शुक्रवार, 25 मार्च 2022

परम मन्त्र

परम मन्त्र
१. मन्त्र-
मननात् त्रायते इति मन्त्रः। जिसके मनन से त्राण या मुक्ति मिलती है वह मन्त्र है। मनन के कई स्तर हैं-स्पष्ट उच्चारण, उपांशु (मानसिक उच्चारण), मनन, चिन्तन।
मन्त्र के ११ अंग हैं।
(१) विनियोग-मन्त्र का उद्देश्य या लक्ष्य विनियोग है।
मन्त्र के वाक् या शब्द रूप में वेद में ३ अंग हैं।
(२) ऋषि-२ तत्त्वों के बीच का सम्पर्क ऋषि (रस्सी) है। २ पिण्डों के बीच प्रकाश, आकर्षण आदि द्वारा सम्बन्ध ऋषि है। हमारा तारों से सम्पर्क उनसे आते प्रकाश द्वारा है, अतः वे भी ऋषि हैं, जैसे सप्तर्षि। भौतिक रूप में ब्रह्म तथा सामान्य मनुष्य के बीच सम्बन्ध जोड़ने वाला ऋषि है, जैसे मन्त्र-द्रष्टा ऋषि। वह ३ विश्वों -आकाश, पृथ्वी तथा मनुष्य-के बीच सम्बन्ध का दर्शन कर अन्य लोगों को बताता है। इसे यास्क निरुक्त (१/२०) में परोवरीय सम्बन्ध कहा है-ऊपर से नीचे ज्ञान का प्रवाह। मनुष्य शरीर के भीतर नाड़ी तन्त्र ऋषि है, विशेषकर मनुष्य मस्तिष्क के २ भागों को जोड़ने वाले तन्तु।
(३) देवता-आकाश में फैली ऊर्जा प्राण है। उसका क्रियात्मक रूप देव है, निष्क्रिय रूप असुर-
ऋषिभ्यः पितरो जाताः, पितृभ्यो देव-दानवाः।
देवेभ्यश्च जगत् सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनु स्मृति, ३/२०१)
प्राणो वा असुः (शतपथ ब्राह्मण, ६/६/२/६)
दिवा देवानसृजत, नक्तमसुरान्, यद्दिवा देवानसृजत तद्देवानां देवत्वं, यदसूर्य्यं तदसुराणामसुरत्वम्। (षड्विंश ब्राह्मण, ४/१)
आकाश के विभिन्न क्षेत्रों या पिण्डों का क्रियात्मक प्राण देवता है। मनुष्य शरीर में विभिन्न अंग, मस्तिष्क या सुषुम्ना के चक्र आदि देव हैं। आकाश के शून्य में भी विश्वव्यापी प्राण इन्द्र है जो माया द्वारा विभिन्न रूप धारण करता है-
नेन्द्रात् ऋते पवते पवते धाम किं च न (ऋक्, ९/६९/६)
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते (ऋक्, ६/४७/१८)
(४) छन्द-वाक् का परिमाण छन्द है-
यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः। (ऋक् सर्वानुक्रमणी, २/६)
वाक् के विस्तार आकाश की माप भी छन्द है-
छन्दांसि वा अस्य (अग्नेः) सप्त धाम प्रियाणि। (शतपथ ब्राह्मण, ९/२/३/४४, वा.यजु, १७/७९)
छन्द का मूल अर्थ है छादन करने वाला, आवरण। देश या काल का आवरण ही माप है। वाक् अर्थ में छन्द एक वाक्य की माप है। उसके पाद वाक्यांश या पद हैं। छन्द या पाद के अनुसार ही वेद मन्त्रों का अर्थ होता है। पाद भंग कर अन्वय नहीं हो सकता है।
तेषामृग्यत्रार्थवशेन पाद व्यवस्था। (मीमांसा सूत्र, २/१/३५)
क्रिया रूप में तन्त्र केलिए मन्त्र के ३ अतिरिक्त अंग हैं-
(५) बीज-किसी कार्य या परिणाम का कारण रूप मूल।
(६) शक्ति-प्राण या ऊर्जा का स्रोत जो ऊर्जा द्वारा कार्य कर सके।
(७) कीलक-द्वार खोलना या बन्द करना (पाईप का वाल्व)। कीलक से अंग्रेजी में की + लक (key + lock) हुआ है। किसी क्रिया की विधि जानने से ही क्रिया आरम्भ की जा सकती है। अतः ज्ञान रूप शिव कीलक हैं।
मन्त्र का प्राभाव तथा अर्थ समझने के लिए दुर्गा सप्तशती में ४ अन्य अंग कहे गये हैं-
(८) कवच-शरीर के ९ रन्ध्र की रक्षक रूप में ९ दुर्गा हैं। आकाश में रन्ध्र (घनत्व की कमी) नवम आयाम है, जिससे निर्माण या सृष्टि होती है। सृष्टि के ९ सर्ग ९ दुर्गा रूप हैं। भौतिक रूप में देश की रक्षा के लिए ९ दुर्ग होते हैं। शुक्र नीति (४/५०-५४)-९ दुर्ग-ऐरिण (कांटा, पत्थर गुप्तमार्ग), पारिख (खाई से घिरा), पारिघ (परकोट युक्त), वन (कांटे आदि वन से घिरा), धन्व (जिस भाग में जल का अभाव हो), जल (जल से घिरा), गिरि (जल स्थान मीं ऊंचा पर्वत जैसा), सैन्य (छावनी), सहाय (अनुकूल बन्धु जन)।
(९) अर्गला-अर्गला का अर्थ है द्वार का कपाट जिससे वह खोला और बन्द किया जाता है। आधुनिक मशीनों में इसे वाल्व कहते हैं, जिससे उर्जा का प्रवाह रोका जा सकता है। मनुष्य हृदय के भी ४ द्वारों में रक्त सञ्चार को नियमित करने के लिए अर्गला हैं।
(१०) तत्त्व-किसी पुर या रचना की निर्माण सामग्री।
(११) वेद-वेद का अर्थ ज्ञान है। किसी वस्तु का ज्ञान ४ प्रकार से होता है अतः वेद के ४ विभाग हैं-
ऋक् = मूर्त्ति (भौतिक पिण्ड तथा रचना),
यजुर्वेद (क्रिया-आन्तरिक = कृष्ण, बाह्य या दृश्य = शुक्ल),
साम (प्रभाव क्षेत्र जिसके भीतर उसका अनुभव हो सकता है। अनुभव के बाद उसका ज्ञान एकत्व तथा वर्गीकरण द्वारा होता है जिसे परा और अपरा विद्या कहते हैं),
अथर्व = सनातन ब्रह्म, आधार जिसके सन्दर्भ में ज्ञान होता है)।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१२/८/१)
२. महामन्त्र-
(१) प्रणव-वेद के सभी वाक्य या श्लोक मन्त्र हैं। इनका मूल मन्त्र ॐ है, जो प्रायः किसी मन्त्र का अङ्ग नहीं है, किन्तु पाठ के समय ॐ से ही मन्त्र का आरम्भ होता है। ब्रह्मा के मुख से ॐ तथ अथ का प्रथम उच्चारण हुआ था, अतः ये माङ्गलिक शब्द हैं (ब्रह्म सूत्र, १/१/१ का शाङ्कर भाष्य) -
ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा।
कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तेन माङ्गलिकावुभौ॥
केवल यजुर्वेद के कुछ मन्त्रों में ॐ स्पष्ट रूप से लिखित है-
ॐ प्रतिष्ठ (वाज. सं, २/१३)
ॐ क्रतो स्मर (वाज.सं, ४०/१५, ईशावास्योपनिषद्, १५)
ॐ खं ब्रह्म (काण्व सं, ४०/१५, वाज.सं, ४०/१७, ईशावास्योपनिषद्, १७)
ॐ का अन्य शब्द से सन्धि होने पर यह ओम् लिखा जाता है-
ओमिति ब्रह्म (तैत्तिरीय उपनिषद्, १/८/१)
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म (गीता, ८/१३, ब्रह्मविद्या, प्रणव आदि उपनिषद्)
प्रणवः सर्ववेदेषु (गीता, ७/८), वेद्यं पवित्रमोङ्कारः (गीता, ९/१७)
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधिविश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥
(ऋक्, १/१६४/३९, श्वेताश्वतर उपनिषद्, ४/८)
यहां, व्योम = वि + ओम = परम शूुन्य जिसमें ॐ भी अव्यक्त है। वही देव तथा विश्व का अधिष्ठान है। जो इसे नहीं जानता उसकी ऋचा क्या कर सकती है?
व्यक्त रूप में ॐ के ४ पाद हैं-अ, उ, म्, विन्दु (अर्द्धमात्रा)। तन्त्र में अर्धमात्रा विन्दु के ९ स्तर तक अर्ध भाग किये हैं, जो विश्व के ९ सर्ग के अनुसार हैं। अव्यक्त ध्वनि से ॐकार उत्पत्ति का वर्णन भागवत पुराण (१२/६/३७-४५) में है। इसे वेद तथा मनुष्य नमन करते हैं, नव जाते हैं, अतः इसे प्रणव कहा है। प्रणव का आकार धनुष जैसा ऋक् (६/७), विशेषकर मन्त्र ३ में है, जिसका सारांश है-
धनुर्गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं, शरं ह्युपासा निशितं सन्धयीत।
आयम्य तद् भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि॥३॥
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्षणमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥४॥
(मुण्डकोपनिषद्, २/२/३-४)
ॐ के धनुष-बाण आकार का वर्णन देवीभागवत (७/३६/६), मार्कण्डेय अध्याय ४२, पुराणों में भी है।
(२) त्रितार प्रणव-वेद में ॐ के अन्य रूप ’ईं’ तथा ’श्रीं’ हैं।
’ईं’ गुप्त प्रणव है। इसमें तत् (अव्यक्त ब्रह्म) सत् (दृश्य जगत्) तथा दर्शक जीवात्मा का समन्वय है-
ॐ तत्-सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः। (गीता, १७/२३)
अधिदैविक, अधिभौतिक, अध्यात्मिक विश्वों के समन्वय रूप में यह एक ही अक्षर है, जिसे जानने से वेद ज्ञात होता है-
य ईं चकार न सो अस्य वेद य ईं ददर्श हिरुगिन्नु तस्मात्। (ऋक्, १/१६४/३२)
इन ३ के समन्वय रूप प्रत्यक्ष विश्व का धारक ब्रह्म को ३ माता (पृथ्वी) तथा ३ पिता (द्यौ) निम्न दृष्टि से नहीं देखते हैं।
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति॥ (ऋक्, १/१६४/१०)
नेमवग्लापयन्ति = न + ईं + अव-ग्लापयन्ति।
जो अन्तः गुहा में ईं को स्पष्ट देखता है (चिकेत) वह अमृत चैतन्य धारा प्राप्त करता है-
य ईं चिकेत गुहा भवनमा यः ससाद धारामृतस्य (ऋक्, १/६७/४)
धारा, इला आदि पद्मिनी रूप श्री हैं-
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्ये (श्री सूक्त)
पद्मिनीमीं = पद्मिनीं + ईं।
ईङ्काराय स्वाहा। ईङ्कृताय स्वाहा। (तैत्तिरीय सं, ७/१/१९/९)
ॐ का तृतीय वैदिक रूप श्री है जो परब्रह्म की शक्ति या महिमा है (श्री = तेज)।
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ (वाज. यजु, ३१/२२)
दृश्य जगत् या सम्पत्ति लक्ष्मी है, अदृश्य तेज या सम्पत्ति श्री है।
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः (दुर्गा सप्तशती, ४/५)
= सुकृति लोगों के घर में अदृश्य सम्पत्ति (अलक्ष्मी) जैसे श्री (तेज), प्रतिभा, ख्याति आदि रहती है।
श्री त्रयी वेद रूप है-
अहेबुध्निय मन्त्रं मे गोपायायमृषयस्त्रयी विदा विदुः।
ऋचः सामानि यजूँषि साहि श्रीरमृता सताम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/२/१/६)
शब्दात्मिकां सुवैमलर्ग्यजुषां निधान-मुद्गीथ रम्य पदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥
(दुर्गा सप्तशती, ४/१०)
(३) तीन विभाग-ॐ = अव्यक्त प्रणव, ईं = गुप्त प्रणव, श्रीः = शाक्त प्रणव-तीनों के ३-३ खण्ड हैं। तन्त्र के मन्त्रों का अन्त भी श्रीं से होता है-
ॐ ह्रीं श्रीं (षोडशी मन्त्र), ऐं ह्रीं श्रीं (त्रितार मन्त्र)।
ॐ = अ + उ + म्।
ईं = इ + ई + म्। इ = इह (यहां) लोक।
ईं = दृश्य जगत् (ई गति व्याप्ति ब्रजन कान्त्यशन खादनेषु, धातु पाठ, २/४१), म् = ब्रह्म।
श्रीं = श + र + ईं।
श = महालक्ष्मी, र = धन, ई = तुष्टि।
ह्रीं-ह = शिव, र = प्रकृति, ई = महामाया। नाद (अनुस्वार) = विश्वाम्बा।
(४) दीक्षा और अधिकार-जप के लिए छोटा मन्त्र होता है। अध्ययन के लिए सभी मन्त्र पढ़े जा सकते हैं किन्तु साधना के लिए एक ही मन्त्र उचित है। एक साथ २ मन्त्रों का जप नहीं हो सकता है। मानसिक जप के लिए मन्त्र केवल १-२ अक्षर का होता है। मन उस पर धीरे धीरे स्थिर होता है। चञ्चल होने के कारण वह इधर उधर घूमता है, थक कर पुनः मन्त्र पर आता है-जैसे उड़ि जहाज को पन्छी पुनि जहाज पर आवे। किस व्यक्ति के लिए कौन मन्त्र उचित है यह निर्णय योग्य गुरु ही कर सकता है। इसकी विधि सिखाना और शिष्य को साधना करने योग्य बनाना दीक्षा है। इसमें अधिकार की चर्चा निरर्थक है। डाक्टर सभी दवा और ओषधियों के बारे में पढ़ता है। किन्तु हर ओषधि खाना उसके लिए आवश्यक नहीं है। अच्छा है कि किसी ओषधि की आवश्यकता न पड़े। भोजन में भी अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही खा सकते हैं।
३. भागवत मन्त्र-
(१) परम जप- भागवत पुराण का महामन्त्र है-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
इससे गजेन्द्र मोक्ष स्तुति का आरम्भ होता है-
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्॥१॥
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥२॥
(भागवत पुराण, ८/३/१-२)
जब गजेन्द्र को अन्य कोई उपाय नहीं सूझा तो उसने व्यवसित बुद्धि से चिन्तन कर परम मन्त्र का जाप किया। परम मन्त्र का अर्थ है, अभ्युदय और मोक्ष देने वाला। अन्य मन्त्र भौतिक सुखों के लिए हैं। जाप की विधि है कि सभी वासनाओं को मन में लीन कर मन का हृदय में आधान किया, समाधान होने से समाधि हुयी तब मन्त्र का जप हुआ। यह पूर्व जन्म के संस्कार द्वारा स्मृति तथा बुद्धि हुई। 'ॐ नमो भगवते' से मन्त्र का आरम्भ हुआ। उसके बाद वासुदेव का अर्थ है-चिदात्मक, पुरुष, आदिबीज, परेश आदि।
(२) नेति-उसके बाद कई श्लोकों में कहा है कि परब्रह्म वासुदेव का कोई एक वर्णन सम्भव नहीं है, इसे नेति (न + इति) कहा है, अर्थात् ब्रह्म का कोई भी वर्णन पूर्ण नहीं है।
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा, न नामरूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः, स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति॥८॥
स वै न देवासुर मर्त्य तिर्यङ्, न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन्, निषेधशेषो जयतादशेषः॥३४॥
(यहां षण्ढ का अर्थ नपुंसक है, आजकल यह पुरुषवाची है। ऋषभ या वृषभ प्रशंसा के लिए कहते थे -पुरुषर्षभ, अभी मूर्ख या नपुंसक को कहते हैं।)
निर्विशेष अव्यक्त की व्याख्या व्यक्त शब्दों से नहीं की जा सकती है। अतः केवल उप-वर्णन होता है। इसे ईशावास्योपनिषद् में पर्यगात् (घेर कर) कहा है-
स पर्यगात् शुक्रं अकायं अव्रणं अस्नाविरं -----।
(३) अभिगमन- निर्विशेष के उपवर्णन के बाद कोई भी लिङ्गाभिमानी (स्वरूप धारी) देवता नहीं आये क्योंकि उनकी स्तुति नहीं हो रही थी। तब विश्व की आत्मा नारायण स्वयं छन्द रूपी गरुड़ पर आये। शरीर धारी की गति संसर्प है, आत्मा की गति मनोजव है, अभिगमन (हिन्दी में अभी पहुंच गये)।
एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं, ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिधाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात्, तत्राखिलामरमयोहरिराविरासीत्॥३०॥
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥३१॥
ब्रह्म की तत्क्षण गति ईशावास्योपनिषद् में भी है-
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्शन्। तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठन् --॥४॥
(४) तान्त्रिक अर्थ- यहां गजेन्द्र शरीर पर या स्थूल सम्पत्ति पर अभिमान करने वाला जीव है, जिसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य शत्रुओं ने बन्धन में बान्ध रखा है। इससे गुरु तथा ब्रह्म कृपा से ही काट कर ऊपर उठा जा सकता है।
स्वामी विष्णुतीर्थ ने सौन्दर्य लहरी श्लोक ९ की टीका में कहा है कि मूलाधार के बाद स्वाधिष्ठान का भेदन नहीं किया जाता है, उससे काम वासना आदि जाग्रत होती है जो साधना में बाधा है। मूलाधार के बाद सीधा मणिपूर चक्र में जाते हैं। वह सूर्य रूपी विष्णु है, जिसके द्वारा स्वाधिष्ठान का स्वतः भेद हो जाता है। स्वाधिष्ठान जल या वरुण मण्डल है जो मकर या ग्राह पर आरूढ़ है। उसका भेदन ही ग्राह का सिर काटना है।
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथं,
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि॥
(शंकराचार्य कृत सौन्दर्य लहरी, ९)
स्वाधिष्ठान स्वरूप-अर्धेन्दु रूपलसितं शरदिन्दु शुभ्रं,
वंकार बीजममलं मकराधिरूढम्॥१५॥
तस्यांकदेश-कलितो हरिरेव पायात्,
नील-प्रकाश रुचिर श्रियमादधानः।
पीताम्बरः प्रथम-यौवन-गर्वधारी,
श्रीवत्स-कौस्तुभधरो धृतवेदबाहुः॥१६॥(षट्चक्र निरूपण)
(५) गरुड़- यहां छन्दोमय गरुड़ रहस्यमय है। विष्णु मन्दिर के बाहर गरुड़ स्तम्भ रहता है। एक गरुड़ पक्षी है। गरुड़ एक मनुष्य जाति थी जिसके राजा का भवन यवद्वीप सहित सप्तद्वीप में लिखा है (रामायण, किष्किन्धा काण्ड, ४०/३९)। कम्बोडिया का एक प्रान्त वैनतेय है जिसका अर्थ गरुड़ है (विनता का पुत्र)। यह सप्त द्वीप का विनता क्षेत्र हो सकता है। वेद में गरुड़ का वर्णन सुपर्ण, गरुत्मान् (ऋक्, १/१६४/४६), मूर्धा-वयः छन्द (वाज. यजु, १५/४-५) आदि शब्दों से किया गया है। एक सुपर्ण ने समुद्र में प्रवेश कर भूमि का निर्माण तथा पालन किया (ऋक्, १०/११४/४)। यह ७ ऋषियों का समूह है जो पक्षी रूप में मिल कर सृष्टि करते हैं। स्रोत मुख है, चौकोर शरीर सृष्टि के ४ मूल बल हैं, २ पक्ष समरूपता हैं, पुच्छ निर्माण या परिणति है (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/२-६)। २ सुपर्ण द्रष्टा तथा कर्त्ता रूपों का समन्वय है। मनुष्य शरीर में इनको आत्मा और जीव कहा है (द्वा सुपर्ण सूक्त- मुण्डक उप. ३/१/१, श्वेताश्वतर उप. ४/६, ऋक् १/१६४/२०, अथर्व ९/९/२०)
सूर्य रूपी विष्णु का वाहन गरुड़ पूरे सौर मण्डल तथा उससे बाहर फैला हुआ है।
सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रञ्चक्षुर्बृहद्रथन्तरे पक्षौ।
स्तोम ऽआत्मा छन्दांस्यङ्गानि यजूँषि नाम।
साम ते तनूर्वामदेव्यँयज्ञायज्ञियम्पुच्छन्धिष्ण्याः शफाः।
सुपर्णोऽसि गरुत्मान्दिवङ्गच्छ स्व पत॥। (वाज. यजु, १२/४)
पृथ्वी सतह पर सूर्य की वार्षिक गति भी सुपर्ण है। दक्षिणायन के अन्त में सूर्य मकर रेखा पर आता है (जब सायन सूर्य मकर राशि में हो)। उस समय के नक्षत्र को तार्क्ष्य (गरुड़, ३ तारा) कहा है। यहां से तार्क्ष्य उत्तरायण गति में आता है जब आत्मा उत्तम लोकों में जाती है। भीष्म पितामह मृत्यु के लिये इसी उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थे।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ (यजु २५/१९)
४. वासुदेव और नारायण-
(१) सृष्टि क्रम- सूर्य सिद्धान्त (१२/१२-२९) में सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन पुरुष-सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, त्रयीमय-यज्ञ, पाञ्चरात्र दर्शन तथा सांख्य दर्शन का समन्वय है। मूल पूरुष के ४ पादों से क्रमशः सृष्टि के क्रम हुए (पुरुष सूक्त)। हिरण्यगर्भ या तेज-पुञ्ज से सृष्टि का आरम्भ हुआ। कर्त्ता रूप पुरुष से प्रकृति के २४ तत्त्व बने (सांख्य)। पुरुष के स्वरूप में परिवर्त्तन ४ प्रकार से हुआ (पाञ्चरात्र)-
वासुदेव-वास स्थान, आकाश।
संकर्षण-परस्पर आकर्षण से पिण्ड बने और उनकी गति स्थिर हुई (आकृष्णेन रजसा वर्तमानः-ऋक्, १/३५/२, वाज, यजु, ३३/४३, ३४/३१)
प्रद्युम्न-तारा निर्माण के बाद तेज का विकिरण।
अनिरुद्ध-असंख्य प्रकार के चराचर पिण्ड (चित्राणि साकं दिवि-यजु, २५/९, चित्रान्-ऋक्, ४/२२/१०)
ऐसा नहीं था कि एक समय केवल वासुदेव रूप या हिरण्यगर्भ था, बाद में क्रमशः संकर्षण आदि बने। पूर्ण विश्व सदा से एक जैसा था जिसमें पूरुष का ३ पाद अव्यक्त तथा ३ पाद निर्मित विश्व है-पादोऽस्य विश्वा भूतानि, त्रिपादस्यामृतं दिवि (पुरुष सूक्त, ३)। अतः भगवत्पाद रामानुजाचार्य ने वासुदेव के ४ रूपों को व्यूह कहा है-पूरा विश्व इनका व्यूहन या मिलन है।
एकपाद्विभूति में श्री भगवान जगत के उदय, विभव और लय की लीला करते हैं। सृष्टि करते समय परमात्मा प्रद्युम्न, पालन करते समय अनिरूद्ध और संहार करते समय संकर्षण कहलाते हैं। इन सभी के मूर्ति प्रतीकों, वस्त्र, आयुध आदि की विस्तृत व्याख्या की है।
(२) नारायण रूप-सृष्टि की क्रिया नारायण है। मूल पूरुष नर था, उससे उत्पन्न अप् के विभिन्न रूप (रस, सरिर्, अप्, अम्भ, मर्, जल आदि) नार हुए। उस नार में ही पुरुष का निवास है-तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत् (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६)। 
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥ (मनु स्मृति, १/१०)
पूरे विश्व समुद्र में ब्रह्माण्ड रूपी महाविष्णु हैं जो अन्य ब्रह्माण्डों के आकर्षण (संकर्षण) से स्थिर हैं। इस ब्रह्माण्ड में सर्पाकार भुजा अनन्त है (वेद का अहिर्बुध्न्य, पुराण का शेषनाग)। जहां सूर्य है वहां इस भुजा की मोटाई के बराबर गोल में १००० तारा शेष के १००० सिर हैं। इनमें १ सिर सूर्य के क्षेत्र में विन्दुमात्र पृथ्वी है। ब्रह्माण्ड रूपी महाविष्णु की नाभि मूलबर्हणि नक्षत्र के आकर्षण से अमृत ब्रह्म रूप ब्रह्माण्ड स्थित है (काश्यपी पृथ्वी)। सूर्य के आकर्षण या कमल-नाल से पृथ्वी ग्रह रूपी मर्त्य ब्रह्मा हैं।

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