मंगलवार, 24 अक्टूबर 2023

देवी अपराजिता और दशहरा*

*देवी अपराजिता और दशहरा*
दशहरा शक्ति पूजन का दिन है, प्राचीन शास्त्रीयपरंपरा के अनुरूप आज तक क्षत्रिय-क्षत्रपों के यहां शक्ति के पूजन के रूप में अस्त्र-शस्त्रोंका अर्चन-पूजन होता है। सभी कार्यों में सिद्धिप्रदान करने वाला दशहरा पर्व है, जो सभी मनोवांछित फल प्रदान करता है।

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में दशमी तिथि को 'विजया' कहते हैं, जो सभी कार्यों में सिद्धि प्रदान करती है। अत: इस दिन शुरू किया गया कोई भी कार्य निश्चित ही सिद्धि को प्रदान करने वाला है। सांसारिक परेशानियां दूर करने के लिए इस दिन किए गए प्रयोग कभी असफल नहीं होते, न किसी तरह की हानि होती है।

विजय दशमी पर यात्रा अत्यंत श्रेयस्कर होती है। छोटी ही सही लेक‌‌िन इस द‌िन यात्रा अवश्यकरें। शमी पेड़ का पूजन कर उसके पत्ते त‌िजोरी में रखने से कभी धन की कमी नहीं होती।

 दशहरे के द‌िन घट स्थापना वाला कलश कुछ समय के लिए स‌िर पर रखने से भगवती देवी का आशीष प्राप्त होता है। 

 वैभव, संपन्नता और सौभाग्य के ल‌िए स्वच्छ कपड़े को पानी में भ‌िगोकर अच्छे से निचोड़ कर मां के चरण पोछें फिर उस वस्त्र को अपने घर अथवादुकान की त‌िजोरी में रखें।

धन का अभाव सदा के लिए समाप्त करने के लिए दस वर्ष से छोटी उम्र की कन्या को उसकी प्रिय वस्तु भेंट करें। फिर उसके हाथ से कुछ पैसे अथवा रूपए घर अथवा दुकान की त‌िजोरी में रखवाएं। 

 मंदिर जाकर मां दुर्गा के चरणों में लगे सिंदूर का टीका करें, सुहागन महिलाएं अपनी मांगभी भरें। चुटकी भर स‌िंदूर घर लाकर रखें वैभव, सम्पन्नता और समृद्ध‌ि बनी रहती है।

माना जाता है की नीलकंठ पक्षी का दर्शन दशहरे के द‌िन होने से पूरा साल खुशियां और तरक्की अंग-संग रहती हैं।

रावण दाह के उपरांत जली हुई लकड़ी के टुकड़े को घर लाकर सहज कर रखें, इससे ऊपरी बाधाएं, चोरी की संभावना और नजर दोष से बचाव होता है।

देवी अपराजिता और दशहरा

अपराजिता का अर्थ है जो कभी पराजित नहीं होता। देवी अपराजिता के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य भी जानने योग्य हैं जैसे कि उनकी मूल प्रकृति क्या है ?

देवी अपराजिता के पूजनारम्भ तब से हुआ जब देवासुर संग्राम के दौरान नवदुर्गाओं ने जब दानवों के संपूर्ण वंश का नाश कर दिया तब माँ दुर्गा अपनी मूल पीठ शक्तियों में से अपनी आदि शक्ति अपराजिता को पूजने के लिए शमी की घास लेकर हिमालय में अन्तरध्यान हुईं।

 क्रमशः बाद में आर्यावर्त के राजाओं ने विजय पर्व के रूप में विजय दशमी की स्थापना की। जो कि नवरात्रों के बाद प्रचलन में आई। स्मरण रहे कि उस वक्त की विजय दशमी मूलतः देवताओं द्वारा दानवों पर विजय प्राप्त के उपलक्ष्य में थी। स्वभाविक रूप से नवरात्र के दशवें दिन ही विजय दशमी मनाने की परंपरा चली। इसके पश्चात पुनः जब त्रेता युग में रावण के अत्याचारों से पृथ्वी एवं देव-दानव सभी त्रस्त हुए तो पुनः पुरुषोत्तम राम द्वारा दशहरे के दिन रावण का अंत किया गया जो एक बार पुनः विजयादशमी के रूप सामने आया और इसके साथ ही एक सोपान और जुड़ गया दशमी के साथ।

अगर यह कहा जाये कि विजय दशमी और देवी अपराजिता का सम्बन्ध बहुत हद तक क्षत्रिय राजाओं के साथ ज्यादा गहरा और अनुकूल है तो संभवतः कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी किन्तु इसे किसी पूर्वधारणा की तरह नहीं स्वीकार करना चाहिए कि अपराजिता क्षत्रियों की देवी हैं और अन्य वर्ण के लोग इनकी साधना-आराधना नहीं कर सकते ।बहुत से स्थलों में देवी अपराजिता के सम्बन्ध में विभिन्न कथाएं और विधियां मिल जाती हैं लेकिन उनमे मूल भेद बहुत परिलक्षित होते हैं 

अस्तु उनका साधन करने से पूर्व किसी जानकार व्यक्ति से सलाह अवश्य ही कर लेनी चाहिए जिससे अशुद्धिओं और गलतियों से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सके हालाँकि शत प्रतिशत शुद्धता ला पाना सर्वसाधारण के वश की बात नहीं हैं किन्तु अल्प अशुद्धियाँ सफलता के मापदंडों को बढ़ा ही देती हैं साथ ही भावयुक्त साधना भी अशुद्धिओं को तिरस्कृत कर देती है जिससे अधिक अच्छे परिणाम मिल ही जाते हैं -!देवी अपराजिताशक्ति की नौ पीठ शक्तियों में से एक हैं जिनका क्रम निम्नप्रकार है एवं जया और विजया से सम्बंधित बहुत सी कथाएं भीप्रचलित हैं जो देवी पार्वती की बहुत ही अभिन्न सखियों के रूप में जानी जाती हैं - शक्ति की बहुत ही संहारकारी शक्ति है अपराजिता जो कभी अपराजित नहीं हो सकती और ना ही अपने साधकों को कभी पराजय का मुख देखने देती है - विषम परिस्थिति में जब सभी रास्ते बंद हों उस स्थिति में भी हंसी-खेल में अपने साधक को बचा ले जाना बहुत मामूली बात है महामाया अपराजिता के लिए।

अपराजिता की साधना के सम्बन्ध में" धर्मसिन्धु "जो वर्णनहै वह निम्न प्रकार है :-धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है‌ :-"अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए उसके पश्चात संकल्प करना चहिए :"मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"

राजा के लिए विहित संकल्प अग्र प्रकार है :" मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और 'साथ ही क्रियाशक्तिको नमस्कार' एवं 'उमा को नमस्कार' कहना चाहिए।इसके उपरांत :"अपराजितायै नम:,जयायै नम:,विजयायै नम:, मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए, 'हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को गमन करें जिससेकि मैं अगली बार पुनः आपका आवाहन और पूजन वंदन कर सकूँ "

राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है।राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए :"वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छारखती है, मुझे विजय दे"इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करनाचाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए।शमी की पूजा के पूर्व या या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। 

कुछ लोगों के मत से विजयादशमी के अवसर पर रामऔर सीता की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसी दिन राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजाका विस्तार से वर्णन हेमाद्रि तिथितत्त्व में वर्णित है। 

निर्णय सिंधु एवं धर्मसिंधु में शमी पूजन के कुछ विस्तार मिलते हैं।यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए।

अस्तु मेरे अपने हिसाब से देवी अपराजिता का पूजन शक्ति क्रम में ही किया जाना चाहिए ठीक जैसे अन्य शक्ति साधनाएं संपन्न की जाती हैं -!प्रथम गुरु पूजन ,द्वितीय गणपति पूजन ,भैरव पूजन , देवी पूजनअपनी सुविधानुसार पंचोपचार,षोडशोपचार इत्यादि से पूजन संपन्न करें मन्त्र जप - स्तोत्र जप आदि संपन्न करें और अंत में होम विधि संपन्न करें।

मंत्रों के सम्बन्ध में बहुधा भ्रम की स्थिति रहती है क्योंकि यदि आपने थोड़ा सा भी अध्ययन और खोज आदि पूर्व में की हैं तो उस स्थिति में बहुत से मंत्र ऐसे होते हैं जो आपकी जानकारी से बाहर के होते हैं।

 अर्थात कई बार उनके बीज भिन्न हो सकते हैं और कई बार मंत्र विन्यास भिन्न हो सकता है तो इस दशा में सीमित ज्ञान आपको भ्रमित कर देता है - अस्तु सभी मित्रों को मेरी एक ही सलाह है कि शक्ति मंत्रों में यदि "ह्रीं,क्लीं,क्रीं, ऐं,श्रीँ आदि आते हैं तो उन मंत्रों को भेदात्मक दृष्टि से ना देखें क्योंकि एक परम आद्या शक्ति के तीन भेद भक्तों के हितार्थ बने जिन्हे त्रिशक्ति के नाम से भी जाना जाता है ( महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती) अन्य शक्ति भेद अथवा क्रम इन्ही तीन मूलों से निःसृत हैं अस्तु समस्त मन्त्र आदि इन्ही कुछ मूल बीजों के आस-पास घूमते हैं इसके अतिरिक्त इस बात पर मंत्र विन्यास निर्भर करता है कि जिस भी मंत्र वेत्ता ने उस मंत्र का निर्माण किया होगा उस समयवास्तव में उनका दृष्टिकोण और आवश्यकता क्या रही होगी ?

हालंकि यह सब बातें तो बहुत दूर की और लम्बी सोच की हैं। ज्यादा ना भटकते हुए बस इतना ही कहूँगा कि यदि कभी भी मंत्रों का संसार समझ में ना आये तो सबसे आसान उपाय है कि उस देवता या देवी के गायत्री मंत्र का प्रयोग करें।

"ॐ सर्वविजयेश्वरी विद्महे महाशक्तयै धीमहि तन्नो: अपराजितायै प्रचोदयात"

अपनी सामर्थ्यानुसार उपरोक्त गायत्री का जप करें और देवी अपराजिता का वरदहस्त प्राप्त करें - देवी आपको सदा अजेय और संपन्न रखें यही मेरी कामना है।

।।अथ श्री अपराजिता स्तोत्र।।
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ॐ नमोऽपराजितायै ।।

ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव-बृहस्पति-मार्केण्डेया ऋषयः ।गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि ।श्री लक्ष्मीनृसिंहो देवता ।ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् ।हुं शक्तिः ।सकलकामनासिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः ।।

ध्यान:
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ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजङ्गाभरणान्विताम् ।।शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ।।१।।

शङ्खचक्रधरां देवी वैष्ण्वीमपराजिताम् ।।बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीम् ।।२।।

नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः ।।३।।

मार्ककण्डेय उवाच :शृणुष्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम् ।।असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम् ।।४।।

ॐ नमो नारायणाय,नमो भगवते वासुदेवाय,नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षायणे,क्षीरोदार्णवशायिने,शेषभोगपर्य्यङ्काय,गरुडवाहनाय,अमोघायअजायअजितायपीतवाससे ।।

ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रिव, मत्स्य कूर्म्म, वाराह नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम ।वरद, वरद, वरदो भव, नमोऽस्तु ते, नमोऽस्तुते, स्वाहा ।।

ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत -पिशाच-कूष्माण्ड-सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान् उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांश्चान्या हन हन पच पच मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय विद्रावय विद्रावय चूर्णय चूर्णय शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरुकुरु स्वाहा ।।

ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषीकेश, केशव,सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर, सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन,सर्वयन्त्रप्रभञ्जन, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर, सर्वबन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोऽस्तुते स्वाहा ।।विष्णोरियमनुप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा ।।सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी ।।५।।

सर्वैंश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा ।।नानया सदृशं किङ्चिद्दुष्टानां नाशनं परम् ।।६।।

विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता ।।पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात्सत्त्वगुणाश्रया ।।७।।

ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।।प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ।।८।।

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजिताम् ।।
या शक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता ।।९।।

सर्वसत्त्वमयी साक्षात्सर्वमन्त्रमयी च या ।।या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।।सर्वकामदुधा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते ।।१०।।

य इमामपराजितां परमवैष्णवीमप्रतिहतां पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां जपति पठति शृणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं, न समुद्रभयं, न ग्रहभयं, न चौरभयं, न शत्रुभयं, न शापभयं वा भवेत् ।।क्वचिद्रात्र्यन्धकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि-विषगरगरदवशीकरण-विद्वेष्णोच्चाटनवधबन्धनभयं वा न भवेत्।।एतैर्मन्त्रैरुदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः ।।।। ॐ नमोऽस्तुते ।।

अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठति, सिद्धे जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि, सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुन्धति, गायत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति, धरणि, धारणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते, गौरि, गान्धारि, मातङ्गी कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि, ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे, सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतं अन्तरिक्षगतं वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा ।।यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।।म्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् ।।११।।

धारयेद्या इमां विद्यामेतैर्दोषैर्न लिप्यते ।।गर्भिणी जीववत्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशयः ।।१२।।

भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः ।।एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् ।।१३।।

रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।।शस्त्रं वारयते ह्योषा समरे काण्डदारुणे ।।१४।।

गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम् ।।शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् ।।१५।।

इत्येषा कथिता विध्या अभयाख्याऽपराजिता ।।
एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते ।।१६।।

नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः ।।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः ।।१७।।

यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः ।।
अग्नेर्भयं न वाताच्व न स्मुद्रान्न वै विषात् ।।१८।।

कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।।उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ।।१९।।

न किञ्चित्प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।।पठेद् वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ।।२०।।

हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान् ।।हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद्देवीं चतुर्भुजाम् ।।२१।।

रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसमप्रभाम् ।।पाशाङ्कुशाभयवरैरलङ्कृतसुविग्रहाम् ।।२२।।

साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं मन्त्रवर्णामृतान्यपि ।।
नातः परतरं किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमम् ।।२३।।

रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।प्रातः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणैरपि ।।तदिदं वाचनीयं स्यात्तत्प्रीत्या प्रीयते तु माम् ।।२४।।

ॐ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलाम् ।।सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीम् ।।२५।।

दारिद्र्यदुःखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम् ।।भूतप्रेतपिशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ।।२६।।

डाकिनी शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम् ।।महारौद्रिं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीम् ।।२७।।

गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः ।।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ।।२८।।

एकान्हिकं द्व्यन्हिकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकम् ।।द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्मासिकम् ।।२९।।

पाञ्चमासिकं षाङ्मासिकं वातिक पैत्तिकज्वरम् ।।श्लैष्पिकं सात्रिपातिकं तथैव सततज्वरम् ।।३०।।

मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरम् ।द्व्यहिन्कं त्र्यह्निकं चैव ज्वरमेकाह्निकं तथा ।।क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणादपराजिता ।।३१।।

ॐ हॄं हन हन, कालि शर शर, गौरि धम्, धम्, विद्ये आले ताले माले गन्धे बन्धे पच पच विद्ये नाशय नाशय पापं हर हर संहारय वा दुःखस्वप्नविनाशिनि कमलस्तिथते विनायकमातः रजनि सन्ध्ये, दुन्दुभिनादे, मानसवेगे, शङ्खिनि, चाक्रिणि गदिनि वज्रिणि शूलिनि अपमृत्युविनाशिनि विश्वेश्वरि द्रविडि द्राविडि द्रविणि द्राविणि केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनि दुर्म्मददमनि ।।शबरि किराति मातङ्गि ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।।ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान् सर्वान् दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रह्माणि वैष्णवि माहेश्वरि कौमारि वाराहि नारसिंहि ऐन्द्रि चामुन्डे महालक्ष्मि वैनायिकि औपेन्द्रि आग्नेयि चण्डि नैरृति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊर्ध्वमधोरक्ष प्रचण्डविद्ये इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।।ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति स्वस्ति-तुष्टि पुष्टि-विवर्द्धिनि ।कामाङ्कुशे कामदुधे सर्वकामवरप्रदे ।।सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा ।आकर्षणि आवेशनि-, ज्वालामालिनि-, रमणि रामणि, धरणि धारिणि,तपनि तापिनि, मदनि मादिनि, शोषणि सम्मोहिनि ।।नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।।महाचान्द्रि महासौरि महामायूरि आदित्यरश्मि जाह्नवि ।।यमघण्टे किणि किणि चिन्तामणि ।।सुगन्धे सुरभे सुरासुरोत्पन्ने सर्वकामदुघे ।।यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्ध्यतु स्वाहा ।।ॐ स्वाहा ।।ॐ भूः स्वाहा ।।ॐ भुवः स्वाहा ।।ॐ स्वः स्वहा ।।ॐ महः स्वहा ।।ॐ जनः स्वहा ।।ॐ तपः स्वाहा ।।ॐ सत्यं स्वाहा ।।ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।।यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु स्वाहेत्योम् ।।अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता ।।३२।।

स्वयं विष्णुप्रणीता च सिद्धेयं पाठतः सदा ।।
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजिता ।।३३।।

नानया सद्रशी रक्षा. त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।तमोगुणमयी साक्षद्रौद्री शक्तिरियं मता ।।३४।।

कृतान्तोऽपि यतो भीतः पादमूले व्यवस्थितः ।।मूलधारे न्यसेदेतां रात्रावेनं च संस्मरेत् ।।३५।।

नीलजीमूतसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ।।उद्यदादित्यसङ्काशां नेत्रत्रयविराजिताम् ।।३६।।

शक्तिं त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च विभ्रतीम् ।।व्याघ्रचर्मपरीधानां किङ्किणीजालमण्डिताम् ।।३७।।

धावन्तीं गगनस्यान्तः तादुकाहितपादकाम् ।।दंष्ट्राकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषिताम् ।।३८।।

व्यात्तवक्त्रां ललज्जिह्वां भृकुटीकुटिलालकाम् ।।स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रतः ।।३९।।

सप्तधातून् शोषयन्तीं क्रुरदृष्टया विलोकनात् ।।
त्रिशूलेन च तज्जिह्वां कीलयनतीं मुहुर्मुहः ।।४०।।

पाशेन बद्ध्वा तं साधमानवन्तीं तदन्तिके ।।अर्द्धरात्रस्य समये देवीं धायेन्महाबलाम् ।।४१।।

यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मन्त्रं निशान्तके ।।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापि योगिनी ।।४२।।

ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति ।।अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्ण्वीम् ।।४३।।

श्रीमदपराजिताविद्यां ध्यायेत् ।।दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमित्ते तथैव च ।।
व्यवहारे भेवेत्सिद्धिः पठेद्विघ्नोपशान्तये ।।४४।।

यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्वऽक्षरहीनमीडितम् ।।तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायताम् ।।४५।।

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशासि महेश्वरि ।।
यादृशासि महादेवी तादृशायै नमो नमः ।।४६।।

इस स्तोत्र का विधिवत पाठ करने से सब प्रकार के रोग तथा सब प्रकार के शत्रु और बन्ध्या दोष नष्ट हो जाते हैं ।विशेष रूप से मुकदमादि में सफलता और राजकीय कार्यों में अपराजित रहने के लिये यह पाठ रामबाण है।
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर गुजरात
पंड्याजी संपर्क सुत्र +९१९८२४४१७०९०

शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

चंद्र ग्रहण और काल अवधि

चंद्र ग्रहण और काल अवधि 
खण्डग्रास चन्द्र ग्रहण
चन्द्र ग्रहण प्रारम्भ - ०१:०६ amमध्य रात्रि 
चन्द्र ग्रहण समाप्त - ०२:२२ amमध्य रात्रि 
चन्द्र ग्रहण प्रारम्भ स्पर्श - ११:३२ pm  २८/१०/२०२३
प्रच्छाया से पहला स्पर्श - ०१:०६ am २९/१०/२०२३
परमग्रास चन्द्र ग्रहण - ०१:४४am मध्य रात्री २९/१०/२०२३
प्रच्छाया से अन्तिम स्पर्श - ०२:२२ am २९/१०/२०२३
चन्द्र ग्रहण मोक्ष काल  - ०३:५६ am प्रातः  २९/१०/२०२३
खण्डग्रास की अवधि - ०१घण्टा १६ मिनट्स १६ सेकण्ड्स
सूतक  प्रारम्भ - ०२:३२pm  २८/१०/२०२३
सूतक  समाप्त - ०३:५६ am  २९/१०/२०२३
बच्चों, बृद्धों और अस्वस्थ लोगों के लिये सूतक प्रारम्भ - ०८:३२  pm  २८/१०/२०२३
बच्चों, बृद्धों और अस्वस्थ लोगों के लिये सूतक समाप्त - ०३:५६ am  २९/१०/२०२३
निम्नलिखित राशियों पर प्रभाव अशुभ - 
मेष(अ-ल-ई),
वृषभ (ब- व-उ),
कन्या (प-ठ-ण), 
मकर(ख-ज),
निम्नलिखित राशियों पर प्रभाव शुभ -
मिथुन (क-छ-घ ),
कर्क (ह-ड),
वृश्चिक (न-य), 
कुंभ(ग-श-स-ष),
निम्नलिखित राशियों पर प्रभाव सामान्य- 
सिंह(म-ट),
तुला (र-त),
धनु(भ-ध-फ-ढ),
मीन(द-च-झ-थ),
ग्रहण नियम
१ . ग्रहण से पहले और बाद में स्नान अवश करें।
२ . ग्रहण वेध  से पहले भोजन करना चाहिए।
३. ग्रहण समाप्त होने के बाद ताजा भोजन खाएं।
४ . ग्रहण के दौरान चन्द्रमा को ना देखने।
५. ग्रहण के दौरान घर से बाहर ना निकलें. खासकर गर्भवती स्त्री को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए.
६ . ग्रहण के दौरान ध्यान जाप करें।
७ .सूतककाल शुरू होने से पहले खाने-पीने की चीजों में मंदिर में, रसोय घर में, पानी की टंकी में, कुश(दर्भ) डाल दें।
८ . ग्रहण के दौरान अधिक से अधिक मंत्रों का जाप और देवी - देवताओं का स्मरण करें।
९ . ग्रहण के दौरान सोना भी नहीं चाहिए।
१० . ग्रहण समाप्त होने के बाद स्नान अवश्य करें।
११ . ग्रहण के दुसरे दिन यथा शक्ति दान करे।
१२ . ग्रहण के दुसरे दिन पज्ञोपवित (जनेऊ) धारण किये हुए यंत्र (ताविज) का धागा बदल देना चाहिए।
ग्रहण काल में करें इन मंत्रों का जाप।
अपने गुरु से जो मंत्र लिया हो उस मंत्र का जाप करे।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं ॐ स्वाहा:।
इस मंत्र के जाप से धन की देवी माता लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।ॐ ह्लीं दुं दुर्गाय: नम:।
इस मंत्र के जाप से वाक सिद्धि प्राप्त होती है। 
ॐ नमः शिवाय। या महा मृत्युंजय मन्त्र।
इस मंत्र के जाप से शुभ आरोग्य प्राप्त होता है।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद - प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नम:।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, नौकरी और व्यापार में वृद्धि के लिए इस मंत्र का उच्चारण करें। 
इसके साथ ही मानसिक शांति के लिए निम्नलिखित मंत्रों का जाप करें। 
ॐ श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्रमसे नमः l
ॐ सों सोमाय नमः l
ॐ चं चंद्रमस्यै नम: l
ॐ ऐं क्लीं सौमाय नम: l
चंद्र ग्रहण के समय करें ये विशेष उपाय कोई अगर अपने घर पर मंत्र जाप करते हैं तो एक गुना फायदा होता है, किसी मंदिर में करते हैं तो दश गुना, किसी तीर्थ स्थान या नदी किनारे तो सो गुना और अगर कोई ग्रहण काल में मंत्र जाप करते हैं तो उसका हजार गुना फल मिलता है.
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर गुजरात संपर्क सुत्र +९१९८२४४१७०९०।।।।

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023

॥ अथ वपनम् ॥

                         ॥ अथ वपनम् ॥
सर्वान् केशान्समुद्धृत्य छेदयेद् अंगुलद्वयम्। एवमेव तु नारीणां मुंडनं शिरसः स्मृतम्॥
न स्त्रिया वपनं कार्यं न च वीरासनं स्मृतम्। न च गोष्ठे निवासोऽस्ति न गच्छन्तीं अनुव्रजेत्॥
राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वा बहुश्रुतः। अकृत्वा वपनं तेषां प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत्॥ 
केशानां रक्षणार्थाय द्विगुणं व्रतमादिशेत्। द्विगुणे तु व्रते चीर्णे द्विगुणा व्रतदक्षिणा॥ (नारद.पू. १४/५०-५४)
राजा वा राजपुत्रो वा तथैव च बहुश्रुतः॥ केशानां वपनं कार्यं प्रायश्चित्तं समाचरेत्॥ केशानां रक्षणार्थाय द्विगुणं व्रतमाचरेत्॥ जपहोमैस्तथा दानैः प्रकुर्याद्देहशोधनं॥
संकल्पः अत्राद्य महा मांङ्गल्य फलप्रद मसोत्तमे...... मासे..... पक्षे ... तिथौ .... वासरे... मम शरीर सन्तान कलत्र कुटुम्ब चतुष्पद सकल रोग दोष व्याधि विनाशनार्थं यः कोपि बाधां करोति तस्य मोक्षार्थं प्रेतबलि श्राद्धकर्म निमित्तं वपनमहं करिष्ये॥ ततः शिरसि हस्तं निधाय॥ तत्र मन्त्रः॥
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यासमानि च। केशानाश्रित्य तिष्ठन्ति तस्मात्केशान्वपाम्यहम्॥१॥ 
आत्मनः शुद्धिकामो वा पितृणां तृप्तिहेतवे। वपनं कारयिष्यामि तीरेहं तव सन्निधौ॥२॥ 
महापापोपपापाभ्यां केशलोमनखादिना। क्षुरादिछिन्नसर्वांगास्ते मे दोषाः पतन्त्वधः॥३॥ 
इति मन्त्रेण शिखाकक्षोपस्थवर्जं नखरोमाणि वापयित्वा॥ प्रथमतो दक्षिण कर्णमारभ्य वामकर्णपर्यन्तमुदक्संस्थं केशवपनम्॥ 
ततः श्मश्रुरोम्णां क्रमेणोदक्संस्थवपनम्॥ केषांचिन्मते दक्षिणश्मश्चमारभ्य वामश्मश्रुपर्यन्तमादौ ततो दक्षिण कर्णं आरभ्य वामकर्णे समाप्तिर्यथा भवति तथा केशानां वपनम्॥ 

                         श्री भगीरथ आर.पण्ड्याजी
                                ज्योतिष ओर कर्मकांड के ज्ञाता
                                       श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय 
                                                      सुरेन्द्रनगर गुजरात
                                    संपर्क सुत्र +919824417090
                             दूरभाष क्रमांक +917802000033
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेंद्रनगर श्री भागीरथ भाई आर. पंड्या कुछ समय में प्रेतबली श्राद्ध, भूतबली श्राद्ध, नागबली श्राद्ध, वृषोत्सर्ग, त्रिपिंडी श्राद्ध, महालया श्राद्ध, नारायण बलि श्राद्ध और अंत्येष्टि श्राद्ध विधान का पुस्तक प्रकाशन श्री रांंदल ज्योतिष कार्यालय सुरेंद्रनगर 
से किया जाएगा...
શ્રી રાંદલ જ્યોતિષ કાર્યાલય  સુરેન્દ્રનગર  શ્રી ભગીરથ ભાઈ  આર. પંડ્યા  થોડા  સમય મા પ્રેતબલી  શ્રાદ્ધ  , ભુતબલી શ્રાદ્ધ, નાગબલી શ્રાદ્ધ, વૃષોત્સર્ગ , ત્રિપીંડી શ્રાદ્ધ, મહાલય શ્રાદ્ધ , નારાયણ બલી શ્રાદ્ધ  અને અંત્યેષટી  શ્રાદ્ધ  વિધાન ની પુસ્તક  પ્રકાશન    શ્રી રાંદલ જ્યોતિષ કાર્યાલય સુરેન્દ્રનગર થી કરવામાં  આવશે...

मंगलवार, 10 अक्टूबर 2023

श्राद्ध पक्ष पर विशेष व विस्तृत जानकारी

*श्राद्ध पक्ष पर विशेष व विस्तृत जानकारी*

👉 *पूर्वाह्न काल* सन्ध्या और रात्रि में श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
👉 *चतुर्दशी* तिथि को श्राद्ध नहीं करना चाहिए। परन्तु शस्त्र, दुर्घटना से मृतक का श्राद्ध चतुर्दशी को करना चाहिए।
👉 श्राद्ध काल के समय यदि *अतिथि* आ जाए तो उसका सत्कार अवश्य करें।
👉 श्राद्ध के निमित्त मांग कर लाया गया दूध, *भैंस* और एक खुर वाले पशुओं का *दूध* श्राद्ध के काम में नहीं लेना चाहिए।
(विष्णु पुराण 3/16/11), (मार्कण्डेय पुराण 32/ 17 से 19), (ब्रह्म पुराण 220/ 169)
👉 राजमाष, मसूर, *अरहर, चना, गाजर*, कुम्हड़ा, गोल लोकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, *काला नमक*, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, सुपारी, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसों  यह सब वस्तुएं *श्राद्ध में वर्जित* है।
 👉 मृत *कुंवारे बच्चों* की तिथि ज्ञात नहीं हो तो उनका *पञ्चमी तिथि* को श्राद्ध किया जाता है।
👉 *सौभाग्यवती* स्त्री की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं हो तो उनका *नवमी तिथि* के दिन श्राद्ध किया जाता है।
👉 जिनकी *शस्त्रों से, दुर्घटना* से या अकाल मृत्यु हुई हो, किंतु उनकी मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं हो तो उनका श्राद्ध *चतुर्दशी तिथि* को किया जाता है।
👉 उन सभी *ज्ञात - अज्ञातजनों* की जिनकी मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं है, उन सबका श्राद्ध *सर्वपितृ अमावस्या* के दिन किया जाता है।
 👉 2 वर्ष से छोटे बालक का कोई श्राद्ध नहीं किया जाता है।
*द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा।*
 *भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि न प्रसज्जेत विस्तरे*।। 
(मनुस्मृति, बौधायन स्मृति, श्रीमद् भागवत, मत्स्य पुराण, मार्कंडेय पुराण, वराह पुराण, अग्नि पुराण, पारस्कर गृह्यसूत्र परिशिष्ट)
👉 अर्थात् -  देव कार्य में दो और *पितृकार्य में तीन* अथवा दोनों में एक - एक ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए।
👉 *अत्यन्त धनी* होने पर भी श्राद्धकर्म में *अधिक विस्तार* नहीं करना चाहिए।
👉 श्राद्ध में *मित्रता का सम्बंध* जोड़ने के *स्वार्थ* से भोजन नहीं करना चाहिए।
👉 श्राद्ध में *जौ*, मूंग, गेहूं, *खीर*, धान, *तिल*, मटर, कचनार, सरसों, परवल, कांगनी, सावा, चावल, आम, अमड़ा, बेल, अनार, बिजौरा, पुराना ऑंवला, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, चिरौंजी, बेर, जङ्गली बेर, इन्द्रजौ और बतुआ - इनमें से *कोई भी वस्तु यत्नपूर्वक* लेना चाहिए।
👉 श्राद्ध के भोजन में *खीर और मालपुए* का अधिक महत्त्व है।
👉 खीर - पूरी भी विकल्प है, परन्तु *पूरी घी* में बनी हो।
👉  *तेल में बनी पूरी* और *खीर* साथ खाने से चर्म व अन्य *रोग* उत्पन्न होते हैं।
👉 श्राद्ध पक्ष में तर्पण और ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
👉 श्राद्ध का भोजन करने वाले ब्राह्मण के आसन के आसपास *काले तिल* बिखेर देना चाहिए।
👉 काले तिल व कुशा से पितृ प्रसन्न होते हैं।
👉 अनामिका उंगली में *चांदी* या *सोने* की अंगूठी पहन कर तर्पण करना चाहिए।
👉 श्राद्ध में *केले के पत्ते* व मिट्टी ( *चीनी*), स्टील के पात्र में ब्राह्मण को भोजन कराना निषेध है।
👉 श्राद्ध का भोजन करने वाले ब्राह्मण को *लोहे के पात्र* से भोजन नहीं परोसना चाहिए।
👉 श्राद्ध काल में *वस्त्र* का दान विशेष रुप से करना चाहिए।
👉 श्राद्ध व अमावस्या के दिन *घर में* मन्थन क्रिया ( *दही बिलोना* ) करना निषेध है।
👉 पितरों का स्थान आकाश और दक्षिण दिशा है। *दक्षिण दिशा* में मुंह कर *पितृ तर्पण* करना चाहिए।
👉 श्राद्ध के निमित्त *स्त्री* को भोजन नहीं कराना चाहिए। (बृहत्पराशर स्मृति 7/71)
👉 श्राद्ध में *श्रद्धा* होना जरूरी है। *क्रोध* व *जल्दबाजी* नहीं होना चाहिए।
👉 सोने चांदी और ताम्बे के पात्र पितरों के पात्र कहे जाते हैं। श्राद्ध में *चांदी* की चर्चा और दर्शन से पितर प्रसन्न होते हैं। 
👉 श्राद्ध में *काले तिल* की मात्रा आवश्यक है।
👉 श्राद्ध के निमित्त भोजन *वेद ज्ञाता* ब्राह्मण, यति और जरूरतमंद को ही कराना चाहिए।
👉 श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराते समय उस दिन 10 कि. मी. के भीतर रहने वाले अपने *दामाद, भांजा - भांजी, बहन और भाई बन्धुओं* को भी आमन्त्रित कर पारिवारिक सद्भाव के साथ बैठकर भोजन करना चाहिए। 
 👉 श्राद्ध में मुख्य रूप से मालती, जूही, चम्पा, कमल के *सफेद पुष्प* लेना चाहिए। 
👉  *तुलसी*, तिल, कुश, दूध, गंगा जल, शहद, दौहित्र और कुतप से पितृ *अधिक प्रसन्न* होते हैं।
👉 मृत्यु के 13 महीने बाद *मृत्यु तिथि* पर (वार्षिक मृत्यु तिथि पर) श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। *केवल* ब्राह्मण भोजन करा देना चाहिए।
 👉 दूसरा वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष के प्रथम दिन अर्थात् *दूसरे वर्ष* की वार्षिक तिथि पर *श्राद्ध* करना चाहिए तथा इसके बाद आने वाले *पितृपक्ष में "मृत्यु तिथि वाली तिथि" के दिन श्राद्ध में मिलाना चाहिए।* (श्राद्ध चिन्तामणि)
👉 इस दौरान *अन्य पितरों* का *श्राद्ध* करते रहना चाहिए।
👉 श्राद्ध में *पितरों की तृप्ति* *वेदज्ञाता* ब्राह्मणों के द्वारा ही होती है।
👉 श्राद्ध के समय कषाय वस्त्र ( *रंगीन, काले - नीले* कपड़े) नहीं पहनना चाहिेए और ना ही श्राद्ध के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मण को।
👉  *जिस दिन* श्राद्ध हो उस दिन क्षौरकर्म ( *कटिंग, शेविंग*) नहीं करना चाहिए।
👉 जिस दिन *अपने घर* में श्राद्ध हो, उस दिन *दूसरे के घर* में *भोजन* करना निषेध माना गया है।
👉 श्राद्ध में *क्रिया* और *वाक्य* की *शुद्धता* बहुत जरूरी है।
👉 *संयुक्त परिवार* हो तो श्राद्ध ज्येष्ठ पुत्र द्वारा *एक* ही स्थान पर सम्पन्न होना चाहिए।
👉  यदि पुत्र अलग-अलग रहते हों तो श्राद्ध भी *सभी* को *अलग - अलग* करना चाहिए।
👉 श्राद्ध करने का अधिकार इनमें से *कोई एक* -  क्रमशः पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र (पुत्री का पुत्र), पत्नी, भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भानजा, वंशज को है।
👉 हेमाद्रि के अनुसार श्राद्ध में *पिता* की पिण्ड दान आदि सम्पूर्ण क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिए। पुत्र के अभाव में *पत्नी* करें और पत्नी के अभाव में सहोदर *भाई* को करनी चाहिए।
👉 यदि *गया श्राद्ध* कर दिया हो तो मृत्यु तिथि व श्राद्ध पक्ष में तिथि पर *धूप नहीं* देवें व *पिण्डदान ना* करें। उस दिन सिर्फ *तर्पण* करें, *गाय* और *ब्राह्मण* को श्राद्ध निमित्त भोजन कराएं।
👉 गया श्राद्ध *सभी पुत्र* (छोटे-बड़े) कर सकते हैं।
👉 बद्रीनाथ में *ब्रह्म कपाली नहीं* कराई हो तो गयाजी में *एक बार* नहीं, *अनेक बार* श्राद्ध कर सकते हैं।
👉 गया श्राद्ध *कराने के बाद ही* बद्रीनाथ तीर्थ में ब्रह्म कपाली कराएं। यदि बद्रीनाथ में *पहले* ब्रह्म कपाली करा दी हो तो *फिर गयाजी* में श्राद्ध *नहीं* करना चाहिए।
👉 घर की किसी भी *स्त्री* को श्राद्ध के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मणों के *उच्छिष्ट* (झूठे) पात्रों ( *थाली*) को नहीं उठाना चाहिए। श्राद्धकर्ता ही उन पात्रों को उठाए।
👉 श्राद्ध में ब्राह्मणों को *सिर* ढककर (पगड़ी, टोपी आदि) श्राद्ध का भोजन नहीं करना चाहिए।
👉 जिस श्राद्ध में *क्रोध* और *उतावलापन* होता है, वह निष्फल हो जाता है।
👉 श्राद्ध में *देशी गाय* व उसका दूध, दही, घी का बहुत अधिक महत्त्व है।
👉 यदि श्राद्ध वाले दिन घर में *सूतक* हो तो गौशाला जाकर दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर अपने दोनों हाथ आकाश में ऊपर उठा कर सम्बंधित पितृदेव का नाम लेकर उनके निमित्त *गाय* को *घास* देने का संकल्प करें। फिर यथाशक्ति घास गाय को खिलाने से *पितृ प्रसन्न* हो जाते हैं।
👉 श्राद्ध में चन्दन, खस, कर्पूर सहित *सफेद चन्दन* ही पितृ कार्य  के लिए प्रशस्त हैं। 
👉 अन्य पुरानी लकड़ियों के चन्दन उपयोग में नहीं लेना चाहिए। कस्तूरी, *लाल चन्दन*, गोरोचन, सल्लक तथा पूतिक आदि निषिद्ध हैं।
👉 पितरों को सदैव *तर्जनी* उंगली से ही *चन्दन* देना चाहिए।
👉 श्राद्ध में कदम्ब, केवड़ा, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर, *लाल तथा काले* रंग के सभी फूल, उग्र गन्ध वाले और गन्ध रहित सभी *फूल वर्जित* हैं।
👉 *ब्राह्मण* के यहां श्राद्ध के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मण द्वारा श्राद्ध समाप्ति के बाद *अस्तु स्वधा*  बोलना चाहिए। इसी तरह *क्षत्रिय* के यहां *पितर:  प्रीयन्ताम्* और *वैश्य* के यहां *अक्षय्य मस्तु* शब्द का उच्चारण करना चाहिए, तभी श्राद्ध *सम्पूर्ण* होता है।
👉 एकादशी होने से श्राद्ध में चावल की वजाय *साबूदाना* या अन्य फलियारी वस्तु की *खीर* बनाना चाहिए।
👉 एकादशी पर श्राद्ध निमित्त *फलाहारी भोजन* बनाना चाहिए।
👉 श्राद्ध समाप्ति पश्चात ब्राह्मण को *घर* की सीमा तक *पहुंचाने* के लिए नहीं जाना चाहिए।
👉 अशौच ( *सूतक*) में यदि श्राद्ध आ जाए तो तर्पण, ब्राह्मण भोजन तथा व्रत नहीं करना चाहिए। सिर्फ *गाय* को पितृ निमित्त *घास* डालना चाहिए।
👉 *ब्राह्मण* उपलब्ध ना हो तो कम से कम *गो ग्रास* निकालकर गाय को श्राद्ध के निमित्त खिला देना चाहिए।
👉  श्राद्ध में ब्राह्मणों को *बैठाकर पैर धोना* चाहिए। खड़े होकर पैर धोने पर पितर निराश होकर चले जाते हैं।
👉 *सात्विक अन्न - फलों* से पितरों की सर्वोत्तम तृप्ति होती है।
👉 श्राद्ध में *अग्नि* पर दूषित गुग्गल, बुरा गोंद और सिर्फ घी डालना निषिद्ध है। *घी* के साथ श्राद्ध निमित्त बनाए गए *भोजन* की आहुति देना चाहिए।
👉 श्राद्ध के निमित्त भोजन करने वाले ब्राह्मणों को *भोजन करते समय मौन* रहना चाहिए।
👉 पुत्र को कम से कम वर्ष में *दो बार* श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
👉 जिस दिन व्यक्ति की मृत्यु होती है *उस तिथि* पर वार्षिक श्राद्ध तथा दूसरा *पितृपक्ष* में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
👉 श्राद्ध के दिन *पांच स्थानों* पर श्राद्ध के निमित्त बनी *समस्त थोड़ी - थोड़ी वस्तु दो - दो पूरी* के साथ पत्ते पर रखकर निकालना चाहिए।
👉 एक भाग *गाय* को, दूसरा भाग श्वान ( *कुत्ते* ) को, तीसरा भाग  *कौवे* को, चौथा भाग *देवताओं* को और पांचवां भाग *चींटियों* को दे दें।
👉 *10 हजार* निरक्षर ब्राह्मण भोजन करते हैं, वहां यदि *वेदों का ज्ञाता एक* ही ब्राह्मण *श्राद्ध निमित्त* भोजन करके संतुष्ट हो जाए तो उन 10 लाख ब्राह्मणों के *बराबर फल* को देता है।(मनुस्मृति 3/131)
👉 श्राद्ध करने के पूर्व *क्षौरकर्म* नहीं करना या कराना चाहिए।
👉 श्राद्ध करने के पूर्व *कपड़े भी नहीं धोना* चाहिए।
👉 तर्पण में *दोनों हाथों* को संयुक्त कर जल देना चाहिए।
👉 *दूसरे की भूमि* पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
👉 परिस्थितिवश घर से बाहर यदि श्राद्ध करना हो तो जङ्गल, पर्वत, *पुण्य तीर्थ, देव मन्दिर* में श्राद्ध कर सकते हैं, क्योंकि इन पर किसी का *स्वामित्व* नहीं होता है।
👉 *देव कार्य* में तो ब्राह्मणों की परीक्षा न करें, परन्तु *पितृकार्य* में तो प्रयत्न पूर्वक ब्राह्मण की *परीक्षा* करें। (मनु स्मृति, शंख स्मृति, व्याघ्रपाद स्मृति, स्कन्द पुराण)
👉 श्राद्ध में ब्राह्मण की *उपस्थिति* आवश्यक है।
👉 श्राद्ध में यदि ब्राह्मण *भोजन* कराना *सम्भव ना हो* तो सूखे अन्न, घृत, चीनी, नमक आदि षडरस वस्तुओं को दक्षिणा सहित *श्राद्ध भोजन* के निमित्त किसी वेदज्ञाता ब्राह्मण को दे देना चाहिए।
👉 परिस्थितिवश यदि वेदज्ञाता ब्राह्मण न प्राप्त हो तो कम से कम *गो ग्रास* निकालकर *गायों* को इस निमित्त खिला देना चाहिए।
👉 श्राद्ध के समय रेशमी, नेपाली कम्बल, *ऊन*, काष्ठ, तृण, पर्ण , *कुश* आदि के आसन श्रेष्ठ माने गए हैं।
👉 काष्ठ आसनों ( *लकड़ी के आसन*) में शमी, काश्मीरी, शल्ल, कदम्ब, जामुन, आम, मौलसिरी एवं वरुण के आसन श्रेष्ठ हैं।
👉  किसी भी आसन में *लोहे की कील* नहीं होनी चाहिए।
👉 जहां तक हो सके, आसन का रंग *सफेद* हो।
 👉 जिनकी *मृत्यु तिथि ज्ञात* नहीं है, उनका *अमावस्या* के दिन श्राद्ध  करना चाहिए।
👉 अमावस्या को *समस्त पितरों* के नाम पर *तर्पण* भी करना चाहिए।
👉 जिनके परिवार में कोई मातृशक्ति *सती* हुई हो तो अमावस्या के दिन *सती के निमित्त श्राद्ध* करना चाहिए।
👉 *देव कार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।*
 *देवताभ्यो हि पूर्वं पितृणामाप्यायनं वरम्*।।
(हेमाद्रि में वायु तथा ब्रह्मवैवर्त का वचन)
अर्थात् -  देव कार्य की अपेक्षा *पितृ कार्य* की विशेषता मानी गई है। अतः *देव कार्य से पूर्व* पितरों को *तृप्त* करना चाहिए।
👉 वृद्धिकाल में पुत्र जन्म तथा *विवाह आदि मांगलिक कार्य* में जो *श्राद्ध* किया जाता है, उसे वृद्धिश्राद्ध (नान्दी श्राद्ध) कहते हैं।
👉 इस नान्दी *श्राद्ध का स्वरूप* हम लोगों ने बदल दिया है। जब भी विवाह आदि माङ्गलिक कार्य होते हैं, तब हम *नान्दी श्राद्ध न करते* हुए मात्र पितरों के निमित्त *धन और वस्त्र* लेकर बहन - बेटियों, ब्राह्मण को दे देते हैं।
👉 कूर्म पुराण, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रह्मोक्त  याज्ञवल्क्य संहिता, महाभारत आदि में चतुर्दशी के दिन *श्राद्ध* नहीं करने का स्पष्ट उल्लेख है।
👉 चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध *अमावस्या* के दिन करना चाहिए।
👉 चतुर्दशी के दिन *सिर्फ* युद्ध में शहीद हुए *सैनिक, दुर्घटना से, शास्त्राघात* से मृत हुए व्यक्ति का श्राद्ध होता है।
👉 शुक्ल पक्ष की अपेक्षा *कृष्ण पक्ष* और पूर्वाह्न की अपेक्षा *कुतप वेला* का समय श्राद्ध के लिए श्रेष्ठ माना जाता है।
👉 श्राद्ध *एकान्त* में और *गुप्त* रूप से करना चाहिए।
👉 श्राद्ध के भोजन पर *रज:स्वला* स्त्री और *श्वान* की दृष्टि नहीं पड़ना चाहिए।
👉 जिसके *घर में श्वान* होते हैं, *उसके घर* में पितृ प्रवेश नहीं करते हैं। (कूर्मपुराण,औशन स्मृति)
              
                   शास्त्री श्री भगीरथ आर.पण्ड्याजी
                                    ज्योतिष ओर कर्मकांड के ज्ञाता.                                                 सुरेन्द्रनगर गुजरात
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