सोमवार, 26 अगस्त 2019

पारद शिवलिंग

अनंत काल से मानव का ये सहज स्वभाव रहा है के जब तक वो किसी चमत्कारी वास्तु को स्वयं देख परख नहीं लेता तब तक वो विशवास नहीं करता । उधाहरण के लिए यदि आज से 25 वर्ष पहले कोई हमसे कहता के भविष्य मे इस तरह के फ़ोन अयेंगे जिन में कोई तार नहीं लगी होगी , उसमे कैमरा भी होगा , वो अपने आप रास्ता भी बताएगा ,उसमे ही फिल्में भी देख सकेंगे ,वो हर प्रकार की जानकारी भी देगा , उसमें बहुत दूर बैठे हुए दोस्त के साथ एक दूसरे को देखते हुऐ बात हो जाया करेगी , वगैरह वगैरह .... , तो शायद हम उसे एकदम सिरफिरा या पागल कहते , लेकिन आज स्मार्ट फोन एक आम बात हो गयी है ।
        रसशस्त्र भी अभी तक साबित नहीं हुआ है इसीलिए ये कुछ लोगो के लिए अविश्वसनीय है , रसशस्त्र में लिखा है मूर्छित पारा रोगी के रोगों को दूर करता है इस बात पर तो सभी विश्वास कर लेंगे क्योंकि ये बात साबित हो चुकी है । मूर्छित पारा क्या है ... ये है रस सिन्दूर, मकर ध्वज, रस कपूर और आयुर्वेद के रस रसायन जो सभी बीमारियो को जड़ से खत्म करते है और बैद्यनाथ , डाबर अदि बड़ी कंपनियों द्वारा बनाये जाते हैं और इनका सेवन कर लोग बीमारी से मुक्ति प्राप्त करते हैं , अब ये बात साबित हो चुकी इस लिए ये कोई आश्चर्य का विषय नहीं है ।
          अब आगे लिखा है के पारे के माधयम से मनुष्य आकाश मार्ग से यात्रा कर सकता है , ये आश्चर्य का विषय है क्योंके अभी तक साबित नहीं हुआ । ऐसे पारे को रस ग्रंथों में खेचरी बद्ध पारद कहा गया है जिस के माधयम से विमान भी उड़ाए जाते थे , रावण का पुष्पक विमान इसी खेचरी बद्ध पारद से उड़ाया जाता था ऐसा रस ग्रन्थो में लिखा है ।
       अब आगे लिखा है के बद्ध पारा धन दे  , ये भी आश्चर्य का विषय है ... पारा धन कैसे देगा ? , पारे के कुल 18 संस्कार बताये गए हैं जिन में से 17वा संस्कार का नाम है वेध , जिसका अर्थ है ऐसा पारा जो स्पर्श करने से ही निम्न धातुओं को स्वर्ण में परवर्तित कर सकता है , कुछ लोग इस बात पर बहुत संदेह करते है लेकिन जब  वे मेरे द्वारा बनाये गए शिवलिंग पर शुद्ध स्वर्ण की चमक आते हुए अपनी आँखों से देखते हैं तो कुछ सोचने के लिए तो मजबूर हो ही जाते हैं ,यहाँ मे अपनी प्रशंसा नहीं करना चाहता बल्कि ये कहना चाहता हु के ये विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है । मैंने सिर्फ 8 संस्कार किये है और इस अष्ट संस्कार युक्त पारद शिवलिंग पर  सोने को चमक आती है ये उन लोगो ने भी देखा है जिन को ये शिवलिंग मैंने बना कर दिए हैं ।
अगर 8 संस्कार किये हुए पारद शिवलिंग पर शुद्ध स्वर्ण जैसी चमक आ सकती है तो 17 संस्कार किये हुए पारे से स्वर्ण निर्माण भी संभव है , इसमें कोई शक नहीं ।
        अब आगे सब से आश्चर्यजनक बात लिखी है के मृत पारा मृत्यु का नाशक है और सदा तरुणावस्था मतलब जवानी को स्थिर रखने वाला और पृथ्वी के समस्त रोगों को दूर करने वाला है ,ऐसा भी लिखा हुआ है के न तो ऐसा कोई रोग हुआ है और न ही भविष्य में कोइ ऐसा रोग हो सकता है जिसे मृत पारद (पारे की भस्म) से ठीक न किया जा सकता हो।  रस शास्त्र में पारे की सिद्धि दो तरह से बताई गयी है धातुवाद और देहसिद्ध , 17 संस्कार तक धातुवाद और 18 वा संस्कार जिसे भक्षण या शरीरयोग कहते हैं वो देहसिद्ध के लिए किया जाता है । रस शस्त्र में ये साफ़ लिखा है के परम लक्ष्य देहसिद्ध होना चाहिए न के धातुवाद क्योंकि सिर्फ सोना बना लेने की विधी को रसशस्त्र की पूर्णता मान लेना वैसा ही है जैसे कोई समुन्द्र में से कुछ कौड़िया प्राप्त कर के संतुष्ट हो जाये ।
       देहसिद्ध रसयोगी पूर्णता स्वस्थ रह कर हज़ारों वर्षों तक जीवत रहते थे , जिसकी उधाहरण हमे रामायण और महाभारत में मिलती है ।
      महर्षि विश्वामित्र जी का वर्णन हमे रामायण में भी मिलता है और महाभारत में भी , जब के दोनों में दो युगों का अंतर है । रामायण त्रेता युग में हुई थी और महाभारत द्वापर युग में । दो युग बीत गए और महर्षि विश्वामित्र जी दोनों युगों में उपस्थित हैं ये कैसे संभव है ...?
        अंत में यही कहूँगा के संभव है ... लेकिन मानव का ये सवभाव है के जब तक वो किसी चमत्कार को स्वयं न देख ले तब तक वो विश्वास नहीं करता ।
     ~~~~ ॐ नमः शिवाय् ~~~~
   

गुरुवार, 22 अगस्त 2019

होमे मुद्रा स्मृतास्तिस्रो

होमे मुद्रा स्मृतास्तिस्रो
मृगी हंसी च सूकरी।
मुद्राँ बिना कृतो होमः
सर्वो भवति निष्फलः।

शान्तके तु मृगी ज्ञेया
हंसी पौष्टिक कर्मणि।
सूकरी त्वभिचारे तु
कार्ण तंत्र विदुत्तमेः।

-परशुराम कारिका

होम में मृगी, हंसी तथा सूकरी यह तीन मुद्रा प्रयुक्त होती हैं। मुद्रा रहित हवन निष्फल होता है। शान्ति कर्मों में मृगी मुद्रा, पौष्टिक कर्मों में हंसी और अभिचार कर्मों में सूकरी मुद्रा प्रयुक्त होती है।

कनिष्ठा तर्जनी हीना
मृगी मुद्रा निरुच्यते।
हंसी मुक्त कनिष्ठा स्यात्
कर संकोच सूकरी।

-परशुराम कारिका

कनिष्ठा और तर्जनी उंगलियाँ जिसमें प्रयुक्त न हों वह मृगी मुद्रा है कनिष्ठा रहित हंसी मुद्रा होती हैं और हाथ को सकोड़ने से सुकरी मुद्रा बन जाती है।

                      

सोमवार, 19 अगस्त 2019

चन्द्रशेखराष्टकस्तोत्रम्


*चन्द्रशेखराष्टकस्तोत्रम्*

चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर
चन्द्रशेखर पाहि माम् ।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर
चन्द्रशेखर रक्ष माम् ॥१॥

रत्नसानुशरासनं रजताद्रिशृङ्गनिकेतनं
सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम् ।
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदिवालयैरभिवन्दितं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥२॥

पञ्चपादपपुष्पगन्धपदांबुजद्वयशोभितं
भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम् ।
भस्मदिग्धकलेबरं भव नाशनं भवमव्ययं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥३॥

मत्तवारणमुख्यचर्मकॄतोत्तरीयमनोहरं
पङ्कजासनपद्मलोचनपूजितांघ्रिसरोरुहम् ।
देवसिन्धुतरङ्गसीकर सिक्तशुभ्रजटाधरं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥४॥

यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्गविभूषणं
शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेबरम् ।
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥५॥

कुण्डलीकृतकुण्डलेश्वर कुण्डलं वृषवाहनं
नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् ।
अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥६॥

भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं
दक्षयज्ञविनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम् ।
भुक्तिमुक्तिफलप्रदं सकलाघसंघनिबर्हणं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥७॥

भक्तवत्सलमर्चितं निधिक्षयं हरिदंबरं
सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनुत्तमम् ।
सोमवारिदभूहुताशनसोमपानिलखाकृतिं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥८॥

विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं
संहरन्तमपि प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम् ।
कीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमन्वितं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥९॥

मृत्युभीतमृकण्डुसूनुकृतस्तवं शिवसन्निधौ
यत्र कुत्र च यः पठेन्न हि तस्य मृत्युभयं भवेत् ।
पूर्णमायुररोगतामखिलार्थसंपदमादरात्
चन्द्रशेखर एव तस्य ददाति मुक्तिमयत्नतः ॥१०॥

इति श्रीचन्द्रशेखराष्टकस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

रविवार, 18 अगस्त 2019

एक से दस

दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

उक्त जानकारी शास्त्रोक्त 📚 आधार पर... हैं ।

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*ब्राहाण जागरण के 25 सूत्र।*

*ब्राहाण जागरण के 25 सूत्र।*
(01) *ब्राह्मण एक हों।*
(02) *भगवान परशुराम को अपना नायक मानें*
(03) *छोटे छोटे संगठनों के ब्राह्मण कोष बनें*!
(04) *कोष से गरीब ब्राह्मणों की मदद हो।*
(05) *ब्राह्मण कोई न कोई तकनीक सीखें*!
(06) *ब्राह्मण अधिकारी,प्रधानाचार्य, नेता, उद्योगपति, कानून के अंदर ब्राह्मण के काम को यथा संभव हो तो आगे बढ़कर मदद करे*
(07) *डा. बी.आर अम्बेडकर के कारण ब्राह्मणो का पतन हुआ है,इसलिए डाँ. बी.आर अम्बेडकर के विरुद्ध पंडित मदन मोहन मालवीय को खड़ा करें*
(08) *पढ़े लिखे ब्राह्मण डाक्टर बी आर अम्बेडकर की समस्त थियोरी को ध्वस्त करें*
(09) *अस्पृश्यता बिलकुल न रखें, लेकिन शुचिता अवश्य रखें*
(10) *ब्राह्मण होने पर गर्व करें।*
(11) *सभी ब्राह्मण अपने नाम से पहले पंडित शब्द लगाएं। शिखा, यग्योपवीत और चंदन लगाना प्रारम्भ करें*
(12) *ब्राह्मण,ब्राह्मण की निंदा कभी न करे। यदि कोई करता है,तो तार्किक विरोध करे।*
(13) *आरक्षण समाप्ति का मिलकर आंदोलन चलाये।*
(14) *जहाँ भी वेदों,उपनिषदों, रामायण, महाभारत,गीता का विरोध हो,मुकाबला करें*
(15) *मनुस्मृति का अपमान बिलकुल सहन न करें*
(16) *श्री राम चरित मानस को अपना गौरव ग्रंथ मानें व बच्चों को अवश्य पढ़ाएं*
(17) *इतिहास के ब्राह्मण नायकों पर शोध पूर्ण लेख लिखा जाए*
(18) *ब्राह्मण पहले बनें,बाद सबको ज्ञान दें*
(20) *सभी ब्राह्मण प्रति दिन मंदिर जाएं और यथाशक्ति दान करें*
(21) *संगठित होकर रहे।किसी ब्राह्मण पर संकट आने पर मिलकर मुकाबला करें।*
(22) *प्राचीन व आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें*
(23) *कैरियर पर अधिक ध्यान दें*
(24) *जीविका के लिए जो भी काम मिले, ईश्वर का नाम लेकर करें*
(25) *भगवान परशुराम में आस्था रखें। भगवान परशुराम का प्रचार प्रसार करें। सभी ब्राह्मण घर मैं भगवान परशुराम की पूजा और आरती करें*
*सभी ब्राह्मण आपस मैं जय श्री परशुराम का संबोधन करें।*
सभी ब्राह्मण एक मंच पर एकत्र हों।
*अगर आप ब्राह्मण है, तो इस संदेश को अपने सभी बंधुओं तक जरूर भेजे और बार बार भेजे।*
*ब्राह्मण एकता !जिंदाबाद*
*जय श्री परशुराम*

शनिवार, 17 अगस्त 2019

अग्निवास का मुहूर्त जानना

अग्निवास का मुहूर्त जानना

(भू रुदन, भू रजस्वला, भू शयन, भू हास्य, किस पक्ष मे शुभ कार्य न करे, यज्ञ कुंड के प्रकार, कितना हवन किया जाए विस्तृत वर्णन?)

कोई भी अनुष्ठान के पश्चात हवन करने का शास्त्रीय विधान है और हवन करने हेतु भी कुछ नियम बताये गए हैं जिसका अनुसरण करना अति – आवश्यक है , अन्यथा अनुष्ठान का दुष्परिणाम भी आपको झेलना पड़ सकता है ।

इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है हवन के दिन ‘अग्नि के वास ‘ का पता करना ताकि हवन का शुभ फल आपको प्राप्त हो सके ।

1  जिस दिन आपको होम करना हो, उस दिन की तिथि और वार की संख्या को जोड़कर 1 जमा (1 जोड़ ) करें फिर कुल जोड़ को 4 से भाग देवें- अर्थात् शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि तक गिनें तथा एक जोड़े , रविवारसे दिन गिने पुनः दोनों को जोड़कर  चार का भाग दें।

यदि शेष शुन्य (0) अथवा 3 बचे, तो अग्नि का वास पृथ्वी पर होगा और इस दिन होम करना कल्याणकारक होता है ।

 यदि शेष 2 बचे तो अग्नि का वास पाताल में होता है और इस दिन होम करने से धन का नुक्सान होता है ।

 यदि शेष 1बचे तो आकाश में अग्नि का वास होगा, इसमें होम करने से आयु का क्षय होता है ।

अतः यह आवश्यक है की होम में अग्नि के वास का पता करने के बाद ही हवन करें ।

शास्त्रीय विधान के अनुसार वार की गणना रविवार से तथा तिथि की गणना शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से करनी चाहिए तदुपरांत गृह के ‘मुख-आहुति-चक्र ‘ का विचार करना चाहिए ।

मान लो आज हम कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि मे चल रहे है तो ।

शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक 15 तिथि तो कुल योग आया 15 + 4 + 1 = 20

आज कौन सा दिन हैं और इस दिन को रविवार से गिने। मानलो आज बुधवार हैं तो रविवार से गिनने पर बुधवार 3 आया । कुल योग 20 + 3 = 23/4 कर दे तो शेष कितना बचा।  4 - 23 / 5

 20 में 4 के भाग में 3 को शेष कहा जायेगा । परिणाम इस प्रकार से होंगे ।

 शेष 0 तो अग्नि का निवास पृथ्वी पर ।

 शेष 1 तो अग्नि का निवास आकाश मे ।

 शेष 2 तो अग्नि का निवास पाताल मे ।

 शेष 3 बचे तो पृथ्वी पर माने ।

पृथ्वी पर अग्नि वास सुख कारी होता हैं । आकाश मे प्राणनाश और पाताल मे धन नाश होता हैं । मतलब हमें वह तिथि चुनना हैं जिस तिथि मे शेष 3 बचे ।

वह तिथि ही लाभकारी होगी । प्रज्वलित अग्नि के आकार को देख कर कई नाम रखे गए हैं । पर अभी उनसे हमें सरोकार नही हैं । इस तरह से अग्नि वास का पता हमें लगाना हैं।

भू रुदन :-  हर महीने की अंतिम घडी, वर्ष का अंतिम् दिन, अमावस्या, हर मंगल वार को भू रुदन होता हैं । अतः इस काल को शुभ कार्य भी नही किया जाना चाहिए ।

यहाँ महीने का मतलब हिंदी मास से हैं और एक घडी मतलब 24 मिनिट हैं । अगर ज्यादा गुणा न किया जाए तो मास का अंतिम दिन को इस आहुति कार्य के लिए न ले।

भू रजस्वला :- इस का बहुत ध्यान रखना चाहिए। यह तो हर व्यक्ति जानता हैं की मकरसंक्रांति लगभग कब पड़ती हैं । अगर इसका लेना देना मकर राशि से हैं तो इसका सीधा सा तात्पर्य यह हैं की हर महीने एक सूर्य संक्रांति पड़ती ही हैं और यह एक हर महीने पड़ने वाला विशिष्ट साधनात्मक महूर्त होता हैं ।

तो जिस भारतीय महीने आपने आहुति का मन बनाया हैं ठीक उसी महीने पड़ने वाली सूर्य संक्रांति से (हर लोकल पंचांग मे यह दिया होता हैं । लगभग 15 तारीख के आस पास यह दिन होता हैं । मतलब सूर्य संक्रांति को एक मान कर गिना जाए तो 1, 5, 10, 11, 16, 18, 19 दिन भू रजस्वला होती हैं ।

भू शयन :- आपको सूर्य संक्रांति समझ मे आ गयी हैं तो किसी भी महीने की सूर्य संक्रांती से 5, 7, 9, 15, 21 या 24 वे दिन को भू शयन माना जाया हैं ।

सूर्य जिस नक्षत्र पर हो उस नक्षत्र से आगे गिनने पर 5, 7,9, 12, 19, 26 वे नक्षत्र मे पृथ्वी शयन होता हैं । इस तरह से यह भीकाल सही नही हैं ।

भू हास्य क्या है ?  भू हास्य  तिथि मे पंचमी ,दशमी ,पूर्णिमा ।
वार मे - गुरुवार ।

नक्षत्र मे पुष्य, श्रवण मे पृथ्वी हसती हैं ।
अतः इन दिनों का प्रयोग किया जाना चाहिए ।

गुरु और शुक्र अस्त यह दोनों ग्रह कब अस्त होते हैं और कब उदित ।

आप स्थानीय पंचांग मे बहुत ही आसानी से देख सकते हैं और इसका निर्धारण कर सकते हैं । अस्त होने का सीधा सा मतलब हैं की ये ग्रह सूर्य के कुछ ज्यादा समीप हो गए और अब अपना असर नही दे पा रहे हैं ।

क्यूंकी इन दोनों ग्रहो का प्रत्येक शुभ कार्य से सीधा लेना देना हैं । अतः इनके अस्त होने पर शुभ कार्य नही किये जाते हैं और इन दोनों के उदय रहने की अवस्था मे शुभ कार्य किये जाना चाहिये ।

आहुति कैसे दी जाए :-  आहुति देते समय सामग्री को अपने सीधे हाँथ के मध्यमा और अनामिका और अंगूठे का सहारा ले कर उसे प्रज्ज्वलित अग्नि मे ही छोड़ा जाए ।

आहुति हमेशा झुक कर डालना चाहिए वह भी इस तरह से की पूरी आहुति अग्नि मे ही गिरे ।

 जब आहुति डाली जा रही हो तभी सभी एक साथ स्वाहा शब्द बोले । (यह एक शब्द नही बल्कि एक देवी का नाम है )

जिन मंत्रो के अंतमे स्वाहा शब्द पहले से हैं उसमे फिर से पुनःस्वाहा शब्द न बोले यह ध्यान रहे।

वार रविवार और गुरुवार सामन्यतः सभी यज्ञों के लिए श्रेष्ठ दिवस हैं । शुकल पक्ष मे यज्ञ आदि कार्य कहीं ज्यादा उचित हैं ।

किस पक्ष मे शुभ कार्य न करे :- ग्रंथ कार कहते हैं की जिस पक्ष मे दो क्षय तिथि हो मतलब वह पक्षः 15 दिन का न हो कर 13 दिन का ही हो जायेगा उस पक्ष मे समस्त शुभ कार्य वर्जित हैं ।

ठीक इसी तरह अधि़क मास या मल मास मे भी यज्ञ कार्य वर्जित हैं ।

किस समय हवन आदि कार्य करें :- सामान्यतः आपको इसके लिए पंचांग देखना होगा । उसमे वह दिन कितने समय का हैं । उस दिन मान के नाम से बताया जाता हैं ।

उस समय के तीन भाग कर दे और प्रथम भाग का उपयोग यज्ञ अदि कार्यों के लिए किया जाना चाहिए । साधारण तौर से यही अर्थ हुआ की की दोपहर से पहले यज्ञ आदि कार्य प्रारंभ हो जाना चहिये ।

हाँ आप राहु काल आदि का ध्यान रख सकते हैं और रखना ही चहिये क्योंकि यह समय बेहद अशुभ माना जाता हैं । श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पण्ड्याजी +919824417090

श्री सूक्तम्

|| श्रीसूक्तम् ||
ॐ हिरण्यवर्णाम हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥१॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥२॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मादेवी जुषताम्॥३॥
कांसोस्मितां हिरण्यप्राकारां आद्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वयेश्रियम्॥४॥
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियंलोके देव जुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥५॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तववृक्षोथ बिल्व:।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मी:॥६॥
उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्चमणिना सह।
प्रादुर्भुतो सुराष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृध्दिं ददातु मे॥७॥
क्षुत्पपासामलां जेष्ठां अलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृध्दिं च सर्वानिर्णुद मे गृहात॥८॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरिं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥९॥
मनस: काममाकूतिं वाच: सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्री: श्रेयतां यश:॥१०॥
कर्दमेनप्रजाभूता मयिसंभवकर्दम।
श्रियं वासयमेकुले मातरं पद्ममालिनीम्॥११॥
आप स्रजन्तु सिग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥१२॥
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टि पिङ्गलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥१३॥
आर्द्रां य: करिणीं यष्टीं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मी जातवेदो म आवह॥१४॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्॥१५॥
य: शुचि: प्रयतोभूत्वा जुहुयाादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्च च श्रीकाम: सततं जपेत्॥१६॥
पद्मानने पद्मउरू पद्माक्षि पद्मसंभवे।
तन्मे भजसि पद्मक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्॥१७॥
अश्वदायै गोदायै धनदायै महाधने।
धनं मे लभतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥१८॥
पद्मानने पद्मविपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णुमनोनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि संनिधस्त्वं॥१९॥
पुत्रपौत्रं धनंधान्यं हस्ताश्वादिगवेरथम्।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे॥२०॥
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्योधनं वसु।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरूणं धनमस्तु मे॥२१॥
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृतहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिन:॥२२॥
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभामति:।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्॥२३॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांसुकगन्धम
ाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीदमह्यम्॥२४॥
विष्णुपत्नीं क्षमां देवी माधवी माधवप्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥२५॥
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात्॥२६॥
श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धान्यं धनं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायु:॥२७॥
॥इति श्रीसूक्तं समाप्तम॥

शनिवार, 10 अगस्त 2019

भूमि गत धन प्राप्ति ना योगो ~~~~~ ભૂમિગત ધન મળવા ના યોગ~~~

~~~~~ ભૂમિગત ધન મળવા ના યોગ~~~

१~લગ્નનો સ્વામી શુભગ્રહ ધનભાવમાં હોય તો તે જાતક ને જમીનમાં થી દાટેલું ધન મળવા પામે... (ભ, વ, 251)...
२~

गुरुवार, 8 अगस्त 2019

आरती की महिमा

आरती की महिमा

आरती को आरात्रिक , आरार्तिक अथवा नीराजन भी कहते हैं। पूजा के अंत में आरती की जाती है। जो त्रुटि पूजन में रह जाती है वह आरती में पूरी हो जाती है।

स्कन्द पुराण में कहा गया है-
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते निराजने शिवे।।
अर्थात - पूजन मंत्रहीन तथा क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है।

आरती करने का ही नहीं, देखने का भी बड़ा पूण्य फल प्राप्त होता है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-
नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम।।
अर्थात - जो भी देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती देखता है, वह सातों जन्म में ब्राह्मण होकर अंत में परम् पद को प्राप्त होता है।

श्री विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है-
धूपं चरात्रिकं पश्येत काराभ्यां च प्रवन्देत।
कुलकोटीं समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।
अर्थात - जो धुप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।

आरती में पहले मूल मंत्र (जिस देवता का, जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े, शख्ङ, घड़ियाल आदि महावाद्यो के तथा जय-जयकार के शब्दों के साथ शुभ पात्र में घृत से या कर्पूर से विषम संख्या में अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिए-
ततश्च मुलमन्त्रेण दत्त्वा पुष्पाञ्जलित्रयम्।
महानिराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।।
प्रज्वलेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्दिकम्।।
अर्थात - साधारणतः पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे 'पञ्चप्रदीप' भी कहते है। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कर्पूर से भी आरती होती है।

पद्मपुराण में कहा है-
कुङ्कुमागुरुकर्पुरघृतचंदननिर्मिता:।
वर्तिका: सप्त वा पञ्च कृत्वा वा दीपवर्तिकाम्।।
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शङ्खघण्टादिवाद्यकै:।
अर्थात - कुङ्कुम, अगर, कर्पूर, घृत और चंदन की पाँच या सात बत्तियां बनाकर शङ्ख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुवे आरती करनी चाहिए।

आरती के पाँच अंग होते है -
पञ्च नीराजनं कुर्यात प्रथमं दीपमालया।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।
चूताश्वत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।
पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टाङ्गेन यथाविधि।।
अर्थात - प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शङ्ख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, आम व् पीपल अदि के पत्तों से और पाँचवे साष्टांग दण्डवत से आरती करें।

आदौ चतुः पादतले च विष्णो द्वौं नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु चाङ्गेषु च सप्तवारा नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।
अर्थात - आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाए, दो बार नाभिदेश में, एक बार मुखमण्डल पर और सात बार समस्त अंङ्गो पर घुमाए।

यथार्थ में आरती पूजन के अंत में इष्टदेवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें इष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। आरती के दो भाव है जो क्रमशः 'नीराजन' और 'आरती' शब्द से व्यक्त हुए है। नीराजन (निःशेषण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेषरूप से, निःशेषरूप से प्रकाशित करना। अनेक दिप-बत्तियां जलाकर विग्रह के चारों ओर घुमाने का यही अभिप्राय है कि पूरा-का-पूरा विग्रह एड़ी से चोटी तक प्रकाशित हो उठे- चमक उठे, अंङ्ग-प्रत्यङ्ग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाये, जिसमें दर्शक या उपासक भलिभांति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके। दूसरा 'आरती' शब्द (जो संस्कृत के आर्ति का प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है अरिष्ट) विशेषतः माधुर्य-उपासना से सम्बंधित है।
आरती-वारना का अर्थ है आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना। इस रूप में यह एक तांत्रिक क्रिया है, जिसमे प्रज्वलित दीपक अपने इष्टदेव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्न बधाये टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है कि उनकी आर्ति (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बली जाना, वारी जाना न्यौछावर होना आदि प्रयोग इसी भाव के द्योतक है। इसी रूप में छोटे बच्चों की माताए तथा बहिने लोक में भी आरती उतारती है। यह आरती मूल रूप में कुछ मंत्रोच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के लिए उसी भाव से उतारी जाती रही है।
आज कल वैदिक उपासना में उसके साथ-साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण भी होता है तथा पौराणिक एवं तांत्रिक उपासना में उसके साथ सुंदर-सुंदर भावपूर्ण पद्य रचनाएँ भी गायी जाती है। ऋतू, पर्व पूजा के समय आदि भेदों से भी आरती गायी जाती है।