बुधवार, 27 नवंबर 2019

*पृथ्वी की ये नौ प्रकार की जानकारी आपको कहीं और न मिलेगा न कोई बताएगा:-*

*पृथ्वी की ये नौ प्रकार की जानकारी आपको कहीं और न मिलेगा न कोई बताएगा:-*
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*दो लिंग :* नर और नारी ।
*दो पक्ष :* शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
*दो पूजा :* वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
*दो अयन :* उत्तरायन और दक्षिणायन।

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*तीन देव :* ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
*तीन देवियाँ :* महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
*तीन लोक :* पृथ्वी, आकाश, पाताल।
*तीन गुण :* सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
*तीन स्थिति :* ठोस, द्रव, वायु।
*तीन स्तर :* प्रारंभ, मध्य, अंत।
*तीन पड़ाव :* बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
*तीन रचनाएँ :* देव, दानव, मानव।
*तीन अवस्था :* जागृत, मृत, बेहोशी।
*तीन काल :* भूत, भविष्य, वर्तमान।
*तीन नाड़ी :* इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
*तीन संध्या :* प्रात:, मध्याह्न, सायं।
*तीन शक्ति :* इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

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*चार धाम :* बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
*चार मुनि :* सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
*चार वर्ण :* ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
*चार निति :* साम, दाम, दंड, भेद।
*चार वेद :* सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
*चार स्त्री :* माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
*चार युग :* सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
*चार समय :* सुबह, शाम, दिन, रात।
*चार अप्सरा :* उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
*चार गुरु :* माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
*चार प्राणी :* जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
*चार जीव :* अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
*चार वाणी :* ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
*चार आश्रम :* ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
*चार भोज्य :* खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
*चार पुरुषार्थ :* धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
*चार वाद्य :* तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

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*पाँच तत्व :* पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
*पाँच देवता :* गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
*पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ :* आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
*पाँच कर्म :* रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
*पाँच  उंगलियां :* अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
*पाँच पूजा उपचार :* गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
*पाँच अमृत :* दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
*पाँच प्रेत :* भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
*पाँच स्वाद :* मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
*पाँच वायु :* प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
*पाँच इन्द्रियाँ :* आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
*पाँच वटवृक्ष :* सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
*पाँच पत्ते :* आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
*पाँच कन्या :* अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

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*छ: ॠतु :* शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
*छ: ज्ञान के अंग :* शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
*छ: कर्म :* देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
*छ: दोष :* काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

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*सात छंद :* गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
*सात सुर :* षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
*सात चक्र :* सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
*सात वार :* रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
*सात मिट्टी :* गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
*सात महाद्वीप :* जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
*सात ॠषि :* वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
*सात ॠषि :* वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
*सात धातु (शारीरिक) :* रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
*सात रंग :* बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
*सात पाताल :* अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
*सात पुरी :* मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
*सात धान्य :* उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

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*आठ मातृका :* ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
*आठ लक्ष्मी :* आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
*आठ वसु :* अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
*आठ सिद्धि :* अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
*आठ धातु :* सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

*xxxxxxxxxx 08 xxxxxxxxxx*
*नवदुर्गा :* शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
*नवग्रह :* सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
*नवरत्न :* हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
*नवनिधि :* पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

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*दस महाविद्या :* काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
*दस दिशाएँ :* पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
*दस दिक्पाल :* इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
*दस अवतार (विष्णुजी) :* मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
*दस सति :* सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।
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श्री मद्भागवत रस

*श्रीमद्भागवत कथा द्वितीय स्कंध.से....*

*वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप |*

*आत्मवित्सम्मतः पुसां श्रोतव्यादिषु यः परः ||*
राजन तुमने लोकहित के लिए बड़ा उत्तम प्रश्न पूछा है आत्म ज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न की बड़ी प्रशंसा करते हैं शास्त्रों में अनेकों बातें करने एवं सुनने की बताई गई है परंतु जिन्हे आत्म तत्व तत्व का ज्ञान नहीं है | ऐसी अज्ञानी जो घर गृहस्थी में फंसे हुए हैं जिनकी रात्रि सोने में अथवा स्त्री प्रसंग में व्यतीत हो जाती है  और दिन कुटुंब के भरण पोषण के लिए धन की चिंता में व्यतीत हो जाता है वह प्रतिक्षण मृत्यु की ओर अग्रसर होते हुए भी चेतते नहीं है|
*तसमाद्भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः |
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ||*
परीक्षित जो अभय पद को प्राप्त करना चाहते हैं ऐसे पुरुषों को  सदा सर्वदा सर्वात्मा भगवान श्री हरि की ही कथा का श्रवण करना चाहिए उनके ही नामों का कीर्तन करना चाहिए और उनका ही स्मरण करना चाहिए मनुष्य जन्म का परम लाभ यही है कि अंत समय में भगवान नारायण की स्मृति बनी रहे परीक्षित इसलिए ही जो  निर्वित्ति पारायण महापुरुष है वह सदा सर्वदा भगवान श्रीहरि के ही गुणों में रमे रहते हैं |
अद्वैत सिद्धांत के अचार्य श्री मधुसूदन सरस्वती जी एक बार वृंदावन आए उनकी दृष्टि जैसे ही बिहारी जी पर पड़ी वह श्री कृष्ण के दीवाने हो गए उन्होंने श्लोक लिखा=
*अद्वैत वीथी पथिकैरूपास्या
          स्वराज्यसिघांसन लब्धदिक्षा |
षठेन केनापि वयं हठेन्
           दासीकृता गोपवधू विटेन  ||*
अद्वैत वेदांत की गलियों में भ्रमण करने वाले आत्म राज्य को प्राप्त कर चुके मुझे गोप कुमारियों के स्वामी श्री कृष्ण ने दृढ़तापूर्वक अपना भक्त बना लिया अपना दास बना लिया
*परिनिष्ठितोपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया|
गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान ||*
परिक्षित मेरी निष्ठा भी निर्गुण ब्रह्म मे थी परंतु भगवान श्री कृष्ण की मधुर लीलाओं ने मेरे हृदय को अपनी ओर खींच लिया जिसके कारण मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराण का अध्ययन किया और उसे ही मैं तुम्हें सुनाऊंगा परिक्षित तुम यह मत सोचो कि तुम्हारे पास केवल सात दिवस है सूर्यवंश में महाराज खट्वांग हुए हैं जब उन्हें पता चला कि उनकी आयु मात्र  48 मिनट शेष बची है उतने में ही उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग कर भगवान को प्राप्त कर लिया |
परीक्षित जन्म मृत्यु का समय निकट आए उस समय घबराएं नहीं वैराग्य रुपी सस्त्र के द्वारा शरीर और शरीर से संबंध रखने वालों की ममता को काट दे घर से निकल कर किसी तीर्थ में आ जाएं वहां पवित्र जल में स्नान करें और एकांत में आसन बिछाकर दृढ़तापूर्वक में बैठ जाएं और भगवान का ध्यान करें |
*पातालमेतस्य हि पादमूलं
         पठन्ति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम् |
महातलं विश्वसृजोथ गुल्फौ
          तलातलं वै पुरुषस्य जघें ||*
पाताल विराट भगवान के तलवे हैं रसातल पंजे हैं महातल एड़ी के ऊपर की गांठ है तलातल पिंडलियां है सुतल घुटने हैं वितल और अतल दोनों जघांयें हैं | नाभि तक नाभि से नीचे का स्थान नाभि भुवर्लोक छातीस्वर्ग लोक है गला महर लोक है मुख जनलोक है |
ललाट तपो लोक है और मस्तक सत्यलोक है| ब्राह्मण विराट भगवान के मुख हैं छत्री भुजाएं हैं वैस्य जघां है़ और शूद्र भगवान के चरण है इस प्रकार संपूर्ण ब्रह्मांड भगवान का ही स्वरुप है इसलिए सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करें संसारिक पदार्थों के लिए अधिक परिश्रम ना करें क्योंकि भाग वसात उनकी प्राप्ति स्वतः ही हो जाएगी |
*आयुः कर्म च वित्तं च
        विद्या निधन नेव च |
पञ्च्यैतान्यपि सृज्यन्ति
         गर्भस्थस्यैव देहिनः ||*
आयु विद्या धन मृत्यु और कर्म इन पांचों का निर्माण गर्भ में ही हो जाता है |
*सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासै
               र्बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् |
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या
               दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ||*
यदि पृथ्वी पर सोने से काम चल जाता है तो गद्दे के लिए पलंग के लिए प्रयास करने की क्या आवश्यकता है | भुजाओं के होते हुए तकिए की क्या आवश्यकता अंजलि के होते हुए बहुत से पात्र एकत्रित करने की क्या आवश्यकता और चीर वतकल पहन कर काम चल जाता है तो अनेकों वस्त्रों से क्या प्रयोजन |
*चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां
    नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोप्यशुष्यन् |
रुद्धा गुहाः किमजितोवति नोपसन्नान्
    कस्माद् भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान् ||*
क्या  मार्ग में चीरवत्कल नहीं पड़े रहते क्या वृक्षों ने हमें फल फूल की भिक्षा देना बंद कर दिया है क्या नदियों का जल सूख गया है क्या शरणागत की रक्षा करना पालन करना भगवान ने बंद कर दिया है| यदि यह सब कुछ है तो विद्वान लोग धन के मद में अंधे लोगों की चापलूसी क्यों करते हैं | क्यों गुलामी करते हैं |
         ( दृष्टांत )
एक   अलमस्त संत श्मशान में रहते थे किसी ने कहा बाबा नगर में चलो बाबा ने कहा नगर में ना जाने सब मिले या ना मिले एक दिन सबको यही आना है सब से यही मिलेंगे भक्तों ने कहा बाबा कुछ गद्दे तकिये का इंतजाम कर दे |अलमस्त संत ने कहा-
जमी पर लेट जाते हैं सिराने हाथ रखते हैं |
हम तो अपना गद्दा तकिया सदा ही साथ रखते हैं||
श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं परीक्षित कुछ भक्त भगवान का अपने हृदय में ध्यान करते हैं भगवान का स्वरूप प्रदेश मात्र का है सुंदर चार भुजाएं हैं जिनमें उन्होंने शंख चक्र गदा पद्म धारण कर रखा है | प्रसन्नता से युक्त मुखारविंद है सुंदर मुख मंडल पर कमल के समान विशाल नेत्र हैं | शरीर में पीतांबर शोभायमान हो रहा है वक्षस्थल पर सुनहरी श्रीवत्स की रेखा है गले में कौस्तुभमणि और वनमाला शोभायमान हो रही है परीक्षित जब तक भगवान में मन स्थिर ना हो जाए तब तक भगवान के एक-एक अंग का ध्यान करें और साधक जब इस लोक को छोड़ना चाहे तो उसके दो प्रकार बताए गए हैं -
   (१)सद्यो मुक्तिः  और  (२)क्रम मुक्तिः
जो साधक सद्यो मुक्ति चाहता है |वह मूलाधार , स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्ध इन पांचों चक्रों से प्राण वायु को ऊपर ले जाकर कुछ देर प्राणवायु को आज्ञा चक्र में स्थित करें फिर सहस्त्रार का भेदन कर शरीर आदि इंद्रियों को छोड़ ब्रह्म में स्थित हो जायें |जो साधक योगियों की भांति अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करना चाहता है | आकाश चारी सिद्धों के समान भ्रमण करना चाहता है  वह क्रम मुक्ति का आश्रय ले मन और इंद्रियों के साथ शरीर से बाहर निकले वहां से साधक अग्नि लोक में जाता है |वहां उसके बजे कुचे मल जलकर भस्म हो जाते हैं | और वह ज्योतिर्मय शिशुमार चक्र में पहुंचता है ,शिशुमार चक्र से महर लोक में पहुंचता है प्रलय के समय जब शेषनाग के मुख से निकली हुई अग्नि नीचे के लोकों को जलाने लगती है| तब वह साधक सत्यलोक ब्रह्मलोक में पहुंच जाता है उस ब्रह्मलोक में किसी भी प्रकार का शोक ,बुढ़ापा ,मृत्यु और उद्वेग नहीं है वह साधक अज्ञानी पृथ्वी वासियों को संसार के काम-धंधों में फंसा हुआ देखता है तो उन पर कृपा करने के लिए पृथ्वी में जन्म ग्रहण करता है और सांसारिक प्राणियों का कल्याण कर स्वयं भी भगवान को प्राप्त कर लेता है| परीक्षित यदि सांसारिक वस्तुओं की भी कामना हो तो वह वैदिक अनुष्ठानों का ही आश्रय ले भूत प्रेत तंत्र  आदि के चक्करों में ना फंसे ब्रह्म तेज की कामना से बृहस्पति की उपासना करें ,संतान की कामना के लिए प्रजापतियों की उपासना करें ,तेज के लिए अग्नि की, धन के लिए अष्टवसुओं की ,स्वर्ग की इच्छा से देवताओं की ,आयु की वृद्धि के लिए अश्विनीकुमारों की, रूप के लिए गंधर्वों की ,यश के लिए भगवान यज्ञ नारायण की, विद्या के लिए भगवान शंकर की, पति पत्नी में प्रेम के लिए मां पार्वती की उपासना करें---
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः |
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ||
कोई कामना हो अथवा ना हो तथा समस्त कामनाओं की इच्छा हो अथवा मोक्ष की इच्छा हो तो तीव्र भक्ति योग से भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करें--

*श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः |
न यत्कर्णपथोपेतो जातुनाम गदाग्रजः ||*

परीक्षित- जिसने कभी भी इस जीवन में भगवान श्री कृष्ण के मधुर लीलाओं का श्रवण नहीं किया वह मनुष्य कुत्ते ,सूकर, ऊंट और गधे के समान है |
*जिन हरि कथा सुनी नहिं काना |
श्रवणरन्ध्र अहि भवन समाना ||१
जो नहिं करहिं राम गुण गाना |
जीह सो दादुर जीह समाना ||२
ते सिर कटु तुम्बरि सम तुला |
जे ना नमत हरि गुरु पद मूला ||३
नयनहिं संत दरस नहीं देखा |
लोचन मोर पंख कर लेखा ||४
जिन हरि भगति ह्रदय नहिं आनी |
जीवत सव समान तेहि प्रानी ||५
कुलिश कठोर निठुर सोइ छाती |
सुन हरि चरित न जे हरसाती  ||६*
रामचरितमानस
(बाल काडं) दोहा नंबर-११३
जिन्होंने अपने कान से अपने कर्णपुटों  से भगवान श्रीकृष्ण की कथा का श्रवण नहीं किया उनके कान सांप के बिल के समान हैं |
जिन्होंने अपनी वाणी से भगवान श्री हरि के गुण चरित्रों का वर्णन नहीं किया उनकी जीभ मेंढक की जीभ के समान मात्र बकवाद करने के लिए है| जिनका सिर संत और भगवंत के चरणों में नहीं झुकता वह सिर्फ कड़वी तुम्बरी के समान हैं |जिन्होंने अपने नेत्रों से भगवान के पवित्र तीर्थ और संतों का दर्शन नहीं किया उनकी आंख मोर के पंख में बनी हुई आंख के समान है जो होते हुए भी देख नहीं सकते| जिसके जीवन में भगवान की भक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हुआ वह जीता जी मुर्दे के समान है और जिसका हृदय भगवान के मधुर चरित्र को सुनकर हर्षित नहीं होता वह हृदय पत्थर के समान कठोर है |

बुधवार, 20 नवंबर 2019

|| श्रीतुलसी शालिग्राम स्तोत्र ||

|| श्रीतुलसी शालिग्राम स्तोत्र ||
जगद्धात्रि नमस्तुभ्यं विष्णोश्च प्रियवल्लभे।
यतो ब्रह्मादयो देवाः सृष्टिस्थित्यन्तकारिणः ॥
नमस्तुलसि कल्याणि नमो विष्णुप्रिये शुभे।
नमो मोक्षप्रदे देवि नमः सम्पत्प्रदायिके ॥
तुलसी पातु मां नित्यं सर्वापद्भ्योऽपि सर्वदा ।
कीर्तितापि स्मृता वापि पवित्रयति मानवम् ॥
नमामि शिरसा देवीं तुलसीं विलसत्तनुम् ।
यां दृष्ट्वा पापिनो मर्त्या मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषात् ॥
तुलस्या रक्षितं सर्वं जगदेतच्चराचरम् ।
या विनिहन्ति पापानि दृष्ट्वा वा पापिभिर्नरैः ॥
नमस्तुलस्यतितरां यस्यै बद्ध्वाजलिं कलौ ।
कलयन्ति सुखं सर्वं स्त्रियो वैश्यास्तथाऽपरे ॥
तुलस्या नापरं किञ्चिद् दैवतं जगतीतले ।
यथा पवित्रितो लोको विष्णुसङ्गेन वैष्णवः ॥
तुलस्याः पल्लवं विष्णोः शिरस्यारोपितं कलौ ।
आरोपयति सर्वाणि श्रेयांसि वरमस्तके ॥
तुलस्यां सकला देवा वसन्ति सततं यतः ।
अतस्तामर्चयेल्लोके सर्वान् देवान् समर्चयन् ॥
नमस्तुलसि सर्वज्ञे पुरुषोत्तमवल्लभे ।
पाहि मां सर्वपापेभ्यः सर्वसम्पत्प्रदायिके ॥
इति स्तोत्रं पुरा गीतं पुण्डरीकेण धीमता ।
विष्णुमर्चयता नित्यं शोभनैस्तुलसीदलैः ॥
तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी ।
धर्म्या धर्नानना देवी देवीदेवमनःप्रिया ॥
लक्ष्मीप्रियसखी देवी द्यौर्भूमिरचला चला ।
षोडशैतानि नामानि तुलस्याः कीर्तयन्नरः ॥
लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत् ।
तुलसी भूर्महालक्ष्मीः पद्मिनी श्रीर्हरिप्रिया ॥
तुलसि श्रीसखि शुभे पापहारिणि पुण्यदे ।
नमस्ते नारदनुते नारायणमनःप्रिये ।।

सोमवार, 18 नवंबर 2019

श्रीमहाकाल भैरवाष्टक

श्रीमहाकाल भैरवाष्टक
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
यं यं यं यक्षरूपं दशदिशिविदितं भूमिकम्पायमानं
सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुटजटा शेखरंचन्द्रबिम्बम् ।
दं दं दं दीर्घकायं विक्रितनख मुखं चोर्ध्वरोमं करालं
पं पं पं पापनाशं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १॥

रं रं रं रक्तवर्णं, कटिकटिततनुं तीक्ष्णदंष्ट्राकरालं
घं घं घं घोष घोषं घ घ घ घ घटितं घर्झरं घोरनादम् ।
कं कं कं कालपाशं द्रुक् द्रुक् दृढितं ज्वालितं कामदाहं
तं तं तं दिव्यदेहं, प्रणामत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ २॥

लं लं लं लं वदन्तं ल ल ल ल ललितं दीर्घ जिह्वा करालं
धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुट विकटमुखं भास्करं भीमरूपम् ।
रुं रुं रुं रूण्डमालं, रवितमनियतं ताम्रनेत्रं करालम्
नं नं नं नग्नभूषं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ३॥

वं वं वायुवेगं नतजनसदयं ब्रह्मसारं परन्तं
खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवनविलयं भास्करं भीमरूपम् ।
चं चं चलित्वाऽचल चल चलिता चालितं भूमिचक्रं
मं मं मायि रूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ४॥

शं शं शं शङ्खहस्तं, शशिकरधवलं, मोक्ष सम्पूर्ण तेजं
मं मं मं मं महान्तं, कुलमकुलकुलं मन्त्रगुप्तं सुनित्यम् ।
यं यं यं भूतनाथं, किलिकिलिकिलितं बालकेलिप्रदहानं
आं आं आं आन्तरिक्षं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ५॥

खं खं खं खड्गभेदं, विषममृतमयं कालकालं करालं
क्षं क्षं क्षं क्षिप्रवेगं, दहदहदहनं, तप्तसन्दीप्यमानम् ।
हौं हौं हौंकारनादं, प्रकटितगहनं गर्जितैर्भूमिकम्पं
बं बं बं बाललीलं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ६॥

वं वं वं वाललीलं सं सं सं सिद्धियोगं, सकलगुणमखं,
देवदेवं प्रसन्नं पं पं पं पद्मनाभं, हरिहरमयनं चन्द्रसूर्याग्नि नेत्रम् ।
ऐं ऐं ऐं ऐश्वर्यनाथं, सततभयहरं, पूर्वदेवस्वरूपं
रौं रौं रौं रौद्ररूपं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ७॥

हं हं हं हंसयानं, हसितकलहकं, मुक्तयोगाट्टहासं, ?
धं धं धं नेत्ररूपं, शिरमुकुटजटाबन्ध बन्धाग्रहस्तम् ।
तं तं तंकानादं, त्रिदशलटलटं, कामगर्वापहारं,
भ्रुं भ्रुं भ्रुं भूतनाथं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ८॥

इति महाकालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् ।
नमो भूतनाथं नमो प्रेतनाथं नमः कालकालं नमः रुद्रमालम् ।
नमः कालिकाप्रेमलोलं करालं नमो भैरवं काशिका क्षेत्रपालम् ॥
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸

रविवार, 17 नवंबर 2019

Hitopadesh


न रणे विजयात् शूरोऽध्ययनात् न च पण्डितः
न वक्ता वाक्पटुत्वेन न दाता चार्थ दानतः ।
इन्द्रियाणां जये शूरो धर्मं चरति पण्डितः
हित प्रायोक्तिभिः वक्ता दाता सन्मान दानतः ॥
अर्थात्...
रणमैदान में विजय प्राप्त करने से नहीं, बल्कि इंद्रियविजय से इन्सान शूर कहलाता है;
अध्ययन से नहीं, बल्कि धर्माचरण से इन्सान पण्डित कहलाता है;
वाक्चातुर्य से नहीं, पर हितकारक वाणी से व्यक्ति वक्ता कहलाता है; और
(केवल) धन देने से नहीं, बल्कि सम्मान देने से (सम्मानपूर्वक देने से) इन्साना दाता बनता है ।

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

* આજે ઔદિચ્ય સહસ્ર બ્રાહ્મણનો ૧૦૨૫ વષઁમો ઉદિચ્ય દિન*

* આજે ઔદિચ્ય સહસ્ર બ્રાહ્મણનો ૧૦૨૫ વષઁમો ઉદિચ્ય દિન*
*સંવત ૧૦૫૧નાં કાતિઁક સુદ-૧૫ (પૂનમ) ના રોજ પાટણ પતિ રાજા મૂળરાજ સોલંકીએ બ્રાહ્મણોને દાન આપ્યાં હતાં. એની યાદમાં દર વષઁમાં કારતક સુદ - ૧૫ ના રોજ અગર એ અરસામાં રાજસ્થાનનાં કોટા શહેર સહિત ઘણી જગ્યાએ ઔદિચ્ય સહસ્ર બ્રાહ્મણો "ઉદીચ્ય દિન" ની ઉજવણી કરે છે.*
ચૌલુકય વંશના રાજા (ઈ. સ. ૯૪૨ થી ૯૯૭) મૂળરાજ સોલંકીએ ઈ.સ. ૯૯૪માં વિક્રમ સંવત ૧૦૫૦માં વિદ્વાન શ્રેષ્ઠ અગ્નિહોત્ર, કમઁકાંડી ઋષિ પરંપરાગત જીવન જિવનાર એવા તેજસ્વી બ્રાહ્મણોને બલાવેલાં. જેમાં
ઉત્તરમાં ગંગા, યમુના સંગમ પ્રયાગ પ્રદેશમાંથી ૧૦૫ બ્રહ્મદેવોને લાવેલા.
ચ્યવન આશ્રમમાંથી ૧૦૦ બ્રાહ્મણ લાવેલા. .
અયોધ્યા સરયુ ક્ષેત્રમાંથી ૧૦૦ ભૂદેવ લાવેલા. .
કાન્યકુબ્જ (કનોજ) ક્ષેત્રમાંથી ૧૦૦ બ્રહ્મદેવોને લાવેલા.
કાશીક્ષેત્રમાંથી ૧૦૦ બ્રહ્મતેજને લાવવા. .
ગંગાદ્વાર પ્રદેશ તથા હરિદ્વારમાંથી ૧૦૦ બ્રાહ્મણ લાવ્યા.
નૈમિષારણ્યમાંથી ૧૦૦ બ્રાહ્મણ.
કુરુક્ષેત્રમાંથી ૨૦૦ બ્રાહ્મણ.
પુષ્કરક્ષેત્રમાંથી ૧૩૨ બ્રાહ્મણો સહિત
કુલ ૧૦૩૭ પવિત્ર જ્ઞાની અગ્નિહોત્ર તથા વેદાદિ શાસ્રો સાથે બ્રાહ્મણ પરિવારોને બોલાવીને પોતાના રાજ્યને વિશ્વનું સુંદર આદર્શ સંસ્કારધામ બનાવવા ગુજરાતના પાટનગર અણહિલપુર-પાટણમાં આમંત્રિત કરીને રાજાએ પટરાણી સાથે તેઓનું જાતે સ્વાગત પૂજન અચઁન કરીને પોતાના રાજ્યમાં રહીને ધમઁ, ધ્યાન, ઉપાસના, હોમ, હવન, વેદ પઠન, પાલન કરી ગુજઁર પ્રજાનો, સંસ્કૃતિનો વિકાસ કરવા વિનંતી કરી હતી.
પોતે વૃદ્ધ થયો હોવાથી સમગ્ર રાજ્ય આ બ્રાહ્મણોને આપવાની ઈચ્છા વ્યક્ત કરી હતી. પરંતુ તપસ્વી બ્રાહ્મણોએ રાજ નહીં લેવાની અને કોઈપણ પ્રકારનાં દાન સ્વીકારવાની ના પાડીને બધા વિદ્વાન પરિવારને રાજશ્રમમાં મૂકીને દ્વારકા સોમનાથની જાત્રાએ નીકળી ગયા. તેમના સ્રી પરિવારની માવજત કરતાં કરતાં પટરાણીએ પોતાના રાજમહેલની મુલાકાત કરાવીને સ્રી સહજ લાગણીશીલ બનાવીને સન્માનપૂવઁક બ્રાહ્મણ પત્નીઓને ઉતમ પ્રકારના વસ્ર અલંકાર ઇત્યાદિ દાનમાં આપીને પ્રસન્ન કરી રાજાની દાનની ઇચ્છા પૂતિઁમાં સહયોગ આપ્યો.
ઘણા સમય બાદ યાત્રાથી પરત ફરતાં બ્રાહ્મણોએ પોતાની પત્નીઓને વસ્ત્રાલંકારથી શોભિત જોઇને ક્રોધિત થયાં. પરંતુ રાજા રાણીની શુદ્ધ ભાવના અને પત્નીઓનાં આગ્રહવશ (સ્રીહઠ) આગળ કૂણા પડીને રાજા મૂળરાજએ યોજેલા રાજય સમારોહમાં હાજર રહ્યાં.
રાજાએ પોતાનું સમગ્ર રાજય બ્રાહ્મણોને સોપીને મામાની હત્યાનાં દોષમાંથી મૂકત કરવા રાજ્યનું દાન સ્વીકારવા ખૂબ જ આગ્રહ કરતાં બ્રાહ્મણોએ ખૂબજ આનાકાની કરી પછી પત્નીઓનાં અત્યંત આગ્રહને વશ થઇને રાજા પાસે દાન સ્વીકારનો પ્રસ્તાવ બાબતે કહ્યું કે,
" અમે બ્રાહ્મણો છીએ. રાજ્ય કરવું એ અમારુ કામ નથી. અમે સુખેથી તમારા રાજ્યમાં રહીશું. તથા ધમઁ, ધ્યાન, કરી વેદાધ્યયન અને અગ્નિહોત્ર પાછળ તમારી સંપત્તિનો ઉપયોગ કરીશું. પરંતુ શરત એટલી કે, અમે રાજય નહીં કરીએ. રાજ્ય તો આપે કરવું પડશે. અને અમારી મિલકતની રક્ષા પણ આપે જ કરવી પડશે."
રાજા મૂળરાજ તપસ્વી બ્રાહ્મણોનાં બ્રહ્મ સંસ્કારથી ખૂશ થયો. અને સરસ્વતી તટે ટાપુ શ્રીસ્થળ પર આવેલ રુદ્રેશ્વર મહાદેવ મંદિરનો જીર્ણોદ્ધાર કરીને અગિયાર રુદ્ર સ્થાપીને રુદ્રમહાલય બનાવવાની ઇચ્છા વ્યક્ત કરી. વિક્રમ સંવત ૧૦૫૦ અખાત્રીજ રુદ્રમહાલય ખાતમુહૂર્ત કરી અગિયાર દિવસનો મહારુદ્ર યાગ સફળતાથી ભવ્ય રીતે પૂણઁ કયોઁ. બોદ્ધાયન ઋષિ (બ્રાહ્મણ) તેમના અતિ વિદ્વાન પુત્ર (બાપ કરતા બેટો સવાયો કહેવત મુજબ) તથા ૧૦૩૫ બ્રાહ્મણોને દક્ષિણા દાનમાં આપવાનો સંકલ્પ બાદ એક મોટાં સમારંભનું આયોજન કરવામાં આવ્યું. સહુ વિદ્વાનોને તેમની વિદ્વતાની કક્ષાએ બિરાજમાન કરી રાજા મૂળરાજ અને પટરાણીએ સહુનું સ્વાગત કર્યું. પૂજન કરી ને મામા સામંતસિંહ ચાવડાનાં રાજ્યની ગાદી વારસા મળી એ પોતાના રાજયનાં શ્રીસ્થળની આજુબાજુનાં ૧૭૦ ગામો પ૦૦ બ્રાહ્મણોને દાનમાં આપ્યા. તથા સિહોર તથા આજુબાજુના ૮૯ ગામો બીજા ૫૦૦ બ્રાહ્મણોને સન્માનિત કરીને આપ્યાં. તેથી ઔદિચ્ય સહસ્ર બ્રાહ્મણ તરીકે ઓળખાયાં તથા ટોળકી બનીને દાન સ્વીકાર કરવાની ના પાડનારા ૩૭ બ્રાહ્મણોને રાજા દ્વારા સમજાવીને પાછળથી ૧૫ ગામ દાનમાં આપવામાં આવેલ.
૧૦૩૭ બ્રાહ્મણોને દાન આપવાની વિગતો શ્રી સ્થળ પ્રકાશમાં દશાઁવેલ છે. એ પૈકીનાં એક શ્લોક પ્રમાણે
वेदनेत्र नव समति वषेँ कातिँके शशितिषौ गुरुवारे ।
भकतदेव नृपति: समदाद सद्ग्राम दानानि पंडितेभ्य: ।।
અથાઁત શાકે ૯૨૪ ના કાતિઁક માસની પૂર્ણિમા અને ગુરુવારના દિવસે મહારાજા મૂળરાજે પંડિતોને સુંદર ગામોનાં દાન આપ્યાં.
સંસ્કૃતમાં ઉત્તર દીશાને ઉદીચી કહેવાય છે એથી આ ૧૦૩૭ બ્રાહ્મણોને ઉદીચ્ય (ઔદિચ્ય ) તરીકે ઓળખાય છે.
કહેવાય છે કે, પહેલાં સિદ્ધપુરનાં બ્રાહ્મણ સ્રીઓ મહારાજ મૂળરાજ દ્વારા અપાયેલ દાન બાદ એકવીસ બ્રાહ્મણ પત્નીઓ પોતાના ઘરે ગોરાણીઓ (બ્રાહ્મણ પરણિત સ્ત્રીઓને) તેડાવીને મિષ્ટ ભોજન જમાડીને પૂજન કરી દક્ષિણા આપીને ઔદીચ્ય દિન તરીકે ઉજવણી કરી હતી. આજેય આ પરંપરા સિદ્ધપુરમાં જાળવી રાખી છે. આજે દરેક બ્રાહ્મણ સ્રી કારતક પૂર્ણિમા અથવા આસપાસ ગુરુવાર રવિવાર અથવા મંગળવારે ત્રણ ગોયણી (ગોરાણી જમાડે છે) કરે છે.
૧૦૩૭ પૈકીના પ્રથમ એકવીસ બ્રાહ્મણોને ૨૧ પદ રૂપે શ્રીસ્થળ (સિદ્ધપુર) અને આજુબાજુની જાગીરો આપવામાં આવી.
દરેક પદમાં આજુબાજુની જમીન, ગામ, બગીચાઓ, જમીન, હાથી, ઘોડા, રથો, ગાયો, સુવણઁમુદ્રા, વસ્રો, અલંકારો, ગૃહ ઉપયોગી વાસણો તથા યજ્ઞયજ્ઞાદિ માટેનાં તમામ સાધનો
સભર પ્રથમ એકવીસ પદ લાયકાત પ્રમાણે આપવામાં આવ્યાં. (ક્રમશ)
ઉપરોકત લેખમાં જોડણીદોષ કે હકીકતદોષની સંભાવના હોઈ શકે છે અન્ય જગ્યાએ ઉપયોગમાં લેતાં પહેલાં તેની સત્યતાની ચકાસણી જાતે કરી લેવી જોઈએ. આપના પ્રતિભાવ (કોમેન્ટ) આવકાર્ય છે.
પોઝ બાય જયોતીન્દ્ર કા ભટ્ટ
સાહિત્ય સજઁન સિદ્ધપુર

रविवार, 10 नवंबर 2019

त्रिकाल संध्या विधि

।। शुक्लयजुर्वेदीय प्रातः-मध्याह्न-सायं सन्ध्या प्रयोग: ।।

॥ अथ शुक्लयजुर्वेदीयप्रातःसन्ध्याप्रयोगः ॥

॥ भस्मधारणम् ॥
ॐ अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म सर्वꣳ हवाऽ इदम भस्म मनऽ एतानि चक्षूꣳषि भस्मानि ॥

॥ गायत्रिमन्त्रः ॥
ॐ भुर्भुवःस्वः ॐ तत्सवितुर्व्वरेण्ण्यम्भर्ग्गो देवस्य धीमहि ।
धियोयोनः प्प्रचोदयत् ।।

ॐ त्र्यम्बकमित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः रुद्रो देवता अनुष्ठुब्छन्दः भस्माभिमन्त्रणे विनियोगः ॥
ॐ त्र्ययम्बकँय्यजामहेसुगन्धिम्पुष्ट्टिवर्द्धनम् ।
उर्व्वारुकमिव बन्धनान्न्मृत्योर्म्मुक्षीयमामृतात् ।।

ॐ त्र्यायुषमित्यस्य नारायण ऋषिः रुद्रो देवता उषिणक्छन्दः भस्मधारणे विनियोगः ॥
ॐ त्र्यायुषञ्जमदग्ग्नेः कश्श्यपस्यत्र्यायुषम् । यद्देवेषुत्र्यायुषन्तन्नोऽ अस्तुत्र्यायुषम् ।।

॥ आचमनम् ॥
ॐ केशवाय नमः स्वाहा ।
ॐ नारायणाय नमः स्वाहा ।
ॐ माधवाय नमः स्वाहा ।
ॐ गोविन्दाय नमः इति हस्तं प्रक्षाल्यम् ।

अथ देवतानमस्कारः ॥
ॐ विष्णवे नमः।
ॐ मधुसूदनाय नमः ।
ॐ त्रिविक्रमाय नमः ।
ॐ वामनाय नमः ।
ॐ श्रीधराय नमः।
ॐ ऋषिकेशाय नमः ।
ॐ पद्मनाभाय नमः ।
ॐ दमोदकराय नमः ।
ॐ सङ्कर्षणाय नमः ।
ॐ वासुदेवाय नमः।
ॐ प्रद्युम्नाय नमः।
ॐ अनिरुद्धाय नमः ।
ॐ पुरुषोत्तमाय नमः ।
ॐ अधोक्षजाय नमः।
ॐ नृसिंहाय नमः ।
ॐ अच्युताय नमः।
ॐ जनार्दनाय नमः।
ॐ उपेन्द्राय नमः ।
ॐ श्रीहरये नमः।
ॐ श्रीकृष्णाय नमः ।

॥ विनियोगः ॥
ॐ प्रणवस्य परब्रह्म ऋषिः परमात्मा देवता दैवी गायत्री छन्दः प्राणायामे विनियोगः ॥
प्राणायामः :- ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्
ॐ तत्सवितुर्व्वरेण्ण्यम्भर्ग्गो देवस्य धीमहि ॥ धियोयोनः प्प्रचोदयत् ।
ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवःस्वरोम् ॥
एवं पूरकः कुम्भकः रेचकः इति क्रमेण त्रिवारं पठेत् ॥

शिखाबन्धनम् ॥
ॐ मनस्तोक इति मन्त्रस्य कुत्स ऋषिः जगती छन्दः एको रुद्रो देवता शिखाबन्धने विनियोगः ॥

ॐमनस्तोकेतनयेमानऽआयुषिमानोगोषुमानोऽ अश्श्वेषुरीरिषः । मानोव्वीरान्न्रुद्रभामिनोव्वधीर्हवीष्म्मन्तः सदामित्वाहवामहे ।।

॥अङ्गन्यासः ॥
ॐ विष्णुर्विष्णुः वाक् वाक् प्राणः प्राणः चक्षुः चक्षुः श्रोत्रं श्रोत्रं नाभिः हृदयं कण्ठेः मुखं शिरः शिखा बाहुभ्यां यशोबलम् ॥

॥ मार्जनम् ॥
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा
सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं
स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
ॐ पवित्रेस्थोव्वैष्णव्यौसवितुर्वः प्रसवऽ उत्त्पुनाम्म्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभिः तस्यते पवित्रपते पवित्र पूतस्य यत्त्कामः पुनेतच्छकेयम् ॥

॥ सङ्कल्पः ॥
ॐ अत्राद्य महामाङ्गल्य फलप्रदमासोत्तमेमासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे ममोपात्तदुरितक्षयर्थं ब्रह्मवाप्तये प्रातःसन्ध्योपासनमहं करिष्ये ॥

॥ भूमिप्रार्थना विनियोगः ॥
ॐ पृथिवीत्यस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसने विनियोगः ॥
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका
देवि त्वं विष्णुना धृता ।
त्वञ्च धारय मां देवि
पवित्रं कुरु चासनम् ।।
ॐ कूर्माय नमः ।
ॐ शेषाय नमः ।
ॐ अनन्ताय नमः ।

॥ भूतशुद्धिः ॥
ॐ अपसर्पन्तु ते भूता
ये भूता भूमिसंस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तार
स्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ।।
अपक्रमन्तु भूतानि
पिशाचाः सर्वतोदिशम् ।
सर्वेषामविरोधेन
सन्ध्याकर्म समारम्भे ।।

।। मार्जनम् ।।
ॐ भुः पुनातु (शिरसि) ।
ॐ भुवः पुनातु (नेत्रयोः) ।
ॐ स्वः पुनातु (कण्ठे) ।
ॐ महः पुनातु (हृदये) ।
ॐ जनः पुनातु (नाभ्याम्) ।
ॐ तपः पुनातु (पादयोः) ।
ॐ सत्यं पुनातु (पुनः शिरसि) ।
ॐ तत्सवितुर्व्वरेण्ण्यम्भर्ग्गो देवस्य धीमहि ॥ धियोयोनः प्प्रचोदयत् ॥ (सर्वाङ्गं पुनातु)

॥ करन्यासः ॥
ॐ अङ्गुष्ठाग्रे तु गोविन्दं
तर्जन्यां तु महीधरम् ।
मध्यमायां ऋषिकेश
मनामिक्यां त्रिविक्रमम् ॥
कनिष्ठिक्यान्न्यसेद्विष्णुं
करमध्ये त् माधवम् ।
करपृष्ठे हरिं विद्यन्
मणिबन्धे जनार्दनम् ॥

॥ गायत्रीषडङ्गन्यासाः ॥
ॐ भुः हृदयाय नमः ।
ॐ भुवः शिरसे स्वाहा ।
ॐ स्वः शिखायै वषट् ।
ॐ तत्सवितुर्व्वरेण्ण्यं कवचाय हुम् ।
ॐ भर्ग्गो देवस्य धीमहि नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ धियोयोनः प्प्रचोदयत् अस्त्राय फट् ।

॥ प्रणवन्यासाः ॥
ॐ अकारम् नभौ ।
ॐ उकारम् हृदये ।
ॐ मकारम् मूर्ध्नि ।
ॐ भुः पादयोः ।
ॐ भुवः जान्वोः ।
ॐ स्वः ऊर्वोः ।
ॐ महः जठरे ।
ॐ जनः कण्ठे ।
ॐ तपः मुखे ।
ॐ सत्यम् शिरसि ।
ॐ तत्सवितुर्व्वरेण्ण्यम्भर्ग्गो देवस्य धीमहि ॥ धियोयोनः प्प्रचोदयत् ॥ (सर्वाङ्गे)

॥ गायत्र्यावाहानम् ॥
ॐ गायत्रीं त्र्यक्षरां बालां
साक्षसूत्रकमण्डलुम् ।
रक्तवस्त्रां चतुर्हस्तां
हंसवाहन्संस्थिताम् ।।
ब्रह्माणीं ब्रह्मदैवत्यां
ब्रह्मलोकानिवासिनीम् ।
आवाहयाम्यहं देवी
मायान्तीं सूर्यमण्डलात् ।।
आगच्छ वरदे देवि
त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि ।
गायत्रि छन्दसां मात
र्ब्रह्मयोनि नमोऽस्तु ते ॥

॥ अम्बुप्राशनम्  विनियोगः ॥
ॐ सूर्यश्चमेत्यस्य नारायणः ऋषिः सूर्यो देवता अनुष्टुब्छ्न्दः अम्बुप्राशने विनियोगः ।।
ॐ सूर्यश्चमा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्तां यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु यत्किञ्चिद्दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सूर्य्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ।।

॥ मार्जनम्  विनियोगः ॥
ॐ आपोहिष्ठेति तिसृणां सिन्धुद्विप ऋषिः गायात्रिछ्न्दः आपोदेवता मार्जने विनियोगः ॥
ॐ आपोहिष्ठ्ठामयो भुवस्तानऽ ऊर्ज्जेदधातन ।
महेरणाय चक्षसे योवः शिव तमोरस स्तस्य भाजयतेहनः ।
उशतीरिवमातरः तस्म्माऽ अरङ्ग मामवोयस्य क्षयायजिन्न्वथऽ आपो जनयथाचनः ।।

॥ अघमर्षणम् विनियोगः॥
ॐ द्रुपादिवेत्यस्य कोकिलराजपुत्र ऋषिः अनुष्ठुब्छन्दः आपो देवता अघमर्षणे विनियोगः॥
ॐ द्रुपदादिवमुमुचानः स्विन्नःस्नातोमलादिव । पूतम्पवित्रेणेवाज्ज्यमापः शुन्धन्तुमैनसः ।।
(अनेन मन्त्रेण पापं ध्यात्वा तज्जलं वामतः क्षिपेत्)

॥ अर्घ्यम् ॥
ॐ भुर्भुवःस्वः ॐ तत्सवितुर्व्वरेण्ण्यम्भर्ग्गो देवस्य धीमहि ।
धियोयोनः प्प्रचोदयत् ।।
ॐ प्रातः सन्ध्यायां ब्रह्म स्वरूपिणे सवित्रे सूर्यनारायणाय नमः ।
इदमर्घ्यं दत्तं न मम ॥
(एवम त्रिवारं अर्घ्यं दद्यात्)
ॐ असावादित्यो ब्रह्म

॥ सूर्योपस्थानम् ॥
ॐ उद्वयन्तमसस्प्परिस्वः पश्श्यन्तऽ उत्तरम् ॥
देवन्देवत्र सूर्य्य्मगन्न्मज्ज्योतिरुत्तमम् ।
उदुत्त्यञ्जातवेदसन्देवं व्वहन्ति केतवः ।
दृशेव्विश्श्वायसूर्य्यम् ।।
ॐ चित्रन्देवानामुदगादनी कं चक्षुर्म्मित्रस्यव्वरुणस्याग्ग्नेः । आप्प्राद्ध्यावापृथिवीऽ अन्तरिक्षꣳ सूर्य्यऽआत्क्मा जगतस्तस्थुषश्च ।।
ॐ तच्चक्षुर्द्देवहितम्पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् ।
पश्श्येमशरदः शतञ्जीवेमशरदः शतꣳशृणुयामशरदः शतम्प्रब्ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्यामशरदः शतम्भूयश्श्च्चशरदः शतात् ।।

॥गयात्र्यावाहन विनियोगः॥
ॐ तेजोसीत्यस्य परमेष्ठी प्रजापतिरृषिः
आज्यं देवता जगती छन्दःयजुर्गायत्र्यावाहने विनियोगः ।।

ॐतेजोसिशुक्क्रमस्यमृतमसिधामनामासिप्प्रियन्देवानामनाधृष्ट्टन्देवयजनमसि ॥

॥ अथ मुद्रप्रदर्शनम् ॥
ॐ सुमुखं सम्पुटं चैव
विततं विस्तृतं तथा ।
द्विमुखं त्रिमुखं चैव
चतुष्पञ्चमुखं तथा ॥
षण्मुखाधोमुखं चैव
व्यापकाञ्जलिकं तथा ।
शकटं यमपाशं च
ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम् ॥
प्रलम्बं मुष्टिकं चैव
मत्स्यः कूर्मो वराहकम्।
सिंहाक्रान्तां महाक्रान्तं
मुद्गरं पल्लवं तथा॥

॥ शापविमोचनम् ॥
ॐ भो गायत्रि देवि त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव ॥
ॐ भो गायत्रि देवि त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव ॥
(महामुद्रं (योनिमुद्रां) प्रदर्श्य त्रिवारं मनसि गायत्रीमन्त्रं जपेत्)

ॐ भुर्भुवःस्वः ॐ तत्सवितुर्व्वरेण्ण्यम्भर्ग्गो देवस्य धीमहि ।
धियोयोनः प्प्रचोदयत् ॐ ।।

ॐ भो गायत्रि देवि त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव ॥
ॐ भो गायत्रि देवि त्वं शुक्रशापाद्विमुक्ता भव ॥

॥ अथ गायत्रीध्यानम् ॥
मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवल
च्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणै,
र्युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां
तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम् ।
गायत्रीं वरदाभयाङ्कुशकशां
शुभ्रं कपालं गुणं,
शङ्खं चक्रमथारविन्दयुगलं
हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥

॥ पश्चाद् १०८ वारं गायत्रीमन्त्रं जपेत् ॥
ॐ सुरभिर्ज्ञानं वैराग्यं योनिः शङ्खोऽथ पङ्कजम् लिङ्गं निर्वाणेति जपेत् ॥

॥ जपार्णम् ॥
ॐ अनेन प्रातःसन्ध्याङ्गभुतेन यथाशक्ति गायत्रीमन्त्रजपेन गायत्री देवी प्रीयतां न मम ॥

॥ प्रार्थना ॥
ॐ यदक्षरपदभ्रष्टं
मात्राहीनं च यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि
प्रसीद परमेश्वरि ॥
उत्तरे शिखरे देवि
भूम्यां पर्वतमूर्धनि ।
ब्रह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता
गच्छ देवि यथासुखम् ॥

॥ गोत्रप्रवरोच्चारणपूउर्वकमभिवादनम् ॥
ॐ अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुकप्रवरान्वितः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयि माध्यान्दिनीयशाखाध्यायी अमुकशर्माहम् ॥
भो आचार्य ! त्वामभिवादयामि ।
भो वैश्वानर ! त्वामभिवादयामि ।
भो सूर्यचन्द्रमसौ ! युवामभिवादयामि ।
भो मातापितरौ ! युवामभिवादयामि ।
भो याज्ञवल्क्य ! त्वामभिवादयामि ।
भो ईश्वर ! त्वामभिवादयामि ।

॥ सन्ध्यार्पणम् ॥
ॐ अनेन प्रातः सन्ध्योपासनाख्येन कर्मणा भगवान् ब्रह्मस्वरूपी परमेश्वरः प्रीयतां न मम ॥
ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु ॥(त्रिराचमेत्)

॥ हस्तौ बद्धवा ॥
ॐ यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या
तपोयज्ञक्रियादिषु ।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति
सद्यो वन्दे तमच्युतम् ।।

ॐ विष्णवे नमः ।
ॐ विष्णवे नमः ।
ॐ विष्णवे नमः ।
ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु ॥
इति प्रातः सन्ध्याप्रयोगः ॥

॥ अथ शुक्लयजुर्वेदीयमध्याह्नसन्ध्याप्रयोगः ॥

॥ सङ्कल्पः ॥
ॐ अत्राद्य महामाङ्गल्यफलप्रदमासोत्तमेमासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे ममोपात्तदुरितक्षयर्थं रुद्रावाप्तये मध्याह्नसन्ध्योपासनमहं करिष्ये ॥

॥सावित्र्यावाहनम् ॥
ॐ सावित्रीं युवतीं शुक्लां
शुक्लवस्त्रां त्रिलोचनाम् ।
त्रिशूलिनीं वृषारूढां
रुद्ररूपिणीसंस्थिताम् ।।
रुद्राणीं रुद्रदैवत्यां
रुद्रलोकानिवासिनीम् ।
आवहयाम्यहं देवी
मायान्तीं रुद्रमण्डलात् ॥
आगच्छ वरदे देवि
त्र्यक्षरे रुद्रवादिनि ।
सावित्रि छन्दसां मात
र्रुद्रयोनि नमोऽस्तुते ॥

॥ अम्बुप्राशनम्  विनियोगः ॥
ॐ आपः पुनन्त्विति मन्त्रस्य नारायण ऋषिः आपो देअवता गायात्री छन्दः अम्बुप्राशने विनियोगः ॥
ॐ आपः पुनन्तु पृथवीं पृथवीपूता पुनातु माम् ।
पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ह्मपूता पुनातु माम् ।
यदुच्छिष्टमभोज्यं च यद्वादुश्चरितं मम ।
सर्वां पुनन्तु मामापो सताञ्च प्रतिग्रहꣳस्वाहा ।।

॥ अर्घ्यम् ॥
(एकवारं गायत्रीमन्त्रेण अर्घ्यं दद्यात्)
ॐ आकृष्ण्णेनरजसाव्वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्त्यञ्च । हिरण्ण्ययेनसवितारथेनादेवोयाति भुवनानिपश्श्यन् ।।
ॐ मध्याह्नसन्ध्यायां रुद्र स्वरूपिणे सवित्रे सूर्यनारायणाय नमः ।
इदमर्घ्यं दत्तं न मम ॥
ॐ असावादित्यो ब्रह्म ॥

॥ जपार्णम् ॥
ॐ अनेन मध्याह्नसन्ध्याङ्गभुतेन यथाशक्ति गायत्रीमन्त्रजपेन गायत्री देवी प्रीयतां न मम ॥

॥ सन्ध्यार्पणम् ॥
ॐ अनेन मध्याह्नसन्ध्योपासनाख्येन कर्मणा भगवान् रुद्रस्वरूपी परमेश्वरः प्रीयतां न मम ॥
ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु ॥ ( त्रिराचमेत् )
॥ इति मध्याह्नसन्ध्याप्रयोगः ॥

॥ अथ शुक्लयजुर्वेदीयसायंसन्ध्याप्रयोगः ॥

॥ सङ्कल्पः ॥
ॐ अत्राद्य महामाङ्गल्यफलप्रदमासोत्तमेमासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे ममोपात्तदुरितक्षयर्थं विष्णुवाप्तये सायंसन्ध्योपासनमहं करिष्ये ॥

॥ सरस्वत्यावाहनम् ॥
ॐ वृद्धां सरस्वतीं कृष्णां
पीतवस्त्रां चतुर्भुजाम् ।
शङ्खचक्रगदापद्म
हस्तां गरुडवाहिनीम् ॥
वैष्ण्वीं विष्णुदैवत्यां
विष्णुलोकनिवासिनीम् ।
आवाहयाम्यहं देवी
मायान्तीं विष्णुमण्डलात् ॥
आग्च्छ वरदे देवि
त्र्यक्षरे विष्णुवादिनि ।
सरस्वति छन्दसा मात
र्विष्णुयोनि नमोऽस्तुते ॥

॥ अम्बुप्राशनम् विनियोगः ॥
ॐ अग्निश्चमेत्यस्य नारायणः ऋषिः अग्निर्देवता अनुष्टुब्छ्न्दः अम्बुप्राशने विनियोगः ॥
ॐ अग्निश्चमा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्तां यदह्ना पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुम्पतु यत्किञ्चिद्दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सत्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ॥

॥ अर्घ्यम् ॥
(त्रिवारं गायत्रीमन्त्रेण अर्घ्यं दद्यात्)
ॐ सायंसन्ध्यायां विष्णु स्वरूपिणे सवित्रे सूर्यनारायणाय नमः ।
इदमर्घ्यं दत्तं न मम ॥

॥ जपार्णम् ॥
ॐ अनेन सायंसन्ध्याङ्गभुतेन यथाशक्ति गायत्रीमन्त्रजपेन गायत्री देवी प्रीयतां न मम ॥

॥ सन्ध्यार्पणम् ॥
ॐ अनेन सायंसन्ध्योपासनाख्येन कर्मणा भगवान् विष्णुस्वरूपी परमेश्वरः प्रीयतां न मम ॥
ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु ॥
( त्रिराचमेत् )

॥ इति सायंसन्ध्याप्रयोगः ॥