के पिता का नाम जैयट था ।
- आप के गुरु महेश्वेराचार्य थे ।
- आप ने महाभाष्य पर √प्रदीप नामक टीका लिखी है ।

७. धर्मकीर्ति ( १२००-५० ईस्वी )
- इतिहासकार वे.वरदाचार्य आप को श्रीलंका निवासी मानते है ।
- आपने √रूपावतार नामक प्रक्रिया ग्रन्थ लिखा ।

८. विमल सरस्वती (१३०० ईस्वी)
- आपने √रूपमाला नामक प्रक्रिया ग्रन्थ लिखा ।

९. रामचंद्र (१४०० ईस्वी)
- आप आंध्रप्रदेश के निवासी थे ।
- आप के पिता का नाम जनकाचार्य है ।
- आप ने √प्रक्रिया कौमुदी नामक दो भागों में विभक्त

*शनि जयंती 2020*

*शनि जयंती 2020*
सालों बाद बन रहा ये संयोग, 
जानें शुभ मुहूर्त और पूजा विधि..

*वरदान में मिला था शनि को नव ग्रहों में श्रेष्ठ स्थान*

22 मई, शुक्रवार को शनि जयंती मनाई जायेगी   अमावस्या तिथि पर शनि देव का जन्म हुआ था, इसलिए अमावास्या वाले दिन शनि जयंती मनाई जाती है। शनि का नाम सुनते ही लोग डर जाते हैं, लेकिन आप जानते हैं कि हिन्दू धर्म में शनि देव को न्याय का देवता माना जाता है और इस साल इनकी जयंती पर बेहद दुर्लभ संयोग बन रहा है, जिसका प्रभाव कोरोना काल में हम सभी की उथल-पुथल हो चुकी निजी ज़िंदगी और देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला है। आईये जानते है शनि जयंती से जुड़ी ख़ास बातें और सालों बाद बनने वाले इस दुर्लभ संयोग के बारे में- 

*ज्योतिष में शनि देव*
 
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनि देव एक न्यायाधीश की भूमिका निभाते हैं, जिनका न्याय निष्पक्ष होता है। ये व्यक्ति के अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा देते हैं। शनि देव मकर और कुंभ राशियों के स्वामी हैं। क्रूर कहे जाने वाले शनि देव का रंग काला है  ऐसा कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति शनि जयंती के दिन सच्चे मन से पूजा करता है, उसे शनि देव की कृपा बहुत जल्द प्राप्त होती है। नीचे पढ़ें शनि देव की पूजा की संपूर्ण विधि और उन्हें प्रसन्न करने के अचूक उपाय-

*2020 में कब है शनि जयंती?*

पूर्णिमांत पंचांग के अनुसार शनि जयंती वैशाख माह की अमावस्या तिथि को मनाई जाती है।
शनि जयंती तिथि – 22 मई 2020
अमावस्या तिथि आरंभ – 21:38 बजे  से (21 मई 2020)
अमावस्या तिथि समाप्त – 23:10 बजे तक,  (22 मई 2020)

*शनि जयंती पर बन रहा दुर्लभ संयोग*
 
शनि जयंती पर इस साल ग्रहों की विशेष स्थिति रहेगी, जिसके कारण सालों बाद बेहद दुर्लभ संयोग बन रहा है। इस बार शनि जयंती पर चार ग्रह एक ही राशि में स्थित होंगे और इस दिन शनि मकर जो कि उनकी स्वराशि है, उसमें बृहस्पति के साथ रहेंगे। ग्रहों की ऐसी स्थिति सालों पहले बनी थी, और माना जा रहा है कि अब ऐसा संयोग अगले कई सालों तक बनेगा भी नहीं। 

शनि जयंती पर सूर्य देव, चंद्र, बुध और शुक्र एक साथ वृषभ राशि में विराजमान रहेंगे। इन 4 ग्रहों के एक साथ उपस्थित होने से जन-जीवन और देश की अर्थव्यवस्था के ऊपर काफ़ी प्रभाव पड़ेगा। श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी (९८२४४१७०९०)
ज्योतिषाचार्य के अनुसार इस स्थिति के कारण देश में न्याय और धार्मिक गतिविधियों में बढ़ोतरी होगी। साथ ही देश की कानून व्यवस्था व व्यापारिक नीतियों में भी बदलाव होगा और प्राकृतिक आपदाओं और महामारी से राहत पाने की दिशा में हमारे प्रयासों की सराहना होगी। इस संयोग के कारण खेती को बढ़ावा मिलेगा और चीजों के उत्पादन की गति भी तेज़ हो जाएगी।

*शनि जयंती का महत्व*

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार वैशाख माह की अमावस्या तिथि पर शनि देव का जन्म हुआ था। 
वैदिक ज्योतिष में शनि देव को सेवा एवं कर्म के कारक और न्याय के देवता माने जाते हैं, इसीलिए शनि जयंती के दिन उनकी कृपा पाने के लिए विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन देशभर में प्रमुख शनि मंदिरों में भक्तों की भीड़ उमड़ती है, जहाँ वे शनि देव की पूजा करते हैं और शनि पीड़ा से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। शनि देव इंसान को उसके कर्मों के अनुसार ही फल देते हैं, यानि जो इंसान अच्छे कर्म करता है, उसे शनि के कोप का भागी नहीं बनना पड़ता है। हालाँकि देश में फैली महामारी को देखते हुए हम आपको यही सलाह देंगे कि सार्वजनिक जगहों पर जाने से बचें और पूजा-पाठ आदि जैसे सभी धार्मिक कार्य अपने घरों में रहते हुए करें।

*कैसे हुआ शनि देव का जन्म?*

शनि देव के जन्म को लेकर लोगों में अलग-अलग मान्‍यताएं हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार शनि महाराज, भगवान सूर्य और उनकी पत्नी छाया के पुत्र हैं। सूर्य देव का विवाह संज्ञा से हुआ था। विवाह के कुछ सालों तक संज्ञा उनके साथ ही रहीं, लेकिन सूर्य देव का तेज बहुत अधिक था, जिसे वो अधिक समय तक सहन नहीं कर पाईं। इसलिए संज्ञा ने अपनी छाया को सूर्य देव की सेवा में छोड़ दिया और खुद तपस्या करने चली गयी। कुछ समय बाद छाया ने शनि देव को जन्म दिया। 

*क्यों मिला नव ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ स्थान?*
धर्मग्रंथो के अनुसार जब शनि देव गर्भ में थे, तब उनकी माता छाया ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी। गर्भवती होने के चलते कठोर तपस्या का प्रभाव गर्भ में पल रहे शनि देव पर पड़ा और उनका रंग काला हो गया। शनि के काले रंग को देख सूर्य देव ने शनि को अपना पुत्र मानने से इंकार कर दिया। पिता के अपमान से नाराज़ शनि देव ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की। उनकी साधना से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें वरदान दिया और कहा कि आज से नवग्रहों में तुम्हारा स्थान सर्वश्रेष्ठ होगा। केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि देवता भी तुम्हारे नाम से भयभीत होंगे। 

*शनि जयंती के दिन ऐसे करें पूजा*

शनि जयंती के दिन विधि-विधान से शनिदेव की पूजा और व्रत किया जाता है। इस दिन दान-पूण्य एवं पूजा करने से शनि से संबंधित सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। चलिए जानते हैं शनि जयंती के दिन की जाने वाली विशेष पूजा के विषय में-

शनि जयंती के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करें। 
उसके बाद एक लकड़ी के पाट पर काला कपड़ा बिछाकर शनिदेव की मूर्ति या फोटो को स्थापित करें।  
शनिदेव की मूर्ति या फोटो को सरसों या तिल के तेल से स्नान कराए और उनकी पूजा करें।  
शनि देव को प्रसन्न करने के लिए हनुमान जी की भी पूजा करनी चाहिए। 
पूजा में शनि मंत्र “ *ॐ शनिश्चराय नम:* ” का उच्चारण ज़रूर करें।
इस दिन शनिदेव से संबंधित वस्तुओं जैसे कि काले कपड़े, जामुन, काली उड़द, काले जूते, तिल, लोहा, तेल, आदि का दान करें।  
शनि जयंती के दिन पूजा के बाद दिन भर उपवास रहें।
 
*शनि को प्रसन्न करने के अचूक उपाय*
 
शनि देव की पूजा के लिए सप्ताह में शनिवार का दिन निर्धारित किया गया है। हिन्दू धर्म में शनि देव को प्रसन्न करने के लिए लोग ढेरों उपाय आदि किये जाते हैं। चलिए बताते हैं आपको शनि देव को प्रसन्न करने के अचूक उपाय-

(१) काली गाय की सेवा करने से शनि का दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है। ऐसा हर रोज़ करने से शनिदेव की कृपा बनी रहती है। 
(२) जीवन को सुखमय बनाने के लिए सबसे पहली रोटी काली गाय को खिलाकर, उन्हें सिंदूर का तिलक लगाएँ। 
(३) शनि देव को प्रसन्न करने के लिए हर शनिवार को पीपल के वृक्ष की पूजा करें या पीपल के पेड़ पर जल या दूध चढ़ाएं। 
(४) पीपल के वृक्ष के नीचे सरसों के तेल का दिया जलाने से भी शनि की कृपा सदैव रहती है।
(५) हर रोज़ शनि की पूजा करने से और महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने से शनि देव के दुष्प्रभावों से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।
(६) शनि का आशीर्वाद पाने के लिए अपने भोजन में काला नमक और काली मिर्च का इस्तेमाल ज़रूर करें...
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी ९८२४४१७०९०...

मंगलवार, 19 मई 2020

*अमृत सिद्धि योग 2020 के वर्ष मे हो रहे है*

*अमृत सिद्धि योग 2020 के वर्ष मे हो रहे है*

 वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अमृत सिद्धि योग को अत्यंत शुभ योग माना गया है ।
 यह योग नक्षत्र एवं वार के संयोग से बनता है ।
 ऐसा कहा जाता है कि इस योग में किए गए सभी कार्य पूर्ण रूप से सफल होते हैं , 
एस योग में बनाये हुए यंत्र बहूत लाभ दायक होते है. 
इसलिए समस्त मांगलिक कार्य के शुभ मुहूर्त के लिए इस योग को प्राथमिकता दी जाती है ।
 श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी ९८२४४१७०९० ने बताया है की 2020 की वर्ष मे  अमृत सिद्धि योग  यह मूजब होते हे 
 मंगलवार , 19 मई 19:54:19 से 29:27:26 तक,
शनिवार , 23 मई 05:26:08 से 28:52:05 तक
 सोमवार , 25 मई 05:25:23 से 06:10:13तक,
 गुरुवार , 28 मई 05:24:25 से 07:27:21तक,
 रविवार , 31 मई 27:01:40 से 29:23:25 तक,
मंगलवार , 16 जून 05 :22 : 57 से 30:04:23 तक,
शनिवार , 20 जून 05:23:36 से 12:02:08 तक,
रविवार , 28 जून 08:46:28 से 29:26:09 तक, 
बुधवार , 01 जुलाई 26:34:41 से 29:27:15 तक, मंगलवार , 14 जुलाई 05:32:47 से 14:07:14 तक, 
रविवार , 26 जुलाई 05:39:17 से 12:37:37 तक, 
बुधवार , 29 जुलाई 08:33:35 से 29:41:31 तक, 
बुधवार , 26 अगस्त 05:56:15 से 13:04:33 तक, 
शुक्रवार , 04 सितंबर 23:28:01 से 30:01:17 तक, 
शुक्रवार , 02 अक्टूबर 06:14:47 से 32:50:53 तक,  शुक्रवार , 30 अक्टूबर 06:31:59 से 14:57:32 तक,
सोमवार , 28 दिसंबर 15:39:32 से 31:13:11 तक, 
गुरुवार , 31 दिसंबर 19:48:53 से 31:13:56 तक,  

                  *अमृत सिद्धि योगो*
1~हस्त नक्षत्र यदि रविवार के दिन हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है । 
2~ मृगशिरा नक्षत्र यदि सोमवार के दिन पड़े तो अमृत सिद्धि योग बनता है ।

3~अश्विनी नक्षत्र मंगलवार के दिन हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है । 
4~अनुराधा नक्षत्र बुधवार के दिन हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है ।
5~पुष्य नक्षत्र यदि गुरुवार के दिन हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है । 
6~रेवती नक्षत्र यदि शुक्रवार के दिन पड़े तो अमृत सिद्धि योग बनता है । 
7~शनिवार के दिन रोहिणी नक्षत्र हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है । 
8~रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र हो तो भी अमृत सिद्धि योग बनता है  । 
आज मंगलवार ओर अश्विनी नक्षत्र हे तो  देवी अथर्वसीर्ष पाठ करना चाहीये... श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंडयाजी ९८२४४१७०९०...


शनिवार, 16 मई 2020

*जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है..?*

*जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है..?*

जप के अनेक प्रकार हैं। उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 

1. नित्य जप
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प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 

2. नैमित्तिक जप
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किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है। 
 
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 

3. काम्य जप
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किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।

इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 

4. निषिद्ध जप
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मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है। 

5. प्रायश्चित जप
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अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।

मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।

6. अचल जप
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यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।

अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 

7. चल जप
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यह जप नाम स्मरण जैसा है। प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।

जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो। 

8. वा‍चिक जप
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जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्‍छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।

सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है। 

9. उपांशु जप
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वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है। 

10. भ्रमर जप
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भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है। 

इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है। 

'योगतारावली' में भगवान श्री शंकराचार्य कहते हैं कि भगवान श्री शंकर ने मनोलय के सवा लाख उपाय बताए। उनमें नादानुसंधान को सबसे श्रेष्ठ बताया। उस अनाहत संगीत को श्रवण करने का प्रयत्न करने से पूर्व भ्रमर-जप सध जाए तो आगे का मार्ग बहुत ही सुगम हो जाता है। चित्त को तुरंत एकाग्र करने का इससे श्रेष्ठ उपाय और कोई नहीं है। इस जप से साधक को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है और उसके द्वारा वह स्वप‍रहित साधन कर सकता है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों में काम देता है। शांत समय में यह जप करना चाहिए। इस जप से यौगिक तन्द्रा बढ़ती जाती है और फिर उससे योगनिद्रा आती है। इस जप के सिद्ध होने से आंतरिक तेज बहुत बढ़ जाता है और दिव्य दर्शन होने लगते हैं, दिव्य जगत प्रत्यक्ष होने लगता है, इष्टदर्शन होते हैं, दृष्टांत होते हैं और तप का तेज प्राप्त होता है। कवि कुलतिलक कालिदास ने जो कहा है- 

शमप्रधानेषु तपोधनेषु
गूढं हि दहात्मकमस्ति तेज:।

बहुत ही ठीक है- 'शमप्रधान त‍पस्वियों में (शत्रुओं को) जलाने वाला तेज छिपा हुआ रहता है।' 

11. मानस जप 
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यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्‍य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्‍छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'

(प्रबोधसुधाकर 144-148) 'योगतारावली' में श्रीमदाद्य शंकराचार्य ने इसका वर्णन किया है। श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने 'ज्ञानेश्वरी' में इस साधन की बात कही है। अनेक संत-महात्मा इस साधन के द्वारा परम पद को प्राप्त हो गए। यह ऐसा साधन है कि अल्पायास से निजानंद प्राप्त होता है। नाद में बड़ी विचित्र शक्ति है। बाहर का सुमधुर संगीत सुनने से जो आनंद होता है, उसका अनुभव तो सभी को है, पर भीतर के इस संगीत का माधुर्य और आनंद ऐसा है कि तुरंत मनोलय होकर प्राणजय और वासनाक्षय होता है। 

इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुत:।
मारुतस्य लयो नाथ: स लयो नादमाश्रित:।।

(ह.प्र.) 

'श्रोत्रादि इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी प्राणवायु है। प्राणवायु का स्वामी मनोलय है और मनोलय नाद के आसरे होता है।' 

सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है। 

12. अखंड जप 
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यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है- 

जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।

'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'

'तज्जपस्तदर्थभावनम्' इस योगसूत्र के अनुसार मंत्रार्थ का विचार करके उस भावना के साथ मंत्रावृत्ति करें। तब जप बंद करके स्वरूपवाचक 'अजो नित्य:' इत्यादि शब्दों का विचार करते हुए स्वरूप ध्यान करें। तब ध्यान बंद करके तत्वचिंतन करें। आत्मविचार में ज्ञानविषयक ग्रंथावलोकन भी आ ही जाता है। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, शांकरभाष्य, श्रीमदाचार्य के स्वतंत्र ग्रंथ, अद्वैतसिद्धि, स्वाराज्यसिद्धि, नैष्कर्म्यसिद्धि, खंडन-खंडखाद्य, अष्टावक्र गीता, अवधूत गीता, योवासिष्ट आदि ग्रंथों का अवलोकन अवश्य करें। जो संस्कृत नहीं जानते, वे भाषा में ही इनके अनुवाद पढ़ें अथवा अपनी भाषा में संत-महात्माओं के जो तात्विक ग्रंथ हों, उन्हें देखें। आत्मानंद के साधनस्वरूप जो दो संपत्तियां हैं, उनके विषय में कहा गया है- 

अत्यन्ताभावसम्पत्तौ ज्ञातुर्ज्ञेयस्य वस्तुन:।
युक्तया शास्त्रैर्यतन्ते ये ते तन्त्राभ्यासिन: स्थिता:।।

(यो.वा.) 

'ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिथ्‍या हैं। ऐसी स्थिर बुद्धि का स्थिर होना अभाव संपत्ति कहाता है और ज्ञाता और ज्ञेय रूप से भी उनकी प्रतीति का न होना अत्यंत अभाव संपत्ति कहाता है। इस प्रकार की संपत्ति के लिए जो लोग युक्ति और शास्त्र के द्वारा यत्नवान होते हैं, वे ही मनोनाश आदि के सच्चे अभ्यासी होते हैं।'

ये अभ्यास तीन प्रकार के होते हैं- ब्रह्माभ्यास, बोधाभ्यास और ज्ञानाभ्यास।

दृश्यासम्भवबोधेन रागद्वेषादि तानवे।
रतिर्नवोदिता यासौ ब्रह्माभ्यास: स उच्यते।।

(यो.वा.) 

दृश्य पदार्थों के असंभव होने के बोध से रागद्वेष क्षीण होते हैं, तब जो नवीन रति होती है, उसे ब्रह्माभ्यास कहते हैं। 

सर्गादावेव नोत्पन्नं दृश्यं नास्त्येव तत्सदा।
इदं जगदहं चेति बोधाभ्यासं विदु: परम्।।

(यो.वा.)

सृष्टि के आदि में यह जगत उत्पन्न ही नहीं हुआ। इसलिए वह यह जगत और अहं (मैं) हैं ही नहीं, ऐसा जो बोध होता है, उसे ज्ञाता लोग बोधाभ्यास कहते हैं। 

तच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्वबोधनम्।
एतदेकपरत्वं च ज्ञानाभ्यासं विदुर्बुधा:।।

(यो.वा.) 

उसी तत्व का चिंतन करना, उसी का कथन करना, परस्पर उसी का बोध करना और उसी के परायण होकर रहना, इसको बुधजन ज्ञानाभ्यास के नाम से जानते हैं।

अभ्यास अर्थात आत्मचिंतन का यह सामान्य स्वरूप है। ये तीनों उपाय अर्थात जप, ध्यान और तत्वचिंतन सतत करना ही अखंड जप है। सतत 12 वर्षपर्यंत ऐसा जप हो, तब उसे तप कहते हैं। इससे महासिद्धि प्राप्त होती है। गोस्वामी तुलसीदास, समर्थ गुरु रामदास आदि अनेक संतों ने ऐसा तप किया था। 

13. अजपा जप 
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यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्‍या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते हैं- 

राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम। 

14. प्रदक्षिणा जप
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इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल-वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है- मनोरथ पूर्ण होता है। 

यहां तक मंत्र जप के कुछ प्रकार, विस्तार भय से संक्षेप में ही निवेदन किए। अब यह देखें कि जपयोग कैसा है- योग से इसका कैसा साम्य है। योग के यम-नियमादि 8 अंग होते हैं। ये आठों अंग जप में आ जाते हैं। 

(1) यम👉 यह बाह्येन्द्रियों का निग्रह अर्थात 'दम' है। आसन पर बैठना, दृष्टि को स्थिर करना यह सब यम ही है। 

(2) नियम👉 यह अंतरिन्द्रियों का निग्रह अर्थात् 'शम्' है। मन को एकाग्र करना इत्यादि से इसका साधन इसमें होता है। 

(3) स्थिरता👉 से सुखपूर्वक विशिष्ट रीति से बैठने को आसन कहते हैं। जप में पद्मासन आदि लगाना ही पड़ता है।

(4) प्राणायाम👉 विशिष्ट रीति से श्वासोच्छवास की क्रिया करना प्राणायाम है। जप में यह करना ही पड़ता है। 

(5) प्रत्याहार👉 शब्दादि विषयों की ओर मन जाता है, वहां से उसे लौटकर अंतरमुख करना प्रत्याहार है, सो इसमें करना पड़ता है। 

(6) धारणा👉 एक ही स्थान में दृष्टि को स्थिर करना जप में आवश्यक है। 

(7) ध्यान👉 ध्येय पर चित्त की एकाग्रता जप में होनी ही चाहिए। 

(8) समाधि👉 ध्येय के साथ तदाकारता जप में आवश्यक ही है। तात्पर्य, अष्टांग योग जप में आ जाता है, इसीलिए इसे जपयोग कहते हैं। कर्म, उपासना, ज्ञान और योग के मुख्य-मुख्य अंग जपयोग में हैं इसलिए यह मुख्य साधन है। यह योग सदा सर्वदा सर्वत्र सबके लिए है। इस समय तो इससे बढ़कर कोई साधन ही नहीं। 

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रविवार, 10 मई 2020

માતૃદિવસે

મીઠા મધુ ને મીઠા મેહુલા રે લોલ
એથી મીઠી તે મોરી માત રે
જનનીની જોડ સખી! નહી જડે રે લોલ.

પ્રભુના એ પ્રેમતણી પૂતળી રે લોલ,
જગથી જૂદેરી એની જાત રે … જનનીની

અમીની ભરેલ એની આંખડી રે લોલ,
વ્હાલનાં ભરેલાં એના વેણ રે … જનનીની

હાથ ગૂંથેલ એના હીરના રે લોલ,
હૈયું હેમંત કેરી હેલ રે … જનનીની

દેવોને દૂધ એનાં દોહ્યલા રે લોલ,
શશીએ સિંચેલ એની સોડ્ય રે … જનનીની

જગનો આધાર એની આંગળી રે લોલ,
કાળજામાં કૈંક ભર્યા કોડ રે … જનનીની

ચિત્તડું ચડેલ એનું ચાકડે રે લોલ,
પળના બાંધેલ એના પ્રાણ રે … જનનીની

મૂંગી આશિષ ઉરે મલકતી રે લોલ,
લેતા ખૂટે ન એની લહાણ રે … જનનીની

ધરતી માતા એ હશે ધ્રૂજતી રે લોલ,
અચળા અચૂક એક માય રે … જનનીની

ગંગાનાં નીર તો વધે ઘટે રે લોલ,
સરખો એ પ્રેમનો પ્રવાહ રે … જનનીની

વરસે ઘડીક વ્યોમવાદળી રે લોલ,
માડીનો મેઘ બારે માસ રે … જનનીની

ચળતી ચંદાની દીસે ચાંદની રે લોલ,
એનો નહિ આથમે ઉજાસ રે
જનનીની જોડ સખી! નહી જડે રે લોલ.