दश महाविद्या का रहस्य और दश महाविद्या का प्रथम दर्शन प्राचीन ज्ञान।।
दश महाविद्या का रहस्य और दश महाविद्या का प्रथम दर्शन प्राचीन ज्ञान।।
दश महाविद्याओं का प्रथम दर्शन किसको हुए ? दश महाविद्या कौन है ? दश महाविद्या की कुल परम्परा क्या है ?
गहन पहलुओं से जो अवगत कराता है, जो आध्यात्मिकता और वैज्ञानिक सोच के बीच एक अनोखा पुल बनाता है। इसे चेतना से जोड़ा गया है, जो कि मनुष्य की अंतर्दृष्टि और कर्म की प्रेरणा का आधार है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यह चेतना मस्तिष्क की जटिल न्यूरोलॉजिकल प्रक्रियाओं का परिणाम है, जो निर्णय लेने और समस्याओं को हल करने में हमारी सहायता करती है।
दश का रहस्य।
संसार में दश दिशायें स्पष्ट हैं। इसी भाँति से दश की संख्या भी पूर्णतः पूर्ण ब्रह्म का सूचक हैं।
किसी भी रहस्य का शुभारंभ शून्य से होता है, शून्य ! अर्थात् आदि अन्त रहित संख्या, जिससे जुड़े उसे महान बना दे और स्वयं एक क्रम प्रवाहित कर दे। ऐसा है शून्य का स्वभाव । इसके बाद एक, दो, तीन से नौ तक की संख्यायें होती हैं। शून्य से ही सृष्टि होती है। जब कुछ नहीं था उस समय शून्य था। इस शून्य का अर्थ शून्य नहीं अपितु पूर्ण है। इसी से नौ संख्याओं का विराट् प्रस्तुत हुआ करता है, जो कि एक से नौ तक होता है। यही रहस्य क, च, ट, प, त, य, क्ष, त्र तथा ज्ञ का है क्योंकि यही आद्य अक्षर हैं।
इन्हीं से अन्य शब्दों का प्रादुर्भाव हुआ करता है। प्रत्येक मनुष्य की देह पर नौ द्वार स्पष्ट हैं और दसवाँ द्वार अदृश्य है क्योंकि वह शून्य रूपी विराट् है, जहाँ से समस्त संख्या-रूपी भावनाओं का श्रीगणेश हुआ करता है। शिरोमण्डल प्रदेश में शून्य सर्वदा कार्यरत है।
दश महाविद्याओं का प्रथम दर्शन।।
देवी पार्वती को आद्यभवानी माना जाता है। इनका पाणिग्रहण संस्कार देवाधिदेव महादेव के साथ इनकी अभिलाषानुसार हुआ था। पार्वती (सती जो एक ही हैं) जनक दक्ष ने एक बार यज्ञ किया जिसमें उसने शिवजी को आमन्त्रित नहीं किया। पार्वती को इस यज्ञ की सूचना प्राप्त हुई तो उसने शिवजी से वहाँ चलने का विनम्र निवेदन किया। जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। अपने स्वामी की अभिलाषा वहाँ न जाने की समझकर पार्वती ने स्वयं के जाने की आज्ञा चाही तो शिव ने दक्ष के शत्रुतापूर्ण व्यवहार का ध्यान रखते हुये उन्हें पुनः मना कर दिया। अपने शब्दों की बारम्बार अवहेलना देखकर पार्वती ने कहा-
“ततोऽहं तत्र यास्यामि, तदाज्ञापय वा न वा। प्राप्स्यामि यज्ञभागं वा नाशयिष्यामि व मखम् ॥"
अर्थात् आपकी आज्ञा हो या न हो किन्तु मैं वहाँ अवश्य जाऊँगी। वहाँ जाकर मैं यज्ञ अंश प्राप्त करूँगी अन्यथा यज्ञ नष्ट कर दूँगी।
शिव के पुनः समझाने पर पार्वती क्रोधित हो उठी और उन्होंने रौद्र रूप ग्रहण कर लिया। उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गये, अधर क्रोध से फड़फड़ाने लगे और तीव्र अट्टहास किया।
कुछ स्मरण करके शिवजी ने उन्हें ध्यान से देखा तो पार्वती का शरीर क्रोधाग्नि से जल कर क्रमशः काला पड़ता जा रहा था।
अपनी जीवन-संगिनी का यह भीषण रूप देखकर उन्होंने दूर चले जाना सम्भवतः उचित समझा होगा, अतः वहाँ से चले गये।
वह कुछ दूर ही गये थे कि अपने समक्ष एक दिव्य स्वरूप देखकर अचम्भे में पड़ गये। तत्पश्चात् उन्होंने अपने दाँये, बाँये, ऊपर तथा नीचे अर्थात् सभी तरफ देखा तो प्रत्येक दिशा में एक विभिन्न देवीय स्वरूप देखकर स्तम्भित हो गये। सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण हुआ और उन्होंने सोचा कि कहीं यह सती का प्रताप न हो। अतः उन्होंने कहा - " पार्वती ! क्या माया है ?"
अपने स्वामी का प्रश्न श्रवण करके पार्वती ने विनम्र भाव से से बताया - "स्वामी ! आपके समक्ष जो कृष्ण-वर्णा देवी स्थित है वह काली है। आपके ऊपर महाकाल स्वरूपिणी जो नील-वर्णा देवी हैं वह 'तारा' है। आपके पश्चिम में श्याम वर्णा और कटे हुये शीश को उठाये जो देवी खड़ी हैं वह 'छिन्नमस्तिका' हैं। आपके बाँई तरफ देवी 'भुवनेश्वरी' खड़ी हैं। आपके पृष्ठ पर शत्रु मर्दन करने वाली देवी 'बगलामुखी' खड़ी हैं। आपके अग्निकोण में 'विधवा रूपिणी-धूमावती' खड़ी हैं। नेऋत्य कोण में देवी 'त्रिपुर सुन्दरी' खड़ी हैं। वायव्य कोण पर 'मातंगी' खड़ी हैं। ईशान कोण पर देवी 'षोडशी' खड़ी हैं तथा 'भैरवी' रूपा होकर मैं स्वयं उपस्थित हूँ।"
यहीं पर शिवजी के द्वारा इनका महात्म्य पूछे जाने पर पार्वती ने बताया था- 'इन सभी की पूजा अर्चना करने पर चतुर्वर्ग की अर्थात् धर्म, भोग, मोक्ष तथा अर्थ की प्राप्ति हुआ करती है। इन्हीं की कृपा से षट्कर्मों की सिद्धि तथा अभीष्ट की उपलब्धि हुआ करती है।'
शिवजी के निवेदन करने पर यह देवियाँ क्रमशः कालिका देवी में समा गयीं।
कुल परम्परा।।
दश महाविद्याओं की उपासना साधक अपनी-अपनी श्रद्धानुसार करते हैं परन्तु साधना में कुछ विशेष करने के लिये दीक्षा ली जाती है।
दश महाविद्याओं से सम्बन्धित कोई भी दीक्षा दो विभिन्न खण्डों में विभाजित है। इन खण्डों को कुल कहते हैं। यह दो नामों से जाने जाते हैं जिन्हें 'कालीकुल' तथा 'श्रीकुल' कहते हैं।
जो साधक भगवती काली, तारा तथा छिन्नमस्तिका की दीक्षा लेते हैं और उन्हें अपना आराध्य मानते हैं, उन्हें 'कालीकुल' के साधक माना जाता है। शेष सभी महाविद्याओं के साधक 'श्रीकुल' के साधक माने जाते हैं।
दश महाविद्याओं के प्रचलित नाम -
१. काली
२. तारा
३. षोडषी (ललिता)
४. भुवनेश्वरी
५. छिन्नमस्तिका
६. त्रिपुरभैरवी
७. धूमावती
८. बगलामुखी
९. मातंगी
१०. कमला
इनके भैरव निम्न हैं:
१. काली
महाकाल
२. तारा
अक्षोभ्य
३. षोडषी
कामेश्वर
४. भुवनेश्वरी
त्र्यम्बक
५. भैरवी
दक्षिणा मूर्ति
६. छिन्नमस्ता
क्रोध भैरव
७. धूमावती
(यह विधवा रूपिणी हैं)
८. बगला
मृत्युंजय
९. मातंगी
मातंग (सदाशिव)
१०. कमला
विष्णुरूप (नारायण)
दश महाविद्याओं से ही भगवान विष्णु के दस अवतार भी माने गये हैं-
१. काली
= श्री कृष्ण
२. षोडषी
श्री परशुराम
३. भैरवी
श्री बलराम
४. धूमावती
श्री वाराह
५. मातंगी
श्री मत्स्य
६. तारा
श्री राम
७. भुवनेश्वरी
श्री वामन
८. छिन्नमस्ता
श्री नृसिंह
९. बगला
श्री कूर्म
१०. कमला
श्री बुद्ध
६ कल्कि अवतार भगवती श्री दुर्गा जी का माना गया है।
दश महाविद्या का ज्ञान केवल दर्शन नहीं, बल्कि चेतना और कर्म का रहस्यमयी संगम है आध्यात्मिकता और विज्ञान का अनोखा पुल।
एस्ट्रो भगीरथ पण्ड्याजी 9824417090

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