बुधवार, 29 जून 2022

जुलाई में पांच बड़े ग्रहों की स्थिति में होगा बदलाव, जानें आपकी राशि पर क्या पड़ेगा प्रभाव

जुलाई में पांच बड़े ग्रहों की स्थिति में होगा बदलाव, जानें आपकी राशि पर क्या पड़ेगा प्रभाव

जुलाई में पांच बड़े ग्रहों की स्थिति में बदलाव होने का असर सभी 12 राशियों पर पड़ेगा।

 मेष, मिथुन, सिंह, मकर व कुंभ राशि वालों के लिए जुलाई का महीना बेहद खास होने वाला है।

 कर्क, कन्या, तुला व वृश्चिक राशि वालों को इस महीने उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ सकता है।

 वृषभ, धनु व मीन राशि वालों के लिए जुलाई का महीना मिला-जुला रहने वाला है।

2 जुलाई को बुध सुबह 09 बजकर 42 मिनट पर वृषभ राशि से निकलकर मिथुन राशि में प्रवेश करेंगे। इसके बाद बुध 16 जुलाई को कर्क और 31 जुलाई को सिंह राशि में प्रवेश करेंगे।

जुलाई महीने में शनि 12 जुलाई को दोपहर 02 बजकर 58 मिनट पर मकर राशि में प्रवेश करेंगे। शनि कुंभ राशि में वर्तमान में वक्री अवस्था में हैं और इसके बाद मकर राशि में प्रवेश करेंगे। 23 अक्टूबर को मकर राशि में ही मार्गी हो जाएंगे।

13 जुलाई को सुबह 10 बजकर 50 मिनट पर शुक्र ग्रह वृषभ राशि से निकलकर मिथुन राशि में प्रवेश करेंगे। इस राशि में सूर्य व बुध के विराजमान होने से त्रिग्रही योग बनेगा। मिथुन राशि में सूर्य गोचर कुछ दिन बाद होगा। शुक्र एक राशि में 23 दिन तक विराजमान रहेंगे।

ग्रहों के राजा सूर्य 16 जुलाई को रात 10 बजकर 56 मिनट पर कर्क राशि में प्रवेश करेंगे। इस राशि में सूर्य 17 अगस्त तक रहेंगे। इसके बाद सिंह राशि में प्रवेश कर जाएंगे। सूर्य गोचर को संक्रांति के नाम से जानते हैं। इस तरह से 16 जुलाई को कर्क संक्रांति मनाई जाएगी।

देवगुरु बृहस्पति 28 जुलाई को रात 02 बजकर 09 मिनट पर मीन राशि में वक्री अवस्था में प्रवेश करेंगे। 24 नवंबर को सुबह 04 बजकर 27 मिनट पर मार्गी होंगे।
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंड्याजी+919824417090/+917802000033...

मंगलवार, 21 जून 2022

भोजन की थाली कैसे परोसनी चाहिए ?

भोजन की थाली कैसे परोसनी चाहिए ?
१. भोजन में सीमित पदार्थ हों, तो थाली कैसे परोसनी चाहिए ?पात्राधो मंडलं कृत्वा पात्रमध्ये अन्नं वामे भक्ष्यभोज्यं दक्षिणे घृतपायसं पुरतःशाकादीन् (परिवेषयेत्) । – ऋग्वेदीय ब्रह्मकर्मसमुच्चय, अन्नसमर्पणविधिअर्थ : भूमिपर जल से मंडल बनाकर उसपर थाली रखें । उस थाली के मध्यभाग में चावल परोसें । भोजन करनेवाले के बार्इं ओर चबाकर ग्रहण करनेयोग्य पदार्थ परोसें । दाहिनी ओर घी युक्त पायस (खीर) परोसें । थाली में सामने तरकारी, शकलाद (सलाद) आदि पदार्थ होने चाहिए ।२. भोजन में अनेक पदार्थ हों, तो थाली कैसे परोसनी चाहिए ?अ. थाली में ऊपर की ओर मध्यभाग में लवण (नमक) परोसें ।आ. भोजन करनेवाले के बार्इं ओर (लवण के निकट ऊपर से नीचे की ओर) क्रमशः नींबू, अचार, नारियल अथवा अन्य चटनी, रायता / शकलाद (सलाद), पापड, पकोडे एवं चपाती परोसें । चपाती पर घी परोसें ।इ. भोजन करनेवाले के दाहिनी ओर (लवण के निकट ऊपर से नीचे की ओर) क्रमशः छाछ की कटोरी, खीर एवं पकवान, दाल एवं तरकारी परोसें ।ई. थालीके मध्यभाग पर नीचे से ऊपर सीधी रेखा में क्रमशः दाल-चावल, पुलाव, मीठे चावल एवं अंत में दही-चावल परोसें । दाल-चावल, पुलाव एवं मीठे चावल पर घी परोसें ।३. थाली में विशिष्ट पदार्थ विशिष्ट स्थान पर ही परोसने का महत्त्वथाली में विशिष्ट स्थान पर विशिष्ट पदार्थ परोसने पर अन्न से प्रक्षेपित तरंगों में उचित संतुलन बनता है । इसका भोजनकर्ता को स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों स्तरों पर अधिक लाभ होता है । थाली के पदार्थों का उचित संतुलन, अन्न के माध्यम से होनेवाली अनिष्ट शक्तियों की पीडा अल्प करने में भी सहायक है । पदार्थों के त्रिगुणों की मात्रा के अनुसार भोजन करते समय थाली में विशिष्ट पदार्थ विशिष्ट स्थान पर ही परोसें ।अ. सामान्यतः रज-सत्त्वगुणी पदार्थ भोजनकर्ताके दाएं हाथ की ओर परोसते हैं ।आ. सत्त्व-रजोगुणी पदार्थ भोजनकर्ता के बाएं हाथ की ओर परोसे जाते हैं । इससे अन्न से प्रक्षेपित तरंगों से शरीर की सूर्यनाडी एवं चंद्रनाडी के कार्य में संतुलन बनता है तथा स्थूल स्तर पर अन्न का पाचन भलीभांति होता है ।इ. लवण में (नमक में) त्रिगुणों की मात्रा लगभग समान होती है । अतः उसे थाली के छोर पर सामने एवं मध्य में परोसते हैं । अधिकतर अन्न-पदार्थ बनाते समय लवण का उपयोग किया ही जाता है; क्योंकि लवण स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों दृष्टि से अन्न में विद्यमान तरंगों में संतुलन बनाए रखने का कार्य करता है ।’४. थाली में चार प्रकार के भात परोसने का क्रम एवं उसकी अध्यात्मशास्त्रीय कारणमीमांसाअ. थाली में प्रथम सादी दाल एवं भात परोसते हैं, तदुपरांत पुलाव (मसाला- भात), तत्पश्चात मीठा-भात एवं अंत में दही-भात, यह क्रम होता है । थाली का मध्यभाग सुषुम्ना नाडी का दर्शक है ।आ. श्वेत रंग से (भात के रंग से) उत्पत्ति होना एवं श्वेत रंग में ही लय, ऐसा समीकरण यहां है; अर्थात निर्गुण से उत्पत्ति एवं निर्गुण में ही लय, यह सुषुम्ना नाडी के कार्य की विशेषता है ।इ. भोजन में प्रथम सत्त्वगुणी सादी दाल एवं भात ग्रहण करने के पश्चात प्रायः तमोगुणी पुलाव (मसालेयुक्त भात) ग्रहण करने को प्रधानता दी जाती है । ऐसा करने से पुलाव के तमोगुण का विलय सादी दाल एवं भात के सत्त्वगुणी मिश्रण में होने में सहायता मिलती है । इससे देह पर पुलाव के मसालों का विपरीत परिणाम नहीं होता ।ई. तत्पश्चात मीठा-भात ग्रहण किया जाता है । इससे देह में मधुर रस जागृत होने में सहायता मिलती है ।उ. भोजन के अंत में दही-भात सेवन को प्रधानता दी जाती है । इससे देह के सर्व रसों का शमन होकर अन्न की आगे की पाचन-संबंधी प्रक्रिया प्रारंभ होती है ।ऊ. दही में विद्यमान रजो गुण पाचक रसों की क्रियाशक्ति बढाता है । इससे अन्न का पाचन उचित प्रकार से होने में सहायता मिलती है ।५. भोजन की एवं नैवेद्य की थाली परोसने की पद्धति में अंतरभोजन की एवं नैवेद्य की थाली परोसने की पद्धति में विशेष अंतर नहीं है । भोजन की थाली में पदार्थ परोसते समय प्रथम लवण परोसा जाता है, जबकि नैवेद्य की थाली में लवण नहीं परोसा जाता ।🌹भोजन विधि 🌹- 1️⃣ 🌹अधिकांश लोग भोजन की सही विधि नहीं जानते। गलत विधि से गलत मात्रा में अर्थात् आवश्यकता से अधिक या बहुत कम भोजन करने से या अहितकर भोजन करने से जठराग्नि मंद पड़ जाती है, जिससे कब्ज रहने लगता है। तब आँतों में रूका हुआ मल सड़कर दूषित रस बनाने लगता है। यह दूषित रस ही सारे शरीर में फैलकर विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। उपनिषदों में भी कहा गया हैः आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है। साधारणतः सभी व्यक्तियों के लिए आहार के कुछ नियमों को जानना अत्यंत आवश्यक है। जैसे-🌹आलस तथा बेचैनी न रहें, मल, मूत्र तथा वायु का निकास य़ोग्य ढंग से होता रहे, शरीर में उत्साह उत्पन्न हो एवं हलकापन महसूस हो, भोजन के प्रति रूचि हो तब समझना चाहिए की भोजन पच गया है। बिना भूख के खाना रोगों को आमंत्रित करता है। कोई कितना भी आग्रह करे या आतिथ्यवश खिलाना चाहे पर आप सावधान रहें।🌹सही भूख को पहचानने वाले मानव बहुत कम हैं। इससे भूख न लगी हो फिर भी भोजन करने से रोगों की संख्या बढ़ती जाती है। एक बार किया हुआ भोजन जब तक पूरी तरह पच न जाय एवं खुलकर भूख न लगे तब तक दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए। अतः एक बार आहार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार आहार ग्रहण करने के बीच कम-से-कम छः घंटों का अंतर अवश्य रखना चाहिए क्योंकि इस छः घंटों की अवधि में आहार की पाचन-क्रिया सम्पन्न होती है। यदि दूसरा आहार इसी बीच ग्रहण करें तो पूर्वकृत आहार का कच्चा रस(आम) इसके साथ मिलकर दोष उत्पन्न कर देगा। दोनों समय के भोजनों के बीच में बार-बार चाय पीने, नाश्ता, तामस पदार्थों का सेवन आदि करने से पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है, ऐसा व्यवहार में मालूम पड़ता है।🌹रात्रि में आहार के पाचन के समय अधिक लगता है इसीलिए रात्रि के समय प्रथम पहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शीत ऋतु में रातें लम्बी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन लम्बे होने के कारण सायंकाल का भोजन जल्दी कर लेना उचित है।🌹अपनी प्रकृति के अनुसार उचित मात्रा में भोजन करना चाहिए। आहार की मात्रा व्यक्ति की पाचकाग्नि और शारीरिक बल के अनुसार निर्धारित होती है। स्वभाव से हलके पदार्थ जैसे कि चचावल, मूँग, दूध अधिक मात्रा में ग्रहण करने सम्भव हैं परन्तु उड़द, चना तथा पिट्ठी से बने पदार्थ स्वभावतः भारी होते हैं, जिन्हें कम मात्रा में लेना ही उपयुक्त रहता है।🌹भोजन के पहले अदरक और सेंधा नमक का सेवन सदा हितकारी होता है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, भोजन के प्रति रूचि पैदा करता है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि भी करता है।🌹भोजन गरम और स्निग्ध होना चाहिए। गरम भोजन स्वादिष्ट लगता है, पाचकाग्नि को तेज करता है और शीघ्र पच जाता है। ऐसा भोजन अतिरिक्त वायु और कफ को निकाल देता है। ठंडा या सूखा भोजन देर से पचता है। अत्यंत गरम अन्न बल का ह्रास करता है। स्निग्ध भोजन शरीर को मजबूत बनाता है, उसका बल बढ़ाता है और वर्ण में भी निखार लाता है।🌹चलते हुए, बोलते हुए अथवा हँसते हुए भोजन नहीं करना चाहिए।🌹दूध के झाग बहुत लाभदायक होते हैं। इसलिए दूध खूब उलट-पुलटकर, बिलोकर, झाग पैदा करके ही पियें। झागों का स्वाद लेकर चूसें। दूध में जितने ज्यादा झाग होंगे, उतना ही वह लाभदायक होगा।🌹चाय या कॉफी प्रातः खाली पेट कभी न पियें, दुश्मन को भी न पिलायें।🌹एक सप्ताह से अधिक पुराने आटे का उपयोग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है।🌹भोजन कम से कम 20-25 मिनट तक खूब चबा-चबाकर एवं उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके करें। अच्छी तरह चबाये बिना जल्दी-जल्दी भोजन करने वाले चिड़चिड़े व क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं। भोजन अत्यन्त धीमी गति से भी नहीं करना चाहिए।🌹भोजन सात्त्विक हो और पकने के बाद 3-4 घंटे के अंदर ही कर लेना चाहिए।🌹स्वादिष्ट अन्न मन को प्रसन्न करता है, बल व उत्साह बढ़ाता है तथा आयुष्य की वृद्धि करता है, जबकि स्वादहीन अन्न इसके विपरीत असर करता है।🌹सुबह-सुबह भरपेट भोजन न करके हलका-फुलका नाश्ता ही करें।🌹भोजन करते समय भोजन पर माता, पिता, मित्र, वैद्य, रसोइये, हंस, मोर, सारस या चकोर पक्षी की दृष्टि पड़ना उत्तम माना जाता है। किंतु भूखे, पापी, पाखंडी या रोगी मनुष्य, मुर्गे और कुत्ते की नज़र पड़ना अच्छा नहीं माना जाता।🌹भोजन करते समय चित्त को एकाग्र रखकर सबसे पहले मधुर, बीच में खट्टे और नमकीन तथा अंत में तीखे, कड़वे और कसैले पदार्थ खाने चाहिए। अनार आदि फल तथा गन्ना भी पहले लेना चाहिए। भोजन के बाद आटे के भारी पदार्थ, नये चावल या चिवड़ा नहीं खाना चाहिए।🌹पहले घी के साथ कठिन पदार्थ, फिर कोमल व्यंजन और अंत में प्रवाही पदार्थ खाने चाहिए।🌹माप से अधिक खाने से पेट फूलता है और पेट में से आवाज आती है। आलस आता है, शरीर भारी होता है। माप से कम अन्न खाने से शरीर दुबला होता है और शक्ति का क्षय होता है।🌹बिना के भोजन करने से शक्ति का क्षय होता है, शरीर अशक्त बनता है। सिरदर्द और अजीर्ण के भिन्न-भिन्न रोग होते हैं। समय बीत जाने पर भोजन करने से वायु से अग्नि कमजोर हो जाती है। जिससे खाया हुआ अन्न शायद ही पचता है और दुबारा भोजन करने की इच्छा नहीं होती।🌹जितनी भूख हो उससे आधा भाग अन्न से, पाव भाग जल से भरना चाहिए और पाव भाग वायु के आने जाने के लिए खाली रखना चाहिए। भोजन से पूर्व पानी पीने से पाचनशक्ति कमजोर होती है, शरीर दुर्बल होता है। भोजन के बाद तुरंत पानी पीने से आलस्य बढ़ता है और भोजन नहीं पचता। बीच में थोड़ा-थोड़ा पानी पीना हितकर है। भोजन के बाद छाछ पीना आरोग्यदायी है। इससे मनुष्य कभी बलहीन और रोगी नहीं होता।🌹प्यासे व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। प्यासा व्यक्ति अगर भोजन करता है तो उसे आँतों के भिन्न-भिन्न रोग होते हैं। भूखे व्यक्ति को पानी नहीं पीना चाहिए। अन्नसेवन से ही भूख को शांत करना चाहिए।🌹भोजन के बाद गीले हाथों से आँखों का स्पर्श करना चाहिए। हथेली में पानी भरकर बारी-बारी से दोनों आँखों को उसमें डुबोने से आँखों की शक्ति बढ़ती है।🌹भोजन के बाद पेशाब करने से आयुष्य की वृद्धि होती है। खाया हुआ पचाने के लिए भोजन के बाद पद्धतिपूर्वक वज्रासन करना तथा 10-15 मिनट बायीं करवट लेटना चाहिए(सोयें नहीं), क्योंकि जीवों की नाभि के ऊपर बायीं ओर अग्नितत्त्व रहता है।🌹भोजन के बाद बैठे रहने वाले के शरीर में आलस्य भर जाता है। बायीं करवट लेकर लेटने से शरीर पुष्ट होता है। सौ कदम चलने वाले की उम्र बढ़ती है तथा दौड़ने वाले की मृत्यु उसके पीछे ही दौड़ती है।🌹रात्रि को भोजन के तुरंत बाद शयन न करें, 2 घंटे के बाद ही शयन करें।🌹किसी भी प्रकार के रोग में मौन रहना लाभदायक है। इससे स्वास्थ्य के सुधार में मदद मिलती है। औषधि सेवन के साथ मौन का अवलम्बन हितकारी है।🌹भोजन विधि - 2️⃣ 🌹(कुछ उपयोगी बातें )🌹घी, दूध, मूँग, गेहूँ, लाल साठी चावल, आँवले, हरड़े, शुद्ध शहद, अनार, अंगूर, परवल – ये सभी के लिए हितकर हैं।🌹अजीर्ण एवं बुखार में उपवास हितकर है।🌹दही, पनीर, खटाई, अचार, कटहल, कुन्द, मावे की मिठाइयाँ – से सभी के लिए हानिकारक हैं।🌹अजीर्ण में भोजन एवं नये बुखार में दूध विषतुल्य है। उत्तर भारत में अदरक के साथ गुड़ खाना अच्छा है।🌹मालवा प्रदेश में सूरन(जमिकंद) को उबालकर काली मिर्च के साथ खाना लाभदायक है।🌹अत्यंत सूखे प्रदेश जैसे की कच्छ, सौराष्ट्र आदि में भोजन के बाद पतली छाछ पीना हितकर है।🌹मुंबई, गुजरात में अदरक, नींबू एवं सेंधा नमक का सेवन हितकर है।🌹दक्षिण गुजरात वाले पुनर्नवा(विषखपरा) की सब्जी का सेवन करें अथवा उसका रस पियें तो अच्छा है।🌹दही की लस्सी पूर्णतया हानिकारक है। दहीं एवं मावे की मिठाई खाने की आदतवाले पुनर्नवा का सेवन करें एवं नमक की जगह सेंधा नमक का उपयोग करें तो लाभप्रद हैं।🌹शराब पीने की आदवाले अंगूर एवं अनार खायें तो हितकर है।🌹आँव होने पर सोंठ का सेवन, लंघन (उपवास) अथवा पतली खिचड़ी और पतली छाछ का सेवन लाभप्रद है।🌹अत्यंत पतले दस्त में सोंठ एवं अनार का रस लाभदायक है।🌹आँख के रोगी के लिए घी, दूध, मूँग एवं अंगूर का आहार लाभकारी है।🌹व्यायाम तथा अति परिश्रम करने वाले के लिए घी और इलायची के साथ केला खाना अच्छा है।🌹सूजन के रोगी के लिए नमक, खटाई, दही, फल, गरिष्ठ आहार, मिठाई अहितकर है।🌹यकृत (लीवर) के रोगी के लिए दूध अमृत के समान है एवं नमक, खटाई, दही एवं गरिष्ठ आहार विष के समान हैं।🌹वात के रोगी के लिए गरम जल, अदरक का रस, लहसुन का सेवन हितकर है। लेकिन आलू, मूँग के सिवाय की दालें एवं वरिष्ठ आहार विषवत् हैं।🌹कफ के रोगी के लिए सोंठ एवं गुड़ हितकर हैं परंतु दही, फल, मिठाई विषवत् हैं।🌹पित्त के रोगी के लिए दूध, घी, मिश्री हितकर हैं परंतु मिर्च-मसालेवाले तथा तले हुए पदार्थ एवं खटाई विषवत् हैं।🌹अन्न, जल और हवा से हमारा शरीर जीवनशक्ति बनाता है। स्वादिष्ट अन्न व स्वादिष्ट व्यंजनों की अपेक्षा साधारण भोजन स्वास्थ्यप्रद होता है। खूब चबा-चबाकर खाने से यह अधिक पुष्टि देता है, व्यक्ति निरोगी व दीर्घजीवी होता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि प्राकृतिक पानी में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के सिवाय जीवनशक्ति भी है। एक प्रयोग के अनुसार हाइड्रोजन व ऑक्सीजन से कृत्रिम पानी बनाया गया जिसमें खास स्वाद न था तथा मछली व जलीय प्राणी उसमें जीवित न रह सके।🌹बोतलों में रखे हुए पानी की जीवनशक्ति क्षीण हो जाती है। अगर उसे उपयोग में लाना हो तो 8-10 बार एक बर्तन से दूसरे बर्तन में उड़ेलना (फेटना) चाहिए। इससे उसमें स्वाद और जीवनशक्ति दोनों आ जाते हैं। बोतलों में या फ्रिज में रखा हुआ पानी स्वास्थ्य का शत्रु है। पानी जल्दी-जल्दी नहीं पीना चाहिए। चुसकी लेते हुए एक-एक घूँट करके पीना चाहिए जिससे पोषक तत्त्व मिलें।🌹वायु में भी जीवनशक्ति है। रोज सुबह-शाम खाली पेट, शुद्ध हवा में खड़े होकर या बैठकर लम्बे श्वास लेने चाहिए। श्वास को करीब आधा मिनट रोकें, फिर धीरे-धीरे छोड़ें। कुछ देर बाहर रोकें, फिर लें। इस प्रकार तीन प्राणायाम से शुरुआत करके धीरे-धीरे पंद्रह तक पहुँचे। इससे जीवनशक्ति बढ़ेगी, स्वास्थ्य-लाभ होगा, प्रसन्नता बढ़ेगी।🌹पूज्य बापू जी सार बात बताते हैं, विस्तार नहीं करते। 93 वर्ष तक स्वस्थ जीवन जीने वाले स्वयं उनके गुरुदेव तथा ऋषि-मुनियों के अनुभवसिद्ध ये प्रयोग अवश्य करने चाहिए।🔷स्वास्थ्य और शुद्धिः🔷🌹उदय, अस्त, ग्रहण और मध्याह्न के समय सूर्य की ओर कभी न देखें, जल में भी उसकी परछाई न देखें।🌹दृष्टि की शुद्धि के लिए सूर्य का दर्शन करें।🌹उदय और अस्त होते चन्द्र की ओर न देखें।🌹संध्या के समय जप, ध्यान, प्राणायाम के सिवाय कुछ भी न करें।🌹साधारण शुद्धि के लिए जल से तीन आचमन करें।🌹अपवित्र अवस्था में और जूठे मुँह स्वाध्याय, जप न करें।🌹सूर्य, चन्द्र की ओर मुख करके कुल्ला, पेशाब आदि न करें।🌹मनुष्य जब तक मल-मूत्र के वेगों को रोक कर रखता है तब तक अशुद्ध रहता है।🌹सिर पर तेल लगाने के बाद हाथ धो लें।🌹रजस्वला स्त्री के सामने न देखें।🌹ध्यानयोगी ठंडे जल से स्नान न करे।🔷भोजन-पात्र🔷🌹भोजन को शुद्ध, पौष्टिक, हितकर व सात्त्विक बनाने के लिए हम जितना ध्यान देते हैं उतना ही ध्यान हमें भोजन बनाने के बर्तनों पर देना भी आवश्यक है। भोजन जिन बर्तनों में पकाया जाता है उन बर्तनों के गुण अथवा दोष भी उसमें समाविष्ट हो जाते हैं। अतः भोजन किस प्रकार के बर्तनों में बनाना चाहिए अथवा किस प्रकार के बर्तनों में भोजन करना चाहिए, इसके लिए भी शास्त्रों ने निर्देश दिये हैं।🌹भोजन करने का पात्र सुवर्ण का हो तो आयुष्य को टिकाये रखता है, आँखों का तेज बढ़ता है। चाँदी के बर्तन में भोजन करने से आँखों की शक्ति बढ़ती है, पित्त, वायु तथा कफ नियंत्रित रहते हैं। काँसे के बर्तन में भोजन करने से बुद्धि बढ़ती है, रक्त शुद्ध होता है। पत्थर या मिट्टी के बर्तनों में भोजन करने से लक्ष्मी का क्षय होता है। लकड़ी के बर्तन में भोजन करने से भोजन के प्रति रूचि बढ़ती है तथा कफ का नाश होता है। पत्तों से बनी पत्तल में किया हुआ भोजन, भोजन में रूचि उत्पन्न करता है, जठराग्नि को प्रज्जवलित करता है, जहर तथा पाप का नाश करता है। पानी पीने के लिए ताम्र पात्र उत्तम है। यह उपलब्ध न हों तो मिट्टी का पात्र भी हितकारी है। पेय पदार्थ चाँदी के बर्तन में लेना हितकारी है लेकिन लस्सी आदि खट्टे पदार्थ न लें।🌹लोहे के बर्तन में भोजन पकाने से शरीर में सूजन तथा पीलापन नहीं रहता, शक्ति बढ़ती है और पीलिया के रोग में फायदा होता है। लोहे की कढ़ाई में सब्जी बनाना तथा लोहे के तवे पर रोटी सेंकना हितकारी है परंतु लोहे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए इससे बुद्धि का नाश होता है। स्टेनलेस स्टील के बर्तन में बुद्धिनाश का दोष नहीं माना जाता है। सुवर्ण, काँसा, कलई किया हुआ पीतल का बर्तन हितकारी है। एल्यूमीनियम के बर्तनों का उपयोग कदापि न करें।🌹केला, पलाश, तथा बड़ के पत्र रूचि उद्दीपक, विषदोषनाशक तथा अग्निप्रदीपक होते हैं। अतः इनका उपयोग भी हितावह है।पानी पीने के पात्र के विषय में 'भावप्रकाश ग्रंथ' में लिखा है।जलपात्रं तु ताम्रस्य तदभावे मृदो हितम्।पवित्रं शीतलं पात्रं रचितं स्फटिकेन यत्।काचेन रचितं तद्वत् वैङूर्यसम्भवम्।(भावप्रकाश, पूर्वखंडः4)🌹अर्थात् पानी पीने के लिए ताँबा, स्फटिक अथवा काँच-पात्र का उपयोग करना चाहिए। सम्भव हो तो वैङूर्यरत्नजड़ित पात्र का उपयोग करें। इनके अभाव में मिट्टी के जलपात्र पवित्र व शीतल होते हैं। टूटे-फूटे बर्तन से अथवा अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए।🙏ह्रीं अन्नपूर्णायै नम: 🙏

*पीपल* अश्वत्थः

*पीपल*
💚अकेला ऐसा पौधा जो दिन और रात दोनो समय आक्सीजन देता है
💛पीपल के ताजा 6-7 पत्ते लेकर 400 ग्राम पानी मे डालकर 100 ग्राम रहने तक उबाले,ठंडा होने पर पिए ब्रर्तन स्टील और एल्युमिनियम का नहीं हो, आपका ह्रदय एक ही दिन में ठीक होना शुरू हो जाएगा
💛पीपल के पत्तो पर भोजन करे, लीवर ठीक हो जाता है
💛पीपल के सूखे पत्तों का पाउडर बनाकर आधा चम्मच गुड़ में मिलाकर सुबह दोपहर शाम खायेँ, किंतना भी पुराना दमा ठीक कर देता है
💛पीपल के ताजा 4-5 पत्ते लेकर पीसकर पानी मे मिलाकर पिलाये,1- 2 बार मे ही पीलिया में आराम देना शुरू कर देता है
💛पीपल की छाल को गंगाजल में घिसकर घाव में लगाये तुरंत आराम देता है
💛पीपल की छाल को खांड (चीनी )मिलाकर दिन में 5-6 बार चूसे, कोई भी नशा छूट जाता है
💛पीपल के पत्तों का काढ़ा पिये, फेफड़ो, दिल ,अमाशय और लीवर के सभी रोग ठीक कर देता है
💛पीपल के पत्तों का काढ़ा बनाकर पिये, किडनी के रोग ठीक कर देता है व पथरी को तोड़कर बाहर करता है
💛किंतना भी डिप्रेशन हो, पीपल के पेड़ के नीचे जाकर रोज 30 मिनट बैठिए डिप्रेशन खत्म कर देता है
💛पीपल की फल और ताजा कोपले लेकर बराबर मात्रा में लेकर पीसकर सुखाकर खांड मिलाकर दिन में 2 बार ले, महिलाओ के गर्भशाय और मासिक समय के सभी रोग ठीक करता है
💛पीपल का फल और ताजा कोपले लेकर बराबर मात्रा में लेकर पीसकर सुखाकर खांड मिलाकर दिन में 2 बार ले, बच्चो का तुतलाना ठीक कर देता है और दिमाग बहुत तेज करता है
💛जिन बच्चो में हाइपर एक्टिविटी होती है, जो बच्चे दिनभर रातभर दौड़ते भागते है सोते कम है, पीपल के पेड़ के नीचे बैठाइए सब ठीक कर देता है
💛किंतना भी पुराना घुटनो का दर्द हो, पीपल के नीचे बैठे 30-45 दिन में सब खत्म हो जाएगा
💛शरीर मे कही से भी खून आये, महिलाओ को मासिक समय मे रक्त अधिक आता हो, बाबासीर में रक्त आता हो, दांत निकलवाने पर रक्त आये ,चोट लग जाये, 8-10 पत्ते पीसकर,छानकर पी जाएं, तुंरत रक्त का बहना बंद कर देता है
💛शरीर मे कही भी सूजन हो, दर्द हो, पीपल के पत्तों को गर्म करके बांध दे, ठीक हो जायेगे

रविवार, 19 जून 2022

27 नक्षत्रों के वेद मंत्र ....

27 नक्षत्रों के वेद मंत्र ....

1 अश्विनी नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ     अश्विना तेजसाचक्षु: प्राणेन सरस्वतीवीर्य्यम वाचेन्द्रो बलेनेन्द्रायदद्युरिन्द्रियम । ॐ अश्विनी कुमाराभ्यो नम: ==5000

2 भरणी नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ यमाय त्वाङ्गिरस्वते पितृिमते स्वाहा स्वाहा धर्माय स्वाहा धर्मपित्रे । 10000

3 कृतिका नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ अयमग्नि सहस्रीणो वाजयस्य शान्ति (गुं) वनस्पति: मूर्द्धा कबोरयीणाम् । अग्नये नम: 10000

4 रोहिणी नक्षत्र वेद मंत्र: ===ॐ ब्रहमजज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्विसीमत: सूरुचे वेन आवय: सबुधन्या उपमा अस्यविष्ठा: सतश्चयोनिमसतश्चविध:I ॐ ब्रहमणे नम: ====5000

5 मृगशिरा नक्षत्र वेद मंत्र:====ॐ सोमोधनु (गुं) सोमाअवंतुमाशु (गुं) सोमवीर: कर्मणयंददाती यदत्यविदध्य (गुं) सभेयमपितृ श्रवणयोम। ॐ चन्द्रमसे नम: । 10000

6 आर्द्रा नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ नमस्ते रूद्र मन्यवSउतोत इषवे नम: बाहुभ्यामुतते नम: । ॐ रुद्राय नम: ==10000

7 पुनर्वसु नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ अदितिद्योरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता: स पिता स पुत्र: विश्वेदेवा अदिति: पंचजना अदितिजातिमादितिर्रजनित्वम । ॐ आदित्याय नम: ।==10000

8 पुष्य नक्षत्र वेद मंत्र: ===ॐ बृहस्पते अतियदर्यौ अर्हाद द्युमद्विभाति क्रतमज्जनेषु । यदीदयच्छवस ॠत प्रजात तदस्मासु द्रविणम धेहि चित्रम । ॐ बृहस्पतये नम: ।===10000

9 अश्लेषा नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ नमोSस्तु सर्पेभ्योये के च पृथ्विमनु:। ये अन्तरिक्षे यो देवितेभ्य: सर्पेभ्यो नम: । ॐ सर्पेभ्यो नम:====10000

10 मघा नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ पितृभ्य: स्वधायिभ्य स्वधानम: पितामहेभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधानम: । प्रपितामहेभ्य स्वधायिभ्य स्वधानम: अक्षन्न पितरोSमीमदन्त:पितरोतितृपन्त पितर:शुन्धव्म । ॐ पितरेभ्ये नम: ।===10000

11 पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ भगप्रणेतर्भगसत्यराधो भगे मां धियमुदवाददन्न: । भगप्रजाननाय गोभिरश्वैर्भगप्रणेतृभिर्नुवन्त: स्याम: । भगाय नम: ।==10000

12 उत्तराफालगुनी नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ दैव्या वद्धर्व्यू च आगत (गुं) रथेन सूर्य्यतव्चा । मध्वायज्ञ (गुं) समञ्जायतं प्रत्नया यं वेनश्चित्रं देवानाम । ॐ अर्यमणे नम: ।==5000

13 हस्त नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ विभ्राडवृहन्पिवतु सोम्यं मध्वार्य्युदधज्ञ पत्त व विहुतम वातजूतोयो अभि रक्षतित्मना प्रजा पुपोष: पुरुधाविराजति । ॐ सावित्रे नम:===5000

14 चित्रा नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ त्वष्टातुरीयो अद्धुत इन्द्रागी पुष्टिवर्द्धनम । द्विपदापदाया: च्छ्न्द इन्द्रियमुक्षा गौत्र वयोदधु: । त्वष्द्रेनम: । ॐ विश्वकर्मणे नम: ।===5000

15 स्वाती नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ वायरन्नरदि बुध: सुमेध श्वेत सिशिक्तिनो युतामभि श्री तं वायवे सुमनसा वितस्थुर्विश्वेनर: स्वपत्थ्या निचक्रु: ।ॐ वायव नम: ==5000

16 विशाखा नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ इन्द्रान्गी आगत (गुं) सुतं गार्भिर्नमो वरेण्यम । अस्य पात घियोषिता । ॐ इन्द्रान्गीभ्यां नम: ।==10000

17 अनुराधा नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ नमो मित्रस्यवरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृत (गुं) सपर्यत दूरंदृशे देव जाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्योयश (गुं) सत । ॐ मित्राय नम:===10000

18 ज्येष्ठा नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ त्रातारभिंद्रमबितारमिंद्र (गुं) हवेसुहव (गुं) शूरमिंद्रम वहयामि शक्रं पुरुहूतभिंद्र (गुं) स्वास्ति नो मधवा धात्विन्द्र: । ॐ इन्द्राय नम: ।==5000

19 मूल नक्षत्र वेद मंत्र:===ॐ मातेवपुत्रम पृथिवी पुरीष्यमग्नि (गुं) स्वयोनावभारुषा तां विश्वेदैवॠतुभि: संविदान: प्रजापति विश्वकर्मा विमुञ्च्त । ॐ निॠतये नम:==5000

20 पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ अपाघ मम कील्वषम पकृल्यामपोरप: अपामार्गत्वमस्मद यदु: स्वपन्य-सुव: । ॐ अदुभ्यो नम: ।==5000

21 उत्तराषाढ़ा नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ विश्वे अद्य मरुत विश्वSउतो विश्वे भवत्यग्नय: समिद्धा: विश्वेनोदेवा अवसागमन्तु विश्वेमस्तु द्रविणं बाजो अस्मै ।==10000

22 श्रवण नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ विष्णोरराटमसि विष्णो श्नपत्रेस्थो विष्णो स्युरसिविष्णो धुर्वोसि वैष्णवमसि विष्नवेत्वा । ॐ विष्णवे नम: ।==10000

23 धनिष्ठा नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ वसो:पवित्रमसि शतधारंवसो: पवित्रमसि सहत्रधारम । देवस्त्वासविता पुनातुवसो: पवित्रेणशतधारेण सुप्वाकामधुक्ष: । ॐ वसुभ्यो नम: ।==10000

24 शतभिषा नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ वरुणस्योत्त्मभनमसिवरुणस्यस्कुं मसर्जनी स्थो वरुणस्य ॠतसदन्य सि वरुण स्यॠतमदन ससि वरुणस्यॠतसदनमसि । ॐ वरुणाय नम: ।==10000

25 पूर्वभाद्रपद नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ उतनाहिर्वुधन्य: श्रृणोत्वज एकपापृथिवी समुद्र: विश्वेदेवा ॠता वृधो हुवाना स्तुतामंत्रा कविशस्ता अवन्तु ।

ॐ अजैकपदे नम:।==5000

26 उत्तरभाद्रपद नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ शिवोनामासिस्वधितिस्तो पिता नमस्तेSस्तुमामाहि (गुं) सो निर्वत्तयाम्यायुषेSत्राद्याय प्रजननायर रायपोषाय ( सुप्रजास्वाय ) । ॐ अहिर्बुधाय नम: । ==1000

27 रेवती नक्षत्र वेद मंत्र:==ॐ पूषन तव व्रते वय नरिषेभ्य कदाचन । स्तोतारस्तेइहस्मसि । ॐ पूषणे नम: ।

===10000

नक्षत्र का आपके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता हैं,,,

चन्द्रमा का एक राशिचक्र 27 नक्षत्रों में विभाजित है, इसलिए अपनी कक्षा में चलते हुए चन्द्रमा को प्रत्येक नक्षत्र में से गुजरना होता है। आपके जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र में स्थित होगा, वही आपका जन्म नक्षत्र होगा। आपके वास्तविक जन्म नक्षत्र का निर्धारण होने के बाद आपके बारे में बिल्कुल सही भविष्यवाणी की जा सकती है। अपने नक्षत्रों की सही गणना व विवेचना से आप अवसरों का लाभ उठा सकते हैं। इसी प्रकार आप अपने अनेक प्रकार के दोषों व नकारात्मक प्रभावों का विभिन्न उपायों से निवारण भी कर सकते हैं। नक्षत्रों का मिलान रंगों, चिन्हों, देवताओं व राशि-रत्नों के साथ भी किया जा सकता है। 

गंडमूल नक्षत्र ,,, अश्विनी, आश्लेषा, मघा, मूला एवं रेवती !ये छ: नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र कहे गए हैं !इनमें किसी बालक का जन्म होने पर 27 दिन के पश्चात् जब यह नक्षत्र दोबारा आता है तब इसकी शांति करवाई जाती है ताकि पैदा हुआ बालक माता- पिता आदि के लिए अशुभ न हो ! संस्था में गंडमूल दोष निवारण की विशेष सुविधा उपलब्ध है ! 

शुभ नक्षत्र ,,, रोहिणी, अश्विनी, मृगशिरा, पुष्य, हस्त, चित्रा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा, उत्तरा फाल्गुनी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, पुनर्वसु, अनुराधा और स्वाति ये नक्षत्र शुभ हैं !इनमें सभी कार्य सिद्ध होते हैं ! 

मध्यम नक्षत्र ,, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपद, विशाखा, ज्येष्ठा, आर्द्रा, मूला और शतभिषा ये नक्षत्र मध्यम होते हैं ! इनमें साधारण कार्य सम्पन्न कर सकते हैं, विशेष कार्य नहीं ! 

अशुभ नक्षत्र ,,,,भरणी, कृत्तिका, मघा और आश्लेषा नक्षत्र अशुभ होते हैं !इनमें कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित है !ये नक्षत्र क्रूर एवं उग्र प्रकृति के कार्यों के लिए जैसे बिल्डिंग गिराना, कहीं आग लगाना, विस्फोटों का परीक्षण करना आदि के लिए ही शुभ होते हैं ! 
पंचक नक्षत्र ,,,धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती ! ये पाँच नक्षत्र पंचक नक्षत्र कहे गए हैं ! इनमें समस्त शुभ कार्य जैसे गृह प्रवेश, यात्रा, गृहारंभ, घर की छत डालना, लकड़ी का संचय करना आदि कार्य नहीं करने चाहियें !!!

रविवार, 12 जून 2022

शनि की महादशा में अन्य ग्रहों की अंतर्दशा का प्रभाव

शनि की महादशा में अन्य ग्रहों की अंतर्दशा का प्रभाव


शनि में शनि -ः

यदि शनि की महादशा में शनि की अंतर्दशा हो तो यह अशुभ परिणाम देने वाली मानी जाती है । इसके कारण धनहानि, पदावनति, राजदंड एवं अपयश आदि की संभावना रहती है । स्वास्थ्य खराब, घर में कलह, पत्नी से अनबन तथा प्रियजन आदि का वियोग संभव है । 
किन्तु उच्च या स्वगृही शनि होने पर मुकदमे में विजय, सम्मान-प्राप्ति तथा विदेश यात्रा के अवसर प्राप्त होते हैं । 

शनि में बुध -ः

यदि शनि की महादशा में बुध की अंतर्दशा आ जाती है तो बहुत शुभ एवं सौभाग्यदायिनी समझी जाती है । उसके प्रभाव से धन- धान्य की वृद्धि, समाज में प्रतिष्ठा हैं जनता में सम्मान, स्वास्थ्य-लाभ तथा परिवारिक सुख को प्राप्ति होती है । बुध के नीचस्थ होने की स्थिति में अथवा अशुभ ग्रहों के मध्य में होने की स्थिति में उपयुक्त फल प्रतिकूल रहेगा ।

शनि में केतु -ः

 शनि की महादशा में केतु की अंतर्दशा अशुभ मानी जाती है। इसके प्रभाव से धन वाहन एवं सम्मान की हानि, पारिवारिक कलह, भाई से विरोध, स्त्री पक्ष तथा समाज में अप्रतिष्ठा और अपयश आदि मिलने की आशंका रहती है । यदि केतु अन्य ग्रहों के मध्य में हो या शुक्र अन्य ग्रहों द्वारा दृष्ट हो तो उपर्युक्त प्रभाव अनुकूल हो जाता है ।

शनि में शुक्र -ः

 शनि की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा सामान्य फल देने वाली होती है । यदि ऐसा शनि उच्च का, स्वगृही अथवा मूलत्रिक्रोषास्थ हो तो शुभ फल प्रदान करता है । इसके प्रभाव से धन प्राप्ति के अवसर आते हैं और उच्च पद की प्राप्ति होती है । राजसम्मान, समाज में प्रतिष्ठा, व्यापार में उन्नति तथा घर में उल्लास का वातावरण बन जाता है । यदि शुक्र बारहवें घर में हो तो विदेश यात्रा का उत्साह होता है और पर्याप्त धन मिलता है । किंतु आठवें घर में स्थित शुक्र प्रतिकूल प्रभाव देने वाला हो जाता है, जो परेशानी का कारण बनता है ।

शनि में सूर्य -ः
 
शनि की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा का आना शुभ सूचक होता है । इसके प्रभाव से व्यापार विस्तार में सफलता मिलती है | यदि जातक नौकरी पर हो तो अच्छे वेतनमान पर उसकी पद-वृद्धि होती है । समाज में प्रतिष्ठा और सुयश आदि के साथ जनसंपर्क बढ़ने लगता है । किंतु अशुभ ग्रहों से दृष्ट सूर्य प्रतिकूल परिणाम देने वाला हो जाता है। यदि सूर्य षष्ठ या अष्टम भावस्थ हो तो जातक को उदर संबंधी कोई रोग हो सकता है ।

शनि में चन्द्रमा -ः

शनि की महादशा में चंद्रमा की अंतर्दशा अच्छी नहीं मानी जाती । इसके प्रभाव से शरीर में कोई रोग हो जाता है | यह रोग उदर से संबंधित हो सकता है । स्वास्थ्य की खराबी के साथ-साथ मानसिक विकार की उत्पत्ति भी संभव है । यदि चंद्रमा शुभ स्थान पर हो तो अनुकूल फल देने वाला होता है ।

शनि में मंगल -ः

 शनि की महादशा में मंगल की अंतर्दशा बहुत शुभ होती है । इससे व्यापार में उन्नति, अधिक लाभ, नौकरी में वेतन-वृद्धि, घर-वहान आदि की प्राप्ति, उद्योग आदि में उत्पादन-वृद्धि, मुकदमे में जीत तथा राज्य द्वारा लाभ होता है। किंतु अशुभ, नीच या वक्री मंगल बहुत हानिकारक होता है । उससे शारीरिक मानसिक पीडा़ होती है । शत्रु प्रबल होकर षडयंत्र रचने लगते हैं,,,,,, 

शनि में राहु -ः

शनि की महादशा में राहु की अंतर्दशा अशुभ मानी गई है। इसके कारण स्वास्थ्य नष्ट होता है तथा व्यय अधिक बढ़ जाता है, इसलिए मानसिक आशांति उत्पन्न होती है । इससे व्यापार में हानि तथा नौकरी में अवनति भी संभव है । व्यर्थ यात्रा का प्रसंग भी आ जाता है । किंतु राहु के शुभ स्थान पर होने अथवा शुभ ग्रह द्वारा देखे जाने की स्थिति में अनुकूल प्रभाव पड़ता है । उपरोक्त स्थिति धनागमन में उत्पन्न बाधाएं दूर होती हैं और व्यय घट जाता है । 

शनि में गुरु -ः

शनि की महादशा में गुरु की अंतर्दशा शुभ होती है । ऐसे में धन-संतान लाभ एवं विवाह या पुत्रोत्पत्ति आदि मंगल कार्य चलते रहते हैं । यदि गुरु स्वगृही या उच्च का हो तो अधिक शुभ होता है । उसके कारण सभी कार्य पूर्ण होते । विवेक जाग्रत होकर धर्मकार्य, दानधर्म एवं तीर्थाटन आदि के अवसर प्राप्त होते है |किंतु अस्त, वक्री या पापग्रस्त गुरु प्रतिकूल प्रभाव वाला हो जाता है ।




राहु की महादशा में सभी ग्रहों की अंतर्दशा का फल


राहु में राहु-ः

जन्मकुंडली में राहु उच्च राशि, मित्रक्षेत्री और शुभ ग्रहों से युक्त हो तो राहु शुभ ग्रहों की अपेक्षा अतीव शुभ फल प्रदाता होता है। शुभ राहु की महादशा-अन्तर्दशा से जातक आकस्मिक रूप से उन्नति के शिखर पर पहुच जाता है । बुद्धिमता और विद्वता आती है, अधिकार मिलते हैं । राजनीति में प्रवेश करता है, क्रोध एव उत्साह में वृद्धि, कार्य व्यवसाय का फैलाव एव अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । वृषभ,मिथुन, कर्क व वृश्चिक राशि में राहु होने पर भी शुभ फ़ल निलते हैं । अशुभ राहु की दशा में जातक को अग्नि, विष, साप आदि से भय रहता है जातक अभक्ष्य-भक्षी बनता है, मित्र वर्ग से धोखा मिलता है, स्थानच्युति, धननाश, परिवार को कष्ट और वात रोग तथा मन्दाग्नि से पीडित होता है ।

राहु में बृहस्पति -:

राहु शुभ हो और इसकी महादशा में शुभ और बलवान बृहस्पति की अन्तर्दशा चल रही हो तो जातक की चित्तवृति सात्विक और बुद्धि प्रखर हो जाती है,उच्चधिकारियों से प्रीति, स्वास्थ्य सुख, पद में उन्नति मिलती है । कार्य-व्यवसाय में प्रचुर लाभ मिलता है, दर्शन शास्त्र पढने में रुचि बनती है, जातक दार्शनिक विचारधारापूर्ण लेखन कर मान-सम्मान पाता है, तन्त्र-मन्त्र जैसे गूढ़ विषय का पण्डित बन समाज को दिशा-निर्देश करता है | जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कलाएं बढती हैं, वैसे ही इस दशा से जातक के यश, धन-धान्य और कीर्ति की बढ़ोतरी होती है । अशुभ बृहस्पति की दशा में ज्येष्ठ भ्राता का नाश, राजकीय दण्ड मिलने की सम्भावना रहती है, गैसट्रिक ट्रबल, हृदय रोग, मन्दाग्नि आदि से पीडा और धनहानि होती है ।

राहु में शनि-:

शुभ राहु की दशा में शुभ व बलवान शनि की अन्तर्दशा व्यतीत हो तो जातक को काले पशुधन व काली वस्तुओं के व्यापार से लाभ, पशुवाहन की प्राप्ति होती है । समाज में और अपने वर्ग में सम्मान मिलता है । पश्चिम दिशा और म्लेच्छ वर्ग विशेष लाभदायक रहता है | जातक राजनीतिक कार्यों में पदेन होता है तथा ग्रामसभा व पालिक का अध्यक्ष बनता है । अशुभ शनि की अन्तर्दशा में जातक अस्थिर मति, किसी अज्ञात पीडा से विकल, मलिन वस्त्र धारण कर इधर-उधर भटकता है | किसी परिजन की मृत्यु से मन को सन्ताप पहुंचता है, जातक आत्महनन करने की कुचेष्टा करता है । सर्प-विष, शस्त्राघात का भय तथा गठिया, वात रोग से शूल, उदर व्याधि, अर्श, भगन्दर आदि रोग हो जाते हैं ।

राहु में बुध-:

शुभ राहु की महादशा में उच्च या शुभ प्रभावी बुध की महादशा चले तो जातक उत्तम विद्या प्राप्त कर लेता है । प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता मिलती है । जातक की चित्तवृत्ति स्थिर और बुद्धि सात्विक हो जाती है । अपने मित्रों, परिजनों से सहानुभूति बढ़ती है, आय के कई स्तोत्र बनते है, जिसके कारण आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है ।उच्च राशि का बुध हो तो राजकीय सेवा में उच्च पद मिलता है । लेखन तथा उच्चवर्गीय लोगों से धनलाभ होता है। अशुभ बुध की अन्तर्दशा में जातक घोर कष्ट पाता है, प्रत्येक कार्य में विफलता मिलती है, नौकरी से न उन्नति होती है, न अवनति । राजकोष का भागी होना पड़ता है । अश्लील साहित्य के रचना से अपयश मिलता है । जातक असत्य भाषण करता है, देव-गुरू का निन्दक, दुष्टबुद्धि, अपने कुकृत्यों से भाग्य हानि कर लेता है। चर्म रोग, वातरोग, फोड़ा-फुन्सी इत्यादि से पीडा होती है ।

राहु में केतु-:

राहु के महादशा में केतु की अन्तर्दशा का समय अशुभ ही होता है । कुछ एक शुभ फल जो मिलते भी हैं, वे गौण हो जाते हैं । जातक की बुद्धि नष्ट हो जाती है । नीच जनों की संगति कर दुष्कर्म करने की प्रवृति होती है । आजीविका का साधन नैतिक-अनैतिक कैसा भी हो सकता है । जातक पूर्वार्जित धन को मदिरापान, वेश्यागमन और जुआ आदि व्यसनों में पाकर समाप्त कर देता है । समाज में अपना सम्मान खो देता है । घर में कलह या वातावरण बना रहता है । उदरपूर्ति के लिए भटकना पड़ता है, निर्धनता और रोगों के कारण मार्ग में और विदेश में कष्ट भोगने पड़ते हैं । स्वजनों से विछोह हो जाता है । यदि केतु लग्न के स्वामी से युक्त या दुष्ट हो तो धनलाभ होता है, पशुधन की वृद्धि होती है । वृश्चिक राशि का केतु केन्द्र अथवा त्रिकोण में हो तो शुभ फल देता है ।

राहु में शुक्र-:

शुक्र कारक ग्रह हो, बलवान और शुभ प्रभाव में हो तो राहु महादशा में जब शुक्र का अन्तर होता है तो जातक को अनेक भोग प्राप्त होते है । जातक का मन चंचल और सात्विक दोनो ही प्रकार का बन जाता है । जहा वह विलासिता का जीवन जीने की चाह रखता है, वहीं धार्मिक ग्रन्धों का श्रवण, अध्ययन, स्वाध्याय तथा पूजा-अर्चना भी करता है । कामवासना प्रबल होती है, लेकिन अपनी पत्नी तक ही सीमित रहता है | विलासिता की वस्तुओं का संग्रह करता है, खेल-तमाशे आदि को भी चाव से देखता है । अशुभ शुक्र के दशाकाल में जातक के सुख का नाश हो जाता है । स्वजनों से विरोध बनता है, सन्तान से सन्ताप पहुंचता है । पास-पड़ोस वालों से लडाई-झगडा, धातुक्षय, मन्दाग्नी आदि रोग हो जाते हैं । शुक्र अष्टमेश हो तो मृत्युसम कष्ट मिलता है ।

राह में सूर्य-

राहु भी शुभ हो तथा सूर्य उच्च राशि, मूल त्रिकोण व स्वराशि का तथा बलवान शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो इनकी दशा-अन्तर्दशा में जातक का कार्य-व्यवसाय बड़े क्षेत्र से फैलता है । राजकृपा से स्वल्प सुख, धन-धान्य में वृद्धि होती है । जातक राजनीति के क्षेत्र में मान पाता है तथा कई सभाओं का प्रधान या मुखिया बनता है । पैतृक सम्पत्ति मिलती है । दान-धर्म के प्रति भी रुचि रखता है, भले ही दिखावे के लिए करे । अशुभ सूर्य की दशा में जातक के रुधिर में उष्णता बढ़ जाती है, क्रोध अधिक आता है, अकारण किसी से भी झगड़ने की इच्छा होती है, पिता को कष्ट मिलता है, व्यापार में हानि, नौकरी में उच्चधिकारियों के कारण अवनति, शिरोवेदना, नेत्रपीड़ा, वात रोग, गठिया,सर्वांग शूल, अर्श और रक्तातिसार जेसे रोग देह को पीडा देते हैं ।

राहु में चन्द्रमा-: 

राहु शुभ राशि का शुभ प्रभावी होकर तृतीय, षष्ठ, एकादश, नवम व दशम में हो, 
 चन्द्रमा पूर्ण बली, शुभ ग्रह युक्त व दृष्ट हो तो राहु की महादशा में जब चंद्रमा की अन्तर्दशा चलती है तो जातक ललित कला के क्षेत्र में उन्नति करता है , 
राज्यस्तरीय सम्मान पाता है । बुद्धि स्थिर व विचार धार्मिक होते है । श्वेत खाद्य पदार्थों को विशेष रूप से प्राप्त कर लेता है-जैसे दूध, दही, खोया आदि ।
 सुखमय जीवन व्यतीत करता है ,अशुभ और क्षीणबली चन्द्रमा की दशामें जातक वात्त के कुपित हो जाने से मानसिक एव शारीरिक कष्ट पाता है । भूत-पिशाच आदि से मन में भय उत्पन्न होता है । वायुजनित रोग एवं शीत ज्वर से पीड़ा मिलती है , देह में जल का संचय अधिक होने से मोटापा आता है।

राहु में मंगल-: 

जब मंगल उच्च या स्वगृही होकर केन्द्र, त्रिकोण, लाभस्थान में शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होकर स्थित हो तो राहु महादशा अपनी अनास्था में बन्धुवर्ग का उत्थान कर जातक को उनसे लाभ दिलवाती है । जातक परम उत्साही होकर शत्रु का मानमर्दन ऐसे ही कर देता है…जैसे बाज कबूतरों के झुण्ड का। दोनों ग्रहों में एक शुभ और एक अशुभ हो तो नाना प्रकार की अधि-व्याधि परेशान करती हैं, कार्य में विफलता से स्मृति का नाश हो जाता है। दोनों ही अशुभ स्थिति में हों तो बन्धुवर्ग का नाश, पुत्र सुख में कमी, चोर, सर्प, अग्नि का भय, दुर्घटना से देहपीडा व समाज से तिरस्कार पाता है। उदरपूर्ति के लाले पड़ जाते हैं, भीख मांगने की नौबत आ जाती है, जीवन भार लगने लगता है, आत्मघात की इच्छा होती है । मंगल अष्टमेश से सम्बन्धित हो तो मृत्यु अथवा मृत्युसम कष्ट मिलता है ।


केतु महादशा में सभी ग्रहों की अंतर्दशा का फल:-

केतु में केतु-:

यदि केतु केन्द्र, त्रिकोण या आय स्थान में शुभावस्था में होकर लग्नेश,भाग्येश व कर्मेश से युति करता हो तो अपनी दशा-अंतर्दशा के प्रारम्भ में शुभ फल प्रदान करता है। इस दशा में जातक को स्वल्प धन का लाभ, पशुधन से लाभ, ग्राम में भूमि लाभ आदि कराता है तथा दशा के अन्त में अशुभ फल प्रदान करता है । अशुभ केतु की दशा में जातक अथक परिश्रम करने पर भी जीविकोपार्जन के साधन नहीं जुटा पाता, नौकरी मिलती नहीं, व्यवसाय में हानि होती है| नौकरी हो तो नौकरी छूट जाती है  । बचपन में यह दशा जातक को चेचक, हैजा, अतिसार, कांच निकलने जैसे रोगो से पीडित करती है। किसी निकट सम्बन्धी के निधन से मन को सन्ताप मिलता है । जातक एक दुख से पीछा छुड़ाता है तो दूसरा दुख आ उपस्थित होता है।

केतु में शुक्र-:

जब केतु की महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा व्यतीत हो रही होती है तो जातक की बुद्धि कामासक्त हो जाती है, वह सदैव भोग-विलास जीवन के स्वप्न लेता रहता है, प्रेमकथा, उपन्यास आदि पढने में समय को व्यर्थ गवांता है । सहशिक्षा संस्थानों में इस दशाकाल में युवक-युवतियां एक-दूसरे के साथ भाग जाते है । नीच और भ्रष्ट स्त्रियों अथवा पुरुषों के साथ प्रेम प्रसंगों के कारण लोक अपवाद सहना पड़ता है। अनीति और अधर्म के कार्यों में चित्त खूब लगता है, धनलिप्सा बढ़ जाती है, अधिकारी वर्ग रिश्वत लेते पकडे जाते है। पत्नी एव पुत्रों से कलह होती है। जातक वेश्यागमन और सुरापान में अर्जित सम्पत्ति का नाश करता है । शुक्रक्षय, प्रमेह, से देह में पीडा़ होती है। मन में ईर्ष्या द्वेष अपना स्थायी स्थान बना लेते है। जातक उन्नति की अपेक्षा अवनति को ही प्राप्त होता है।

केतु में सूर्य-:

केतु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा में शुभाशुभ दोनों प्रकार के फल मिलते हैं । यदि शुभ और बलवान सूर्य हो तो देह सुख, द्रव्य सुख, राज्यानुग्रह एवं स्वल्प वैभव व तीर्थाटन आदि फल मिलते हैं । अशुभ सूर्य होने पर जातक के मन में भ्रम व बुद्धि में आवेश आ जाता है। जातक व्यर्थ में क्रोध करने वाला, अपनों से दण्ड पाने वाला तथा पदोन्नति में अव्यवस्था का सामना करने वाला होता है । वाद-विवाद में पराजय, प्रवास में धनहानि और देहकष्ट निलता है । दुर्घटना में हड्डी टूटने का भय अथवा अंग-भंग होने की आशंका रहती है। निकृष्ट भोजन खाने से देह में विषैला प्रभाव, आंखों में जलन, पित्त में उग्रता तथा शिरोवेदना होती है । माता-पिता से कलह, चोर, सर्प, अग्नि से भय तथा सभी कार्यों में असफलता मिलने से मन में हीनता आ जाती है। 

केतु में चन्द्रमा-:

यदि चन्द्रमा अपने उच्च स्थान में, स्वस्थान में केन्द्र या त्रिकोण का अधिपति होकर शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तथा पूर्ण बली हो तो अपनी अन्तर्दशा आने पर शुभ फलों को देता है । इस दशाकाल में जातक सत्ता में मान-आदर पाता है। भूमि, धन का लाभ होता है, वाहन, निवास तथा वस्त्राभूषण की प्राप्ति और सरोवर, देवालय आदि बनाने में धन का व्यय , स्त्री-पुत्र आदि से सुख मिलता है। अशुभ चन्द्र की अन्तर्दशा में जातक कामान्ध हो, उंच-नीच, धर्म-जाति का विचार त्याग कर प्रेम-प्रसंग बना लेता है । लोकोपवाद, अपयश तथा परिजनों से विरोध के कारण मानहानि, दुर्गम स्थानो, पुराने और सुनसान भवनों में घूमने का शौक बढ़ता है । जातक में भावुकता बढ़ जाती है, जिसके कारण अविवेकी बन वह प्रत्येक कार्य में हानि उठाता है । इस दशा में शुभाशुभ मिश्रित फल प्राप्त होते हैं ।

केतु में मंगल-:

 मंगल क्षत्रिय ग्रह है तथा केतु से भी मंगल के गुणों की प्रधानता है, इसलिए शुभ और बलवान मंगल की अन्तर्दशा में जातक के उत्साह में वृद्धि हो जाती है, जातक साहसिक और प्रारंभिक कार्यों में विशेष रुचि लेता है तथा इनमें सफल होकर मान-सम्मान तथा पारितोषिक प्राप्त करता है ।सैन्य कर्मचारी हो तो पद में वृद्धि और सेवापदक तथा धन मिलता है । जातक में हिंसक प्रवृत्ति बढ़ जाती है जो कि सेना को छोड़कर अन्य जगह अशोभनीय मानी जाती है। अशुभ मंगल की अन्तर्दशा में हिंसक प्रवृत्ति अधिक उग्र हो जाती है तथा जातक क्रोध में हत्या तक कर डालता है और परिणामस्वरुप कारावास दण्ड अथवा मृत्युदण्ड पाता है | अभक्ष्य-भक्षण करता है, फलत: रक्तविकार, रक्तचाप,  फोड़ा-फुन्सी एवं उदर व्याधि से पीडित होता है।

केतु में राहु-:

यदि राहु शुभ राशिगत होकर केन्द्र, त्रिक्रोण अथवा शुभ स्थान में हो तो केतु महादशा में जब राहु की अन्तर्दशा आती है तो जातक को अहिंसक रूप से तत्काल धनलाभ एव ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। किसी  म्लेच्छ (विदेशी पश्चिम.) से विशेष सहायता मिलती है । चौपायों का व्यवसाय लाभप्रद रहता है । जातक ग्रामसभा का सदस्य बनता है । अशुभ राहु की अन्तर्दशा में अत्यन्त निकृष्ट फल मिलते हैं । कुकर्मों के लिए राज्य से दण्ड मिलता है। चोर, अग्नि, दुर्घटना का भय रहता है, सर्पदंश के कारण मृत्यु के दर्शन होते हैं, लेकिन जान बच जाती है । सभी कार्यों में असफलता मिलती है । बन्धु -बान्धवों, परिजनों से  वियोग होता है, सप्तमेश से युती हो तो जीवनसाथी की मृत्यु अथवा तलाक हो जाता है, रीढ़ के हड्डी में दर्द, वातरोग, मन्दाग्नि आदि से देहपीड़ा होती है। विषम ज्वर स्वास्थ्य क्षीण कर मरणान्तक कष्ट देता है ।

केतु में बृहस्पति-:

शुभ, बलवान एवं कारक बृहस्पति की अन्तर्दशा में जातक का चित्त पूर्व दशा की अपेक्षा कुछ शान्त एवं धर्म कार्यों में रुचि लेने वाला रहता है, तीर्थयात्रा तथा देशाटन में धन का सद्व्यय होता है । ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति होती है, मन में उत्साह बना रहता है । देव-गौ-ब्राहाण के प्रति निष्ठा और इनकी कृपा से सम्पति का लाभ होता है । सात्विक एवं उच्च विचार बन जाते हैं, स्वाध्याय, मन्त्रजाप तथा ईश्वर आराधना में खूब मन लगता है। ग्रन्थ-लेखन से सम्मान प्राप्त होता है। अशुभ बृहस्पति की अन्तर्दशा चलने पर पुत्रलाभ, स्त्री को रोग अथवा उस से वियोग तथा स्थानच्युति होती है । प्रवास अधिक करने होते हैं, यात्रा में चोर-ठगों द्वार सम्पति की हानि होती है । नीच लोगों की संगति के कारण अपवाद एव अपयश मिलता है । क्रोधावेग बढ़ जाता है और जातक व्यर्थ में झगडे़ करता है। सर्पविष से मृत्यु समान कष्ट मिलता है, किन्तु प्राणान्त नहीं होता ।

केतु में शनि-

यदि शनि परमोच्च, स्वस्थान में, शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को अपनी अन्तर्दशा में शुभाशुभ दोनों प्रकार के फल प्रदान करता है । जातक के सब कार्य पूर्ण हो जाते हैं, स्वग्राम में मुखिया अथवा ग्रामसभा का सदस्य बनता है, धर्म की अपेक्षा अधर्म में रुचि रहती है, लोहे, काष्ठादि के व्यवसाय में लाभ मिलता है, अन्य व्यवसाय से हानि मिलती है । अशुभ, अस्त, वक्री शनि की अन्तर्दशा में जातक अनेक कष्ट भोगता है जीवकोपार्जन के लिए भटकना पड़ता है, कठिन श्रम करने पर भी इष्ट-सिद्धि नहीं होती अनेक अशुभ समाचार सुनने को मिलते हैं, शत्रु प्रबल हो जाते हैं तथा घात लगाकर हमला करते है । दूषित अन्न ग्रहण करने से वात-कफ दूषित हो जाते हैं, वायुगोला, कास, स्वास,गठिया, मन्दाकिनी आदि रोग हो जाते हैं । स्व-बन्धुओ से मनोमलिन बढ़ता है जायदाद के मुकाबले में हार एव परदेश गमन होता है ।

केतु में बुध-:

यदि बुध शुभ, बलवान अवस्था में हो तथा उसकी अंतर्दशा वर्तमान हैं तो शुभ फल मिलते हैं । जातक शनि दशाकाल में प्राप्त दुखों से छुटकारा पाकर किंचित सुख की सांस लेता है। पठन-पाठन में रुचि बढ़ती है। रुके कार्य पूरे हो जाते हैं लोक-समाज में मान-सम्मान बढता है। विद्वत् समाज के साथ समागम, आप्तजनों से मिलन एव सम्पत्ति लाभ होता है। पुराने मित्र से मिलने की प्रबलता, नवीन ज्ञान की प्राप्ति, कार्य-व्यवसाय में प्रगति एव सुयश मिलता है। अशुभ बुध की अन्तर्दशा में व्यवसाय में हानि प्राप्त होती है। गृह-कलह
बढ़ जाती है, मित्र भी शत्रुवत व्यवहार करते हैं, शत्रुओं, चोरों और ठगों से सम्पत्ति हानि का भय, सन्तान को पीडा़ मिलती है । मन को सन्ताप तथा देह को बात्त-पित्तजन्य रोग, उदरशूल,  गठिया आदि से कष्ट मिलता है।