बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

*भृंगी की कथा**महादेव के गणों मे एक हैं भृंगी। एक महान शिवभक्त के रुप में भृंगी का नाम अमर है।*

*भृंगी की कथा*

*महादेव के गणों मे एक हैं भृंगी। एक महान शिवभक्त के रुप में भृंगी का नाम अमर है।* 


#महादेव के गणों मे एक हैं भृंगी। एक महान शिवभक्त के रुप में भृंगी का नाम अमर है। कहते हैं जहां शिव होंगे वहां गणेश, नंदी, श्रृंगी, भृंगी, वीरभद्र का वास स्वयं ही होगा। शिव-शिवा के साथ उनके ये गण अवश्य चलते हैं। इनमें से सभी प्रमुख गणों के बारे में तो कहानियां प्रचलित हैं। जैसे दक्ष यज्ञध्वंस के लिए वीरभद्र उत्पन्न हुए। 

मां पार्वती ने श्रीगणेश को उत्पन्न किया। नंदी तो शिव के वाहन हैं जो धर्म के अवतार हैं। शिलाद मुनि के पुत्र के रूप में जन्म लेकर शिवजीके वाहन बने नंदी। आपने यह सब कथाएं खूब सुनी होंगी पर क्या प्रमुख शिवगण भृंगी की कथा सुनी है?भृंगी की खास बात यह हैं कि उनके तीन पैर हैं। शिव विवाह के लिए चलीबारात में उनका जिक्र मिलता हैं  बिनु पद होए कोई.. बहुपद बाहू” (यानी शिवगणों में कई बिना पैरों के थे और किसी के पास कई पैर थे) ये पद तुलसीदासजी ने भृंगी के लिए ही लिखा है।भृंगी के तीन पैर कैसे हुए? इसके पीछे एक कथा है जो हमें बताती है कि उमा-शंकर के बीच का प्रेम कितना गहरा है। 

ये दोनों वस्तुत: एक ही हैं। दरअसल भृंगी की एक अनुचित जिद ही वजह से सदाशिव और जगदंबा को अर्द्धनारीश्वर रुप धारण करना पड़ा।भृंगी महान शिवभक्त थे। सदाशिव के चरणों में उनकी अत्य़धिक प्रीति थी। उन्होंने स्वप्न में भी शिव के अतिरिक्त किसी का ध्यान नहीं किया था। यहां तक कि वह जगद्जननी मां पार्वती को भी सदाशिव से अलग मानते थे। शिवस्य चरणम् केवलम्” के भाव में हमेशा रहते थे। उनकी बुद्धि यह स्वीकार ही नहीं करती थी कि शिव और पार्वती में कोई भेद नहीं है।

एक बार सदाशिव के परम भक्त श्रृंगी ऋषि कैलाश पर अपने आराध्य की परिक्रमा करने पहुंचे। सदैव की तरह महादेव के बाईं जंघा पर आदिशक्तिजगदंबा विराजमान थीं। महादेव समाधि में थे और जगदंबा चैतन्य थीं। जगदंबा के नेत्र खुले थे।

भृंगी तो आए थे शिवजी की परिक्रमा करने। शिवजी तो ध्यानमग्न थे। शिवप्रेम में भृंगी मतवाले हो रहे थे। वह सिर्फ शिवजी की परिक्रमा करना चाहते थे क्योंकि ब्रह्मचर्य की उनकी परिभाषा अलग थी। पर क्या करें, पार्वतीजी तो शिवजी के वामांग में विराजमान हैं। भृंगी अपना उतावनापन रोक ही नहीं पाए। साहस इतना बढ़ गया कि उन्होंने जगदंबा से अनुरोध कर दिया कि वह शिवजी से अलग होकर बैठें ताकि मैं शिवजी की परिक्रमा कर सकूं।

जगदंबा समझ गईं कि यह है तो तपस्वी लेकिन इसे ज्ञान नहीं हुआ है। अभी यह अधूरा ज्ञान का है इसलिए उन्होंने भृंगी की बात को अनसुना किया। भृंगी तो हठ में थे, कुछ भी सुनने-समझने को तैयार ही नहीं। फिर से पार्वतीजी से कहा कि आपकुछ देर के लिए हट जाएं, मैं परिक्रमा कर लूं।मां पार्वती ने इसपर आपत्ति जताई और कहा कि अनुचित बात बंद करो. 

जगदंबा महादेव की शक्ति हैं. वह सदाशिव से पृथक होने को कैसे तैयार होतीं! माता ने भृंगी को कई तरह से समझाया, प्रकृति और पुरुष के संबंधों की व्याख्या की। वेदों का उदाहरण दिया परंतु भृंगी भी वैसे ही हठी। हठी की बुद्धि तो वैसे भी आधी हो जाती है।माता द्वारा दिए ज्ञान-उपदेश उनके विवेक में उतरे ही नहीं। उनकी बुद्धि सृष्टि के इस रहस्य को समझने के लिए तैयार ही नहीं हुई। उन्होंने सिर्फ शिव की परिक्रमा करने की ठान रखी थी। माता ने सोचा इस अज्ञानी को कुछ भी समझाने का लाभ नहीं। इसे अनदेखा ही कर देना चाहिए। माता शिवजी से अलग न हुईं।

भृंगी ने भी हठ ही पाल रखा था। अपने मन की करने के लिए एक योजना बना ली। भृंगी ने सर्प का रुप धारण किया और शिवजी की परिक्रमा करने लगे।

सरकते हुए वह जगदंबा और महादेव के बीच से निकलने का यत्न करने लगे। उनकी इस धृष्टता का परिणाम हुआ कि शिवजी की समाधि भंग हो गई। उन्होंने समझ लिया कि मूर्ख जगदंबा को मेरे वाम अंग पर देखकर विचलित है। वह दोनों में भेद कर रहा है। इसे सांकेतिक रूप से समझाने के लिए शिवजी ने तत्काल अर्द्धनारीश्वर स्वरुप धारण कर लिया। जगदंबा अब उन्हीं में विलीन हो गईं थी। 

शिवजी दाहिने भाग से पुरुष रूप में और बाएं भाग से स्त्रीरूप में दिखने लगे।अब तो भृंगी की योजना पर पानी फिरने लगा। हठी का हठ तो भगवान से भी ऊपर जाने लगता है। भृंगी ने इतने पर भी हिम्मत नहीं हारी। उन्हें तो बस शिवजी की ही परिक्रमा करनी थी। अपनी जिद पूरी करने की लिए एक और मूर्खतापूर्ण प्रयास किया। अब भृंगी ने चूहे का रुप धारण कर लिया।

चूहे के रूप में प्रभु के अर्द्धनारीश्वर रुप को कुतरकर एक दूसरे से अलग करने की कोशिश में जुट गए। अब यह तो अति थी। शिवभक्त भृंगी की धृष्टता को लगातार सहन करती आ रही जगदंबा का धैर्य चूक गयी|

उन्होंने भृंगी को श्राप दिया- “हे भृंगी तू सृष्टि के आदि नियमों का उल्लंघन कर रहा है। यदि तू मातृशक्ति का सम्मान करने में अपनी हेठी समझता है तो अभी इसी समय तेरे शरीर से तेरी माता का अंश अलग हो जाएगा।

यह श्राप सुनकर स्वयं महादेव भी व्याकुल हो उठे। भृंगी की बुद्धि भले ही हर गई थी पर महादेव जानते थे कि इस श्राप का मतलब कितना गंभीर है। 

*शरीर विज्ञान की तंत्रोक्त व्याख्या के मुताबिक इंसान के शरीर में हड्डियां और पेशियां पिता से मिलती हैं, जबकि रक्त और मांसमाता के अंश से प्राप्त होता है।*

फिर क्या था, भृंगी की तो दुर्गति हो गई। उनके शरीर से तत्काल रक्त और मांस अलग हो गया। शरीर में बची रह गईं तो सिर्फ हड्डियां और मांसपेशियां। मृत्यु तो हो नहीं सकती थी क्योंकि वो अविमुक्त कैलाश के क्षेत्र में थे और स्वयं सदाशिव और महामाया उनके सामने थे।

उनके प्राण हरने के लिए यमदूत वहां पहुंचने का साहस ही नहीं कर सकते थे। असह्य पीड़ा से भृंगी बेचैन होने लगे। ये शाप भी आदिशक्ति जगदंबा का दिया हुआ था। उन्होंने ये शाप भृंगी की भेदबुद्धि को सही रास्ते पर लाने के लिए दिया था। इसलिए महादेव भी बीच में नहीं पड़े।

इस शाप का लाभ यह हुआ कि भृंगी असहनीय पीड़ा में पड़कर समझ गए कि पितृशक्ति किसी भी सूरत में मातृशक्ति से परे नहीं है। माता और पितामिलकर ही इस शरीर का निर्माण करते हैं। इसलिए दोनों ही पूज्य हैं।इसके बाद भृंगी ने असह्य पीड़ा से तड़पते हुए जगदंबा की अभ्यर्थना की। माता तो माता होती है। उन्होंने तुरंत उनपर कृपा की और पीड़ा समाप्त कर दी। माता ने अपना शाप वापस लेने का उपक्रम शुरू किया लेकिन धन्य थे भक्त भृंगी भी। उन्होंने माता को शाप वापस लेने से रोका।

भृंगी ने कहा- माता मेरी पीड़ा दूर करके आपने मेरे उपर बड़ी कृपा की है। परंतु मुझे इसी स्वरुप में रहने दीजिए। मेरा यह स्वरूप संसार के लिए एक उदाहरण होगा। इस सृष्टि में फिर से कोई मेरी तरह भ्रम का शिकार होकर माता और पिता को एक दूसरे से अलग समझने की भूल न करेगा। मैंने इतना अपराध किया फिर भी आपने मेरे ऊपर अनुग्रह किया। अब मैं एक जीवंत उदाहरण बनकर सदैव आपके आसपास ही रहूंगा।

भक्त की यह बात सुनकर महादेव और जगदंबा दोनों पुलकित हो गए। अर्द्धनारीश्वर स्वरुप धारण किए हुए मां जगदंबा और पिता महादेव ने तुरंत भृंगी को अपने गणों में प्रमुख स्थान दिया। भृंगी चलने-फिरने में समर्थ हो सकें इसलिए उन्हें तीसरा पैर भी दिया। तीसरे पैर से वह अपने भार को संभालकर शिव-पार्वती के साथ चलते हैं।अर्धनारीश्वर भगवान ने कहा- हे भृंगी तुम सदा हमारे साथ रहोगे। 

तुम्हारी उपस्थिति इस जगत को संदेश होगी कि हर जीव में जितना अंश पुरूष है उतनी ही अंश है नारी। नारी और पुरुष में भेद करने वाले की गति तुम्हारे जैसे हो जाती है। पुरुष और स्त्री मिलकर संसार को आगे बढ़ाएं, दोनों बराबर अंश के योगी हैं यही सिद्ध करने को मैंने अर्धनारीश्वर रूप धरा है। स्त्री-पुरुष दोनों का अपना स्थान, अपना अस्तित्व है। इसे नकारने वाले को शिव-शिवा दोनों में से किसी की भी कृपा प्राप्त नहीं होती। वह जीव मृत्युलोक में सदा शिव-शिवा की कृपा के लिए तरसता ही विदा हो जाएगा।

भृंगी को वो पद प्राप्त हुआ, जिसे हासिल करने के लिए इंद्रादि बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं। संसार को मैथुनी सृष्टि की व्यवस्था शिवजी ने दी है। 

इसके लिए उन्होंने सबसे पहले ब्रह्मा को अपना अर्धनारीश्वर स्वरूप दिखाया। उसे देखकर ही ब्रह्मा ने नारी की कल्पना की। नारी और पुरुष के संयोग से सृष्टि रचना की व्यवस्था दी। अर्थात नर-नारी मिलकर सूक्ष्म ब्रह्मा की तरह सृष्टिकर्ता हो जाते हैं। फिर शिव ने जगदंबा के साथ विवाह व्यवस्था दी। सर्वप्रथम विवाह शिव-जगदंबा का ही है।

श्रीदत्तात्रेय वज्र पन्जर कवचं...

श्रीदत्तात्रेय वज्र पन्जर कवचं...

इस कवच का वर्णन श्रीरुद्रयामल तन्त्र के हिमवत्खंड में उमामहेश्वर संवाद के रूप में आया है। इस वज्र पन्जर कवच की उपासना सर्वप्रथम स्वयम भगवान शिव ने अपने किरातरूपी महारुद्र अवतार रूप में सम्पन्न की है। इस कवच के माध्यम से ही महर्षि दधीचि ने अपने शरीर को वज्रवत बना लिया था एवं जिनके अस्थियों के द्वारा देवराज इन्द्र को वज्रास्त्र प्राप्त हुआ था। ब्रह्माण्ड के समस्त गुरु मण्डल भगवान महाअवधूत श्री दत्तत्रेय के अधीन हैं व उनके द्वारा ही सन्चालित और संरक्षित हैं। अतः इस स्त्रोत के बारे में कुछ भी कहना साक्षात सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर है। परन्तु फिर भी इसके फलश्रुति खण्ड का, जो स्वयम भगवान शिव माता भवानी से कहते हैं; मैं सरलार्थ कर दे रहा हूं –
खालील कवचाचे वर्णन श्रीरुद्रयामल तंत्र मधील हिमवत्खंड मध्ये उमामहेश्वर संवादाचे रूप आहे . भगवान शिव यांनी सर्व प्रथम या वज्र पन्जर कवचाची उपासना आपल्या महारुद्र अवतारा मध्ये केली होती.ह्या कवचा मुळेच महर्षी दधीचि यांनी आपल्या शरीराला वज्रप्रमाणे केले होते. आणि यांच्याच अस्थी मुळे देवराज इंद्र यांना वज्रास्त्र प्राप्त झाले.
“ इस कवच का जो भी पाठ या श्रवण करते हैं वे वज्रदेही और दीर्घायु होते हैं। समस्त सुख-दुःखों से परे हो जीवन्मुक्त हो जाते हैं, सर्वत्र सभी संकल्प सिद्ध होते हैं। धर्मार्थकाममोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रेष्ठ वाहनादि व सर्वैश्वर्य प्राप्त होता है। वेदादि शास्त्रों का मर्मज्ञ होता है। यह कवच बुद्धि, विद्या, प्रज्ञादि व सर्वसंतोषों का कारक है। सर्वदुःखों का निवारक, शत्रुनिवारक और शीघ्र यशकीर्ति की वृद्धि करनेवाला है। मंत्रतंत्रादि कुयोगों से उतपन्न, ब्रह्मराक्षसादि ग्रहोद्भव, देशकालस्थान से उत्पन्न तापतत्रय और नवग्रह से होने वाले महापातकों एवम सर्वप्रकार के रोगों का नाश इस कवच के १००० पाठ से हो जाता है। ”
श्री दत्त वज्र पन्जर कवचम्
विनियोगः ॐ अस्य श्रीदत्तात्रेय वज्रपन्जर कवच स्तोत्र कवच मंत्रस्य श्री किरातरूपी महारुद्र ऋषिः, अनुष्टुप छंदः, श्री दत्तात्रेयो देवता, द्रां बीजं, आं शक्तिः, क्रौं कीलकं, ॐ आत्मने नमः। ॐ द्रीं मनसे नमः। ॐ आं द्रीं श्रीं सौः ॐ क्लां क्लीं क्लूं क्लैं क्लौं क्लः। श्री दत्तात्रेय प्रसाद सिद्ध्यर्थे समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यासः
श्री किरातरूपी महारुद्र ऋषये नमः शिरसि।
अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे।
श्री दत्तत्रेयो देवतायै नमः ह्रदि।
द्रां बीजाय नमः गुह्ये।
आं शक्तये नमः नाभौ।
क्रौं कीलकाय नमः पादयोः।
श्री दत्तात्रेय प्रसाद सिद्ध्यर्थे समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगाय नमः अंजलौ।

करन्यासः                             ह्र्दयादिन्यासः
ॐ द्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।                ॐ द्रां ह्रदयाय नमः।
ॐ द्रीं तर्जनीभ्यां नमः।                 ॐ द्रीं शिरसे स्वाहा।
ॐ द्रूं मध्यमाभ्यां नमः।                ॐ द्रूं शिखायै वषट्।
ॐ द्रैं अनामिकाभ्यां नमः।               ॐ द्रैं कवचाय हुं।
ॐ द्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।             ॐ द्रौं नेत्रत्रयाय वौषट।
ॐ द्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।          ॐ द्रः अस्त्राय फट्।
ॐ भूर्भुवः स्वरोम इति दिग्बन्धः।

ध्यानम्ः
जगदंकुरकन्दाय सच्चिदानन्द मूर्तये। दत्तात्रेयाय योगीन्द्रचन्द्राय परमात्मने॥
कदा योगी कदा भोगी कदा नग्नः पिशाचवत्। दत्तात्रेयो हरिः साक्षाद् भुक्तिमुक्ति प्रदायकः॥
वाराणसीपुर स्नायी कोल्हापुर जपादरः। माहुरीपुर भिक्षाशी सह्यशायी दिगम्बरः॥
इन्द्रनील समाकारः चन्द्रकान्तसम द्युतिः। वैडूर्यसदृश स्फूर्तिः चलत्किंचित जटाधरः॥
स्निग्धधावल्य युक्ताक्षो अत्यन्त नीलकनीनिकः। भ्रूवक्षः श्मश्रु नीलांकः शशांक  सदृशाननः॥
हासनिर्जित नीहारः कण्ठनिर्जित कम्बुकः। मांसलांसो दीर्घबाहुः पाणिनिर्जित पल्लवः॥
विशाल पीनवक्षाश्च ताम्रपाणिर्दलोदरः। पृथुल श्रोणि ललितो विशाल जघनस्थलः॥
रम्भास्तम्भोपमानः ऊरूर्जानु पूर्वैकजंघकः। गूढ़गुल्फः कूर्मपृष्ठो लसत् पादोपरिस्थलः॥
रक्तारविन्द सदृश रमणीय पदाधरः। चर्माम्बरधरो योगी स्मर्तृगामी क्षणे क्षणे॥
ज्ञानोपदेश निरतो विपद हरणदीक्षितः। सिद्धासन समासीन ऋजुकायो हसन्मुखः॥
वामहस्तेन वरदो दक्षिणेन् अभयं करः। बालोन्मत्त पिशाचीभिः क्वचिद् युक्तः परीक्षितः॥
त्यागी भोगी महायोगी नित्यानन्दो निरंजनः। सर्वरूपी सर्वदाता सर्वगः सर्वकामदः॥
भस्मोद्धूलित सर्वांगो महापातकनाशनः। भुक्तिप्रदो मुक्तिदाता जीवन्मुक्तो न संशयः॥
एवं ध्यात्वा अनन्यचित्तो मद् वज्रकवचं पठेत्। मामेव पश्यन् सर्वत्र स मया सह संचरेत्॥
दिगम्बरं भस्म सुगन्धलेपनं चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदायुधम्।
पद्मासनं योगिमुनीन्द्र वन्दितं दत्तेति नाम स्मरणेन्नित्यम्॥
- मूल कवचम्ः -
ॐ दत्तात्रेयः शिरः पातु सहस्राब्जेषु संस्थितः । भालं पातु अनसूयेयः चन्द्रमण्डल मध्यगः ॥१॥
कूर्चं मनोमयः पातु हं क्षं व्दिदल पद्मभूः। ज्योतिरूपो अक्षिणी पातु पातु शब्दात्मकः श्रुतिः ॥२॥
नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मकः। जिह्वां वेदात्मकः पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिकः ॥३॥
कपोलावत्रिभूः पातु पातु अशेषं ममात्मवित्। स्वरात्मा षोडशाराब्ज स्थितः स्वात्मा अवताद् गलम् ॥४॥
स्कन्धौ चन्द्रानुजः पातु भुजौ पातु कृतादिभूः। जत्रुणी शत्रुजित पातु पातु वक्षः स्थलं हरिः ॥५॥
कादिठान्त व्दादशार पद्मगो मरुदात्मकः। योगीश्वरेश्वरः पातु ह्रदयं ह्रदय स्थितः ॥६॥
पार्श्वे हरिः पार्श्ववर्ती पातु पार्श्वस्थितः समृतः। हठयोगादि योगज्ञः कुक्षी पातु कृपानिधिः ॥७॥
डकारादि फकारान्त दशार सरसीरुहे। नाभिस्थले वर्तमानो नाभिं वह्न्यात्मकोऽवतु ॥८॥
वह्नि तत्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूरकम्। कटिं कटिस्थ ब्रह्माण्ड वासुदेवात्मकोऽवतु ॥९॥
बकारादि लकारान्त षट्पत्राम्बुज बोधकः। जल तत्वमयो योगी स्वाधिष्ठानं ममावतु ॥१०॥
सिद्धासन समासीन ऊरू सिद्धेश्वरोऽवतु। वादिसान्त चतुष्पत्र सरोरुह निबोधकः ॥११॥
मूलाधारं महीरूपो रक्षताद् वीर्यनिग्रही। पृष्ठं च सर्वतः पातु जानुन्यस्तकराम्बुजः ॥१२॥
जंघे पातु अवधूतेन्द्रः पात्वंघ्री तीर्थपावनः। सर्वांगं पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशवः ॥१३॥
चर्म चर्माम्बरः पातु रक्तं भक्तिप्रियोऽवतु। मांसं मांसकरः पातु मज्जां मज्जात्मकोऽवतु ॥१४॥
अस्थीनि स्थिरधीः पायान्मेधां वेधाः प्रपालयेत्। शुक्रं सुखकरः पातु चित्तं पातु दृढ़ाकृतिः ॥१५॥
मनोबुद्धिं अहंकारं ह्रषीकेशात्मकोऽवतु। कर्मेन्द्रियाणि पात्वीशः पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यजः ॥१६॥
बन्धून् बन्धूत्तमः पायात् शत्रुभ्यः पातु शत्रुजित्। गृहाराम धनक्षेत्र पुत्रादीन् शंकरोऽवतु ॥१७॥
भार्यां प्रकृतिवित् पातु पश्वादीन् पातु शांर्गभृत्। प्राणान्पातु प्रधानज्ञो भक्ष्यादीन् पातु भास्करः ॥१८॥
सुखं चन्द्रात्मकः पातु दुःखात् पातु पुरान्तकः। पशून् पशुपतिः पातु भूतिं भूतेश्वरो मम् ॥१९॥
प्राच्यां विषहरः पातु पातु आग्नेयां मखात्मकः। याम्यां धर्मात्मकः पातु नैर्ऋत्यां सर्ववैरिह्रत् ॥२०॥
वराहः पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोऽवतु। कौबेर्यां धनदः पातु पातु ऐशान्यां महागुरुः ॥२१॥
ऊर्ध्वं पातु महासिद्धः पातु अधस्ताद् जटाधरः। रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षतु आदिमुनीश्वरः ॥२२॥
- फलश्रुतिः -
एतन्मे वज्रकवचं यः पठेच्छृणुयादपि । वज्रकायः चिरंजीवी दत्तात्रेयो अहमब्रुवम् ॥२३॥
त्यागी भोगी महायोगी सुखदुःख विवर्जितः । सर्वत्र सिद्धिसंकल्पो जीवन्मुक्तोऽथ वर्तते ॥२४॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे योगी दत्तात्रेयो दिगम्बरः । दलादनोऽपि तज्जपत्वा जीवन्मुक्तः स वर्तते ॥२५॥
भिल्लो दूरश्रवा नाम तदानीं श्रुतवानिदम् । सकृच्छ्र्वणमात्रेण वज्रांगो अभवदप्यसौ ॥२६॥
इत्येतद वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य योगिनः । श्रुत्वाशेषं शम्भुमुखात् पुनरप्याह पार्वती ॥२७॥
एतत् कवचं माहात्म्यं वद विस्तरतो मम् । कुत्र केन कदा जाप्यं किं यज्जाप्यं कथं कथम् ॥२८॥
उवाच शम्भुस्तत्सर्वं पार्वत्या विनयोदितम् । श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि समाहितमनाविलम् ॥२९॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां इदमेव परायणम् । हस्त्यश्वरथपादाति सर्वैश्वर्य प्रदायकम् ॥३०॥
पुत्रमित्रकलत्रादि सर्वसन्तोष साधनम् । वेदशास्त्रादि विद्यानां निधानं परमं हि तत् ॥३१॥
संगीतशास्त्रसाहित्य सत्कवित्व विधायकम् । बुद्धि विद्या स्मृतिप्रज्ञां अतिप्रौढिप्रदायकम् ॥३२॥
सर्वसन्तोष करणं सर्व दुःख निवारणम् । शत्रु संहारकं शीघ्रं यशः कीर्तिविवर्धनम् ॥३३॥
अष्टसंख्या महारोगाः सन्निपातः त्रयोदशः । षण्णवत्यक्षिरोगाश्च विंशतिर्मेहरोगकाः ॥३४॥
अष्टादश तु कुष्ठानि गुल्मानि अष्टविधान्यपि । अशीतिर्वातरोगाश्च चत्वारिंश्त्तु पैत्तिकाः ॥३५॥
विंशति श्लेष्मरोगाश्च क्षयचातुर्थिकादयः । मन्त्रयन्त्रकुयोगाद्याः कल्पतन्त्रादि निर्मिताः ॥३६॥
ब्रह्मराक्षस वेतालकूष्माण्डादि ग्रहोद्भवाः । संगजा देशकालस्थान तापत्रयसमुत्थिताः ॥३७॥
नवग्रह समुद्भूता महापातक सम्भवाः । सर्वे रोगाः प्रणश्यन्ति सहस्रावर्तनाद् ध्रुवम् ॥३८॥
अयुतावृत्ति मात्रेण वन्ध्या पुत्रवति भवेत् । अयुत व्दितयावृत्या हि अपमृत्युर्जयो भवेत् ॥३९॥
अयुत त्रितयाच्चैव खेचरत्वं प्रजायते । सहस्रादयुतादर्वाक् सर्वकार्याणि साधयेत् ॥४०॥
लक्षावृत्त्या कार्यसिद्धिः भवत्येव न संशयः । विषवृक्षस्य मूलेषु तिष्ठन् वै दक्षिणामुखः ॥४१॥
कुरुते मासमात्रेण वैरिणं विकलेन्द्रियम् । औदुम्बर तरोर्मूले वृद्धिकामेन् जाप्यते ॥४२॥
श्रीवृक्षमूले श्रीकामी तिंतिणी शांतिकर्मणि । ओजस्कामो अश्वत्थमूले स्त्रीकामैः सहकारके ॥४३॥
ज्ञानार्थी तुलसीमूले गर्भगेहे सुतार्थिभिः । धनार्थिभिस्तु सुक्षेत्रे पशुकामैस्तु गोष्ठके ॥४४॥
देवालये सर्वकामैस्तत्काले सर्वदर्शितम । नाभिमात्रजले स्थित्वा भानुम् आलोक्य यो जपेत् ॥४५॥
युद्धे वा शास्त्रवादे वा सहस्त्रेण जयो भवेत् । कंठमात्रे जले स्थित्वा यो रात्रौ कवचं पठेत् ॥४६॥
ज्वरापस्मार कुष्ठादि तापज्वर निवारणम् । यत्र यत्स्यात्स्थिरं यद्यत्प्रसन्नं तन्निवर्तते॥४७॥
तेन् तत्र हि जप्तव्यं ततः सिद्धिर्भवेद्‍ ध्रुवं । इत्युक्त्वान् च शिवो गौर्ये रहस्यं परमं शुभम् ॥४८॥
यः पठेत् वज्रकवचं दत्तात्रेयो समो भवेत् । एवं शिवेन् कथितं हिमवत्सुतायै प्रोक्तम् ॥४९॥
दलादमुनये अत्रिसुतेन पूर्वम् यः कोअपि वज्रकवचं। पठतीह लोके दत्तोपमश्चरति योगिवरश्चिरायुः॥५०॥

॥ हरिः ॐ तत्सत् श्री सदगुरुः महावधूत दत्त ब्रह्मार्पणमस्तु ॥
पाठ विधिः
१००० पाठ का संकल्प लें। गुरु पूजन व गणेश पूजन कर पाठ आरम्भ करें। पहले पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच का पाठ करें। और अंतिम पाठ में पुनः मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप १००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण प्रक्रम को आप ५ बार करें। तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जायेंगे। प्रत्येक १००० पाठ की समाप्ति पर दशांश हवन करें और एक कुंवारी कन्या को भोजन वस्त्रादि प्रदान करें।
प्रयोग विधिः
नित्य किसी भी पूजन या साधना को करने से पूर्व और अन्त में आप कवच का ५ बार पाठ करें। रोगयुक्त अवस्था में या यात्राकाल में स्तोत्र को मानसिक रूप से भावना पूर्वक स्मरण कर लें।
इसी तरह यदि आप श्मशान में किसी साधना को कर रहें हों तो एक लोहे की छ्ड़ को कवच से २१ बार अभिमंत्रित कर अपने चारों ओर घेरा बना लें। और साधना से पूर्व व अन्त में कवच का ५-५ बार पाठ कर लें। जब कवच सिद्धि की साधना कर रहे हो उस समय एक लोहे की छ्ड़ को भी गुरु चित्र या यंत्र के सामने रख सकते हैं। और बाद में उपरोक्त विधि से प्रयोग कर सकते हैं।
विशेषः यदि आप पाठ में आये शरीर के अंगों में न्यास की भावना करें तो प्रभाव कई गुणित हो जायेगा।
भगवान आपके समस्त अभीष्टों को पूर्ण करें ऐसी ही उनके श्री चरणों में प्रार्थना करता हूं।

॥ श्री गुरुचरणार्पणमस्तु ॥

॥ क्षमस्व परमेश्वरः ॥
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय सुरेन्द्रनगर पंड्याजी+919824417090/+917802000033...

महाशिवरात्र महात्यम-पंचवक्त्र पूजन

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

*गंगापुत्र भीष्म पितामह के सौलह रहस्य*

*गंगापुत्र भीष्म पितामह के सौलह रहस्य*

पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरु हुए। पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए।

कुरु के वंश में आगे चलकर राजा प्रतीप हुए जिनके दूसरे पुत्र थे शांतनु। शांतनु का बड़ा भाई बचपन में ही शांत हो गया था। शांतनु के गंगा से देवव्रत (भीष्म) हुए। भीष्म ने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी इसलिए यह वंश आगे नहीं चल सका। भीष्म अंतिम कौरव थे।

पहला रहस्य : - यह वह काल था जबकि देवी और देवता धरती पर विचरण किया करते थे। किसी खास मंत्र द्वारा उनका आह्वान करने पर वे प्रकट हो जाया करते थे। देवताओं में इंद्र, वरुण, 2 अश्विनकुमार, 8 वसुगण, 12 आदित्यगण, 11 रुद्र, सूर्य, मित्र, पूषन, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, सती, सरस्वती, लक्ष्मी, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, 49 मरुद्गण, पर्जन्य, वायु, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य, यम, पितृ (अर्यमा), मृत्यु, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, कश्यप, विश्वकर्मा, गायत्री, सावित्री, आत्मा, बृहस्पति, शुक्राचार्य आदि। इन्हीं देवताओं के कुल में से एक मां गंगा भी हैं।

गंगा ने क्यों किया शांतनु से विवाह? पुत्र की कामना से शांतनु के पिता महाराजा प्रतीप ने गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके तप, रूप और सौन्दर्य पर मोहित होकर गंगा उनकी दाहिनी जंघा पर आकर बैठ गईं और कहने लगीं, 'राजन! मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं। मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूं।'

इस पर राजा प्रतीप ने कहा, 'गंगे! तुम मेरी दाहिनी जंघा पर बैठी हो, जबकि पत्नी को तो वामांगी होना चाहिए, दाहिनी जंघा तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कर सकता हूं।' यह सुनकर गंगा वहां से चली गईं।'

जब महाराज प्रतीप को पुत्र की प्राप्ति हुई तो उन्होंने उसका नाम शांतनु रखा और इसी शांतनु से गंगा का विवाह हुआ। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा नदी में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया।

दूसरा रहस्य : - शांतनु ने अपने पिता प्रतीप की आज्ञा से गंगा के पास जाकर उनसे विवाह करने के लिए निवेदन किया था। गंगा तो शांतनु के पिता पर आसक्त हुई थी। तब गंगा ने कहा, 'राजन्! मैं आपके साथ विवाह करने के लिए तैयार हूं लेकिन आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।' शांतनु ने गंगा को वचन देकर विवाह कर लिया।

गंगा के गर्भ से महाराज शांतनु को 8 पुत्र हुए जिनमें से 7 को गंगा ने गंगा नदी में ले जाकर बहा दिया। वचन के बंधे होने के कारण शांतनु कुछ नहीं बोल पाए।

जब गंगा का 8वां पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिए ले जाने लगी तो राजा शांतनु से रहा नहीं गया और उन्होंने इस कार्य को करने से गंगा को रोक दिया। गंगा ने कहा, 'राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिए अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।' इतना कहकर गंगा वहां से अंतर्ध्यान हो गई।

महाराजा शांतनु ने अपने उस पुत्र को पाला-पोसा और उसका नाम देवव्रत रखा। देवव्रत के किशोरावस्था में होने पर उसे हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया। यही देवव्रत आगे चलकर भीष्म कहलाए।

तीसरा रहस्य : - एक बार 'द्यु' नामक वसु ने वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु का हरण कर लिया। इससे वशिष्ठ ऋषि ने द्यु से कहा कि ऐसा काम तो मनुष्य करते हैं इसलिए तुम आठों वसु मनुष्य हो जाओ। यह सुनकर वसुओं ने घबराकर वशिष्ठजी की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि अन्य वसु तो वर्ष का अंत होने पर मेरे शाप से छुटकारा पा जाएंगे,  लेकिन इस 'द्यु' को अपनी करनी का फल भोगने के लिए एक जन्म तक मनुष्य बनकर पीड़ा भोगना होगी।

यह सुनकर वसुओं ने गंगाजी के पास जाकर उन्हें वशिष्ठजी के शाप को विस्तार से बताया और यह प्रार्थना की कि 'आप मृत्युलोक में अवतार लेकर हमें गर्भ में धारण करें और ज्यों ही हम जन्म लें, हमें पानी में डुबो दें। इस तरह हम जल्दी से सभी मुक्त हो जाएंगे।' गंगा माता ने स्वीकार कर लिया और वे युक्तिपूर्वक शांतनु राजा की पत्नी बन गईं और शांतनु से वचन भी ले लिया। शांतनु से गंगा के गर्भ में पहले जो 7 पुत्र पैदा हुए थे उन्हें उत्पन्न होते ही गंगाजी ने पानी में डुबो दिया जिससे 7 वसु तो मुक्त हो गए लेकिन 8वें में शांतनु ने गंगा को रोककर इसका कारण जानना चाहा।

गंगाजी ने राजा की बात मानकर वसुओं को वशिष्ठ के शाप का सब हाल कह सुनाया। राजा ने उस 8वें पुत्र को डुबोने नहीं दिया और इस वचनभंगता के काण गंगा 8वें पुत्र को सौंपकर अंतर्ध्यान हो गईं। यहीं बालक 'द्यु' नामक वसु था।

चौथा रहस्य : - एक दिन देवव्रत के पिता शांतनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुए एक सुन्दर कन्या नजर आई। शांतनु उस कन्या पर मुग्ध हो गए। महाराजा ने उसके पास जाकर उससे पूछा, 'हे देवी तुम कौन हो?' उसने कहा, 'महाराजा मेरा नाम सत्यवती है और में निषाद कन्या हूं।' (उस काल में निषाद नाम की एक जाति होती थी)

महाराज उसके रूप-यौवन पर रीझकर उसके पिता के पास पहुंचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धीवर ने कहा, 'राजन्! मुझे अपनी कन्या का विवाह आपके साथ करने में कोई आपत्ति नहीं है, किंतु मैं चाहता हूं कि मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही आप अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाएं, तो ही यह विवाह संभव हो पाएगा।' निषाद के इन वचनों को सुनकर महाराज शांतनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आए और मन ही मन इस दुख से घुटने लगे। सत्यवती के वियोग में महाराज व्याकुल रहने लगे और उनका शरीर भी दुर्बल होने लगा।

महाराज की इस दशा को देखकर देवव्रत को चिंता हुई। जब उन्हें मंत्रियों द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण पता चला तो वे निषाद के घर जा पहुंचे और उन्होंने निषाद से कहा, 'हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शांतनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूं कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालांतर में मेरी कोई संतान आपकी पुत्री के संतान का अधिकार छीन न पाए इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं आजन्म अविवाहित रहूंगा।'

उनकी इस प्रतिज्ञा को सुनकर निषाद ने हाथ जोड़कर कहा, 'हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।' इतना कहकर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मंत्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।

पांचवां रहस्य : - देवव्रत जब निषाद कन्या सत्यवती को लाकर अपने पिता शांतनु को सौंपते हैं तो शांतनु की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। शांतनु प्रसन्न होकर देवव्रत से कहते हैं, 'हे पुत्र! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी कठिन प्रतिज्ञा की है, जो न आज तक किसी ने की है और न भविष्य में कोई करेगा। तेरी इस पितृभक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुझे वरदान देता हूं कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू 'भीष्म' कहलाएगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।'

छटा रहस्य : - सत्यवती के गर्भ से महाराज शांतनु को चित्रांगद और विचित्रवीर्य नाम के 2 पुत्र हुए। शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बनाए गए, किंतु गंधर्वों के साथ युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई, तब विचित्रवीर्य बालक ही थे। फिर भी भीष्म विचित्रवीर्य को सिंहासन पर बैठाकर खुद राजकार्य देखने लगे। विचित्रवीर्य के युवा होने पर भीष्म ने बलपूर्वक काशीराज की 3 पुत्रियों का हरण कर लिया और वे उसका विवाह विचित्रवीर्य से करना चाहते थे, क्योंकि भीष्म चाहते थे कि किसी भी तरह अपने पिता शांतनु का कुल बढ़े।

लेकिन बाद में बड़ी राजकुमारी अम्बा को छोड़ दिया गया, क्योंकि वह शाल्वराज को चाहती थी। अन्य दोनों (अम्बालिका और अम्बिका) का विवाह विचित्रवीर्य के साथ कर दिया गया। लेकिन विचित्रवीर्य को दोनों से कोई संतानें नहीं हुईं और वह भी चल बसा। एक बार फिर गद्दी खाली हो गई। सत्यवती-शांतनु का वंश तो डूब गया और गंगा-शांतनु के वंश ने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले ली थी। अब हस्तिनापुर की राजगद्दी फिर से खाली हो गई थी।

सातवां रहस्य : - परशुराम से युद्ध : विचित्रवीर्य के युवा होने पर उनके विवाह के लिए भीष्म ने काशीराज की 3 कन्याओं का बलपूर्वक हरण किया था जिसमें से एक को शाल्वराज पर अनुरक्त होने के कारण छोड़ दिया था।

लेकिन शाल्वराज के पास जाने के बाद अम्बा को शाल्वराज ने स्वीकार करने से मना कर दिया। अम्बा के लिए यह दुखदायी स्थिति हो चली थी। अम्बा ने अपनी इस दुर्दशा का कारण भीष्म को समझकर उनकी शिकायत परशुरामजी से की।

परशुरामजी ने अन्याय के खिलाफ लड़ने की ठनी। परशुरामजी ने भीष्म से कहा कि 'तुमने अम्बा का बलपूर्वक अपहरण किया है, अत: अब तुम्हें इससे विवाह करना होगा अन्यथा मुझसे युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।'

भीष्म और परशुरामजी का 21 दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ। अंत में ऋषियों ने परशुराम को सारी व्यथा-कथा सुनाही और भीष्म की स्थिति से भी उनको अवगत कराया तब कहीं परशुरामजी ने ही युद्धविराम किया। इस तरह भीष्म द्वारा लिए गए ब्रह्मचर्य के प्रण पर वे अटल रहे।

आठवां रहस्य : - सत्यवती के शांतनु से उत्पन्न दोनों पुत्र (चित्रांगद और विचित्रवीर्य) की मृत्यु हो जाने के बाद सत्यवती भीष्म से बार-बार अनुरोध करती हैं कि पिता के वंश को चलाने के लिए अब तुम्हें विवाह कर पुत्र उत्पन्न करना चाहिए लेकिन भीष्म अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को तैयार नहीं होते हैं। ऐसे में सत्यवती विचित्रवीर्य की विधवा अम्बालिका और अम्बिका को 'नियोग प्रथा' द्वारा संतान उत्पन्न करने का सोचती है। भीष्म की अनुमति लेकर सत्यवती अपने पुत्र वेदव्यास द्वारा अम्बिका और अम्बालिका के गर्भ से यथाक्रम धृतराष्ट्र और पाण्डु नाम के पुत्रों को उत्पन्न करवाती है।

शांतनु से विवाह करने के पूर्व सत्यवती ने अपनी कुंवारी अवस्था में ऋषि पराशर के साथ सहवास कर लिया था जिससे उनको वेदव्यास नामक एक पुत्र का जन्म हुआ था। वे अपने इसी पुत्र से अम्बिका और अम्बालिका के साथ संयोग करने का कहती है। इस तरह यह कुल ऋषि कुल कहलाता है।

नौवां रहस्य : - भीष्म पितामह ने विवाह नहीं करके ब्रह्मचर्य का पालन किया था। उन्होंने अविवाहित रहकर भी इस व्रत का कठोरता से पालन किया था। इसके लिए वे योगारूढ़ होकर ब्रह्म का ध्यान किया करते थे। उनके समक्ष श्रीकृष्ण बच्चे ही थे लेकिन उन्होंने कृष्ण को भगवान रूप में पहचान लिया था। वे सदा कृष्णभक्ति में लीन रहते थे।

महाभारत युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने निहत्थे रहकर अर्जुन का रथ हांकने की प्रतिज्ञा की थी, लेकिन भीष्म ने उनसे शस्त्र ग्रहण करने का वचन ले लिया था। कृष्ण के लिए यह धर्म-संकट की स्थिति बन गई थी। अंत में भक्त की लाज रखने को जब श्रीकृष्ण रथ का पहिया लेकर दौड़ पड़े, तब भीष्म ने हथियार रख दिए और श्रीकृष्ण के हाथों मारे जाने में ही अपनी मुक्ति समझने लगे। कृष्ण ने ऐसा करके अपने हथियार न धारण करने की प्रतिज्ञा भी पूरी की और भीष्म के कहने पर हथियार धारण करने का वचन भी पूरा कर दिया।

दसवां रहस्य : - महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से सेनापति थे। कुरुक्षेत्र का युद्ध आरंभ होने पर प्रधान सेनापति की हैसियत से भीष्म ने 10 दिन तक घोर युद्ध किया था।

9वें दिन भयंकर युद्ध हुआ जिसके चलते भीष्म ने बहादुरी दिखाते हुए अर्जुन को घायल कर उनके रथ को जर्जर कर दिया। युद्ध में आखिरकार भीष्म के भीषण संहार को रोकने के लिए कृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ती है। उनके जर्जर रथ को देखकर श्रीकृष्ण रथ का पहिया लेकर भीष्म पर झपटते हैं, लेकिन वे शांत हो जाते हैं, परंतु इस दिन भीष्म पांडवों की सेना का अधिकांश भाग समाप्त कर देते हैं।

10वें दिन भीष्म द्वारा बड़े पैमाने पर पांडवों की सेना को मार देने से घबराए पांडव पक्ष में भय फैल जाता है, तब श्रीकृष्ण के कहने पर पांडव भीष्म के सामने हाथ जोड़कर उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछते हैं। भीष्म कुछ देर सोचने पर उपाय बता देते हैं।

 ग्यारहवां रहस्य : - दसवें ही ही दिन इच्छामृत्यु प्राप्त भीष्म द्वारा अपनी मृत्यु का रहस्य बता देने के बाद इसके बाद भीष्म पांचाल तथा मत्स्य सेना का भयंकर संहार कर देते हैं। फिर पांडव पक्ष युद्ध क्षे‍त्र में भीष्म के सामने शिखंडी को युद्ध करने के लिए लगा देते हैं। युद्ध क्षेत्र में शिखंडी को सामने डटा देखकर भीष्म अपने अस्त्र-शस्त्र त्याग देत हैं। इस मौके का फायदा उठाकर कृष्ण के इशार पर बड़े ही बेमन से अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म को छेद दिया। भीष्म बाणों की शरशय्या पर लेट जाते हैं।

दरअसल, भीष्म ने अपनी मृत्यु का रहस्य यह बताया था कि वे किसी नपुंसक व्यक्ति के समक्ष हथियार नहीं उठाएंगे। इसी दौरान उन्हें मारा जा सकता है। इस नीति के तरह युद्ध में भीष्म के सामने शिखंडी को उतारा जाता है।

भीष्म को अर्जुन तीरों से छेद देते हैं। वे कराहते हुए नीचे गिर पड़ते हैं। जब भीष्म की गर्दन लटक जाती है तब वे अपने बंधु-बांधवों और वीर सैनिकों से क्या कहते हैं? जानिए अगले पन्ने पर...

बारहवां रहस्य : - भीष्म के शरशय्या पर लेटने की खबर फैलने पर कौरवों की सेना में हाहाकार मच जाता है। दोनों दलों के सैनिक और सेनापति युद्ध करना छोड़कर भीष्म के पास एकत्र हो जाते हैं। दोनों दलों के राजाओं से भीष्म कहते हैं, राजन्यगण। मेरा सिर नीचे लटक रहा है। मुझे उपयुक्त तकिया चाहिए। उनके एक आदेश पर तमाम राजा और योद्धा मूल्यवान और तरह-तरह के तकिए ले आते हैं।

किंतु भीष्म उनमें से एक को भी न लेकर मुस्कुराकर कहते हैं कि ये तकिए इस वीर शय्या के काम में आने योग्य नहीं हैं राजन। फिर वे अर्जुन की ओर देखकर कहते हैं, 'बेटा, तुम तो क्षत्रिय धर्म के विद्वान हो। क्या तुम मुझे उपयुक्त तकिया दे सकते हो?' आज्ञा पाते ही अर्जुन ने आंखों में आंसू लिए उनको अभिवादन कर भीष्म को बड़ी तेजी से ऐसे 3 बाण मारे, जो उनके ललाट को छेदते हुए पृथ्वी में जा लगे। बस, इस तरह सिर को सिरहाना मिल जाता है। इन बाणों का आधार मिल जाने से सिर के लटकते रहने की पीड़ा जाती रही। इतना सब कुछ होने के बावजूद भीष्म क्यों नहीं त्यागते हैं प्राण?

 तेरहवां रहस्य,सूर्य का उत्तरायण होना :  - लेकिन शरशय्या पर लेटने के बाद भी भीष्म प्राण क्यों नहीं त्यागते हैं, जबकि उनका पूरा शरीर तीर से छलनी हो जाता है फिर भी वे इच्छामृत्यु के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं।

भीष्म यह भलीभांति जानते थे कि सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण त्यागने पर आत्मा को सद्गति मिलती है और वे पुन: अपने लोक जाकर मुक्त हो जाएंगे इसीलिए वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते हैं।

भीष्म ने बताया कि वे सूर्य के उत्तरायण होने पर ही शरीर छोड़ेंगे, क्योंकि उन्हें अपने पिता शांतनु से इच्छामृत्यु का वर प्राप्त है और वे तब तक शरीर नहीं छोड़ सकते जब तक कि वे चाहें, लेकिन 10वें दिन का सूर्य डूब चुका था।

चौदहवां रहस्य : - भीष्म को ठीक करने के लिए शल्य चिकित्सक लाए जाते हैं, लेकिन वे उनको लौटा देते हैं और कहते हैं कि अब तो मेरा अंतिम समय आ गया है। यह सब व्यर्थ है। शरशय्या ही मेरी चिता है। अब मैं तो बस सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहा हूं।

पितामह की ये बातें सुनकर राजागण और उनके सभी बंधु-बांधव उनको प्रणाम और प्रदक्षिणा कर-करके अपनी-अपनी छावनियों में लौट जाते हैं। अगले दिन सुबह होने पर फिर से वे सभी भीष्म के पास लौटते हैं। सभी कन्याएं, स्त्रियां और उनके कुल के योद्धा पितामह के पास चुपचाप खड़े हो जाते हैं।

पितामह ने पीने के लिए राजाओं से ठंडा पानी मांगा। सभी उनके लिए पानी ले आए, लेकिन उन्होंने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन समझ गया और उसने अपने गांडीव पर तीर चढ़ाया और पर्जन्यास्त्र का प्रयोग कर वे धरती में छोड़ देते हैं। धरती से अमृततुल्य, सुगंधित, बढ़िया जल की धारा निकलने लगती है। उस पानी को पीकर भीष्म तृप्त हो जाते हैं।

फिर भीष्म दुर्योधन को समझाते हैं कि युद्ध छोड़कर वंश की रक्षा करो। उन्होंने अर्जुन की बहुत प्रशंसा की और दुर्योधन को बार-बार समझाया कि हमारी यह गति देखकर संभल जाओ, लेकिन दुर्योधन उनकी एक भी नहीं मानता है और फिर से युद्ध शुरू हो जाता है।

अगले दिन फिर से सभी उनके पास इकट्ठे होते हैं। वे नए सेनापति कर्ण को समझाते हैं। वे दोनों पक्षों में अपने अंतिम वक्त में भी संधि कराने की चेष्टा करते हैं। भीष्म के शरशय्या पर लेट जाने के बाद युद्ध और 8 दिन चला।

पंद्रहवां रहस्य : - भीष्म यद्यपि शरशय्या पर पड़े हुए थे फिर भी उन्होंने श्रीकृष्ण के कहने से युद्ध के बाद युधिष्ठिर का शोक दूर करने के लिए राजधर्म, मोक्षधर्म और आपद्धर्म आदि का मूल्यवान उपदेश बड़े विस्तार के साथ दिया। इस उपदेश को सुनने से युधिष्ठिर के मन से ग्लानि और पश्‍चाताप दूर हो जाता है।

बाद में सूर्य के उत्तरायण होने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुंचते हैं। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे 58 दिन हो गए हैं। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूं। इसके पश्चात उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा मांगकर शरीर त्याग दिया।

सभी लोग भीष्म को याद कर रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा दाह-संस्कार किया।

सोलहवां रहस्य : - भीष्म सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे मनुष्य रूप में देवता वसु थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य का कड़ा पालन करके योग विद्या द्वारा अपने शरीर को पुष्य कर लिया था। दूसरा उनको इच्छामृत्यु का वरदान भी प्राप्त था।

इस युद्ध के समय अर्जुन 55 वर्ष, कृष्ण 83 वर्ष और भीष्म 150 वर्ष के थे। उस काल में 200 वर्ष की उम्र होना सामान्य बात थी। बौद्धों के काल तक भी भारतीयों की सामान्य उम्र 150 वर्ष हुआ करती थी। इसमें शुद्ध वायु, वातावरण और योग-ध्यान का बड़ा योगदान था। भीष्म जब युवा थे तब कृष्ण और अर्जुन हुए भी नहीं थे।

माना जाता है कि भीष्म ही युद्ध में सबसे अधिक उम्र के थे। उन्हें राजनीति का ज्यादा अनुभव होने के कारण वेदव्यास ने संपूर्ण महाभारत में भीष्म को राजनीति का केंद्र बनाकर राजनीति के बारे में उन्होंने जो भी कहा, उसका प्राथमिकता से उल्लेख किया।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

उपनयन_संस्कार

#उपनयन_संस्कार
इस संस्कार में आचार्य शिष्य से कहता है कि -'तू ईश्वर का ब्रह्मचारी है। वस्तुतः ईश्वर ही तेरा आचार्य है। मैं तो उसकी ओर से तेरा आचार्य हूँ।' इस का यह अर्थ है कि आचार्य कहता है कि ईश्वर कृपा से जो ज्ञान मैंने प्राप्त किया है, वही मैं तुझे दूंगा। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है - बालक की शिक्षा पर उसके भावी जीवन का अच्छा या बुरा होना निर्भर था। उसके भावी जीवन पर ही समाज की उन्नति या अवनति निर्भर थी।

गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष की क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की अवस्था में किया जाता था। तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकता था। अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं जाता था।

अधिकतम निर्धारण आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं होता था, उन्हें व्रात्य कहा जाता था और शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। मनु ने ब्राह्मण बालक के लिए चौबीस वर्ष लिखी है। तीनों वर्णो के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मण बालक के घर में सदा ही पढ़ने- पढ़ाने का वातावरण रहता था। क्षत्रिय के परिवार में इससे कुछ कम और वैश्य के परिवार में उससे भी कम। ब्राह्मण को वैसे भी क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा अध्ययन में कम समय लगाना पड़ता था।

गृह्यसूत्रों और स्मृतियों में उपनयन संस्कार का पूरा विवरण मिलता है। इस समय बालक एक मेखला धारण करता था, जो तीनों वर्णो के लिए अलग- अलग निर्धारित की गई थीं। ब्राह्मण बालक मूंज की, क्षत्रिय धनुष की डोरी की और वैश्य ऊन के धागे की कोंधनी धारण करता था। उनके डंडे भी अलग- अलग लकड़ियों के होते थे। ब्राह्मण ढाक या बेल का, क्षत्रिय बरगद का और वैश्य उदुंबर का डंडा धारण करता था। वह यज्ञोपवीत भी धारण करता था। आचार्य इसके बाद बालक से पूछता था कि क्या वह वास्तव में अध्ययन करने का इच्छुक है और ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा करता है। बालक के इन दोनों बातों का पूर्ण आश्वासन देने पर ही आचार्य उसे अपना शिष्य बनाता था और कहता था कि तू आज से मेरे कहने के ही अनुसार कार्य करेगा। इसके बाद आचार्य गायत्री मंत्र का अर्थ शिष्य को समझाता था।

इस संस्कार के बाद बालक "द्विज' कहलाता था, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली- भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें।

इसके बाद बालक भिक्षा माँगता था, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में प्राप्त भोजन वह गुरु को देता था और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन शेष बचता था, उसे वह स्वयं खाता था।

उपनयन संस्कार की पृष्ठभूमि 
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"उपनयन' वैदिक परंपरा की अनुयायी आर्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार था। यह एक प्रकार का शुद्धिकरण ( संस्करण ) था, जिसे करने से वैदिक वर्णव्यवस्था में व्यक्ति द्विजत्व को प्राप्त होता था ( जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते ),अर्थात् वह वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता है "नैकट्य प्रदान करना', क्योंकि इसके द्वारा वेदाध्ययन का इच्छुक व्यक्ति वेद- शास्रों में पारंगत गुरु/ आचार्य की शरण में जाकर एक विशेष अनुष्ठान के माध्यम से वेदाध्ययन की दीक्षा प्राप्त करता था, अर्थात् वेदाध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी को गुरु अपने संरक्षण में लेकर एक विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा उसके शारीरिक एवं जन्म- जन्मांतर दोषों/ कुसंस्कारों का परिमार्जन कर उसमें वेदाध्ययन के लिए आवश्यक गुणों का आधार करता था, उसे एतदर्थ आवश्यक नियमों ( व्रतों ) की शिक्षा प्रदान करता था, इसलिए इस संस्कार को "व्रतबन्ध' भी कहा जाता था।

फलतः अपने विद्यार्जन काल में उसे एक नियमबद्ध रुप में त्याग, तपस्या और कठिन अध्यवसाय का जीवन बिताना पड़ता था तथा श्रुतिपरंपरा से वैदिक विद्या में निष्णात होने पर समावर्तन संस्कार के उपरांत अपने भावी जीवन के लिए दिशा- निर्देश ( दीक्षा ) लेकर ही अपने घर आता था। उत्तरवर्ती कालों में यद्यपि वैदिक शिक्षा- पद्धति की परंपरा के विच्छिन्न हो जाने से यह एक परंपरा का अनुपालन मात्र रह गया है, किंतु पुरातन काल में इसका एक विशेष महत्व था।

उपनयन की अनिवार्यता
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इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि आप० गृ० सू० (1/1/1/19 ) के अनुसार संस्कार केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, जो कि गुरुजनों के आश्रम में जाकर उनके सान्निध्य में रहकर ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए गुरुमुख से वैदिक विद्याओं को प्राप्त करना चाहते थे। इसमें प्रत्येक वैदिक शाखा के अध्ययन के लिए उपनयन का पृथक्- पृथक् विधान हुआ करता था। अतः उपनयन उन लोगों के लिए अनिवार्य नहीं था, जो कि गुरुओं के आश्रमों में जाकर उनके नैकट्य में रहते हुए वेदाध्ययन के इच्छुक नहीं होते थे। उपनयन के इस पक्ष का संकेत उस आख्यान से मिलता है, जिसमें कि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को यह परामर्श देते हैं कि उसे ब्रह्मचर्य ( विद्यार्थी ) का व्रत धारण करना चाहिए, क्योंकि उसके परिवार के सदस्यों ने जन्म के आधार पर ब्राह्मणत्व ( द्विजत्व ) का दावा नहीं किया है ( छांदोग्य० उप० 6.1.9 )। अतः वैदिक परंपरा में दीक्षित होने, स्वशाखीय वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरु/ आचार्य के सान्निध्य में रहना तथा वहाँ रहते हुए अध्ययन के साथ- साथ विभिन्न व्रतों का सम्यक् रुप से पालन करना, नित्य प्रातः सायं संध्या- हवन करना, भिक्षाचरण के द्वारा अपना तथा गुरु का पोषण करना एवं वैदिक विद्याओं में पारंगत होने पर गुरु से अंतिम दीक्षा लेकर वापस आना ही, उपनयन संस्कार का प्रमुख लक्ष्य था।

ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त "अंतेवासी' एवं "ब्रह्मचारी' के विवरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में "उपनयन' अर्थात् विद्याध्ययनार्थ गुरु के पास जाने का आनुष्ठानिक कृत्य पर्याप्त सरल था। विद्याध्ययन का इच्छुक ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थी ) हाथ में समिधा, काष्ठ लेकर गुरु के आश्रम में जाता था और उनका शिष्य ( ब्रह्मचारी ) बनकर शिक्षा प्राप्त करने की आकांक्षा व्यक्त करता था। गुरु उसके संबंध में गोत्रादि की जानकारी लेकर उसे शिष्यत्व के लिए स्वीकार कर लेता था। शतपथ ब्राह्मण ( 11/4/5 ) में इसका जो रुप प्राप्त होता है, वह कुछ इस प्रकार है - बालक आचार्य के पास जाकर कहता है "मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया हूँ' मुझे ब्रहृमचारी हो जाने दीजिए।' इस पर गुरु पूछते हैं - "तुम्हारा नाम क्या है ?' (नाम जानने के उपरांत ) गुरु उसे अपने पास ले लेते हैं (उपनयति) और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहते हैं - "तुम इंद्र के ब्रह्मचारी हो, अग्नि तुम्हारे गुरु हैं, मैं तुम्हारा गुरु हूँ।' ( गुरु उसका नाम लेकर संबोधित करता है )। गुरु शिक्षा देता है "जल पिओ, काम करो ( अभिप्रेत है गुरु का ) , अग्नि में समिधाएँ डालो,( दिन में ) मत सोओ।' तब वह उसे "सावित्री' का मंत्र देता था। 

उपनिषद् काल में भी उपनयन संस्कार इतना ही सरल था, इसके उदाहरण पुरातनतम उपनिषदों - छांदोग्य एवं वृहदारण्यक में पाये जाते हैं। छांदोग्य के एक संदर्भ ( 5/11/7 ) में आता है कि जब औपमन्यव तथा अन्य चार विद्यार्थी अपने हाथों में समिधाएँ लेकर अश्वपति केकय के पास पहुँचे, तो वे उनसे बिना उपनयन की क्रियाएँ किये ही बात करने लगे। जब सत्यकाम जाबाल ने अपने गोत्र का वास्तविक परिचय दिया, तो गौतम हारिद्रुत ने कहा - हे प्रिय बालक जाओ समिधाएँ ले आओ, मैं तुम्हें दीक्षित कर्रूँगा। तुम सत्य पर स्थिर रहे। (छान्दोग्य 4/4/5 )। उद्दालक आरुणि ने जो स्वयं ब्रह्मचारी एवं उद्भट विद्वान थे, अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मचारी के रुप में विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा था, ( छान्दोग्य० 6/1/1/1- 2)। 

आयु निर्धारण 
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उपनयन संबंधी आयु निर्धारण के संबंध में यद्यपि वैदिक संहिताओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता, किंतु गृह्यसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। तदनुसार वर्णभेद से ब्राह्मण बटुक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का ग्यारवें वर्ष में तथा वैश्य का बारहवें वर्ष में किया जाना चाहिए। पर साथ ही पार० गृ० सू० "यथा मंगलं वा सर्वेषाम्' की व्यवस्था भी देता है। उधर अभिप्राय विशेष के आधार पर मनु इसे क्रमशः पांच, छः तथा आठ वर्ष में किये जाने की व्यवस्था भी देते हैं। आश्व० के अनुसार यह क्रमशः 16, 22, 24 वर्ष तक भी हो सकता है जैसा कि ऊपर कहा गया है। वैदिक साहित्य में उपनयन का सर्वप्रथम उल्लेख श० ब्रा० (11.5.4 ) में पाया जाता है। प्रारम्भ में इसका स्वरुप अति संक्षिप्त एवं सरल था। शिक्षार्थी हाथ में कुश एवं समिधाएं लेकर आचार्य के पास जाता था तथा प्रणाम पूर्वक अपने कुल तथा गोत्र का परिचय देकर उनसे अपना शिष्य स्वीकार करने के लिए विनम्र अनुरोध करता था। उसके परिचय तथा उपयुक्त पात्रता से सन्तुष्ट होकर आचार्य उसे अपना शिष्य स्वीकार कर, अपने सान्निध्य में रखने तथा वैदिक ज्ञान में दीक्षित करने का आश्वासन देकर उसे अपने पास रख लेता था, तथा वैदिक विद्याओं में पारंगत होने पर उसका समावर्तन संस्कार करके गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने के लिए यथावश्यक दीक्षा देकर उसे अपने घर वापस भेज देता था।

उपनयन का बदलता स्वरुप
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किन्तु अथर्व० एवं ब्राह्मणकाल तक आते-आते इसमें कतिपय अन्य अनुष्ठानों का समावेश हो गया, जो कि गृह्यसूत्र काल में आकर और अधिक जटिल हो गया तथा इसमें अनेक कर्मकाण्डीय अनुष्ठानों का समावेश हो गया, जो कि उत्तरवर्ती कालों में बढ़ता गया एवं स्मृतिका में आकर तो वर्णव्यवस्था के अधीन इसे सभी वर्णो तथा व्यक्तियों के लिए एक अनिवार्य द्विजातीय संस्कार का रुप दे दिया गया। फलतः यह एक विशिष्ट शिक्षासंस्कार के स्थान पर द्विजत्व प्राप्ति का एक सर्वसामान्य संस्कार बन कर रह गया तथा इसके सम्पादन में मूल संस्कार का नाट्याभिनय प्रारम्भ हो गया। इतना ही नहीं विवाह संस्कार से पूर्व इसकी अनिवार्यता घोषित कर दिये जाने से उन सभी लोगों का उपनयन संस्कार किया जाने लगा, जिनका शिक्षा के साथ दूर का भी सम्बन्ध नहीं हो सकता था, अर्थात् अन्ध, बहिर, कुब्ज, वामन, षंढ (नपुंसक) आदि सभी का उपनयन किया जाने लगा, तथा इसके साथ यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने का विधान भी कर दिया गया, या यों कहें कि यज्ञोपवीत धारण करना ही इसका मुख्य अनुष्ठान हो जाने से यज्ञोपवीत संस्कार तथा उपनयन संस्कार दोनों परस्पर पर्यायवाची हो गये।

उल्लेख्य है कि गृह्यसूत्रों में उपनयन संस्कार के साथ अथवा अन्य किसी स्वतंत्र संस्कार के रुप में यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उपवीत सूत्र धारण करने का कहीं कोई उल्लेख या विवरण प्राप्त नहीं होता है। वस्तुतः इसके नाम, यज्ञोपवीत, से ही व्यक्त है कि इसका सम्बन्ध यज्ञ में यजमान के द्वारा धारण किये जाने वाले उत्तरीय से था, जो कि गोभिल के अनुसार सूत्र, वस्र या कुशरज्जु कुछ भी हो सकता था। कुश के यज्ञोपवीत (यज्ञोत्तरीय) के सम्बंध में देवल का कहना है कि इसे वस्र के अभाव में धारण किया जा सकता है। आप० घ० सू० (2/2/4/22-23 ) का भी कहना है कि यज्ञ कार्य उत्तरीय के साथ किया जाना चाहिए। उसके अभाव में केवल सूत्र से भी काम चलाया जा सकता है।

किन्तु आधुनिक युग तक आते-आते उपनयन संस्कार का रुप इतना बदल गया कि जनेऊ धारण करना ही उपनयन हो गया। इससे सम्बद्ध वैदिक अनुष्ठान बिल्कुल पीछे छूट गये और यह एक परम्परा का अनुपालन मात्र बन कर रह गया। यहां तक कि आधुनिक काल में लोग बिना किसी अनुष्ठान के हरिद्वार आदि तीर्थ स्थलों में जाकर गंगा स्नान करके एक बाजारु यज्ञोपवीत (जनेऊ) खरीदकर गले में डाल लेते हैं और इससे ही समझ लिया जाता है कि उसका उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो गया तथा इस संस्कार की अनिवार्यता में आस्था रखने वाले कुछ लोग विवाह के दिन पूर्वांग पूजा के साथ इसकी कतिपय आनुष्ठानिक औपचारिकताओं को संक्षिप्त रुप से पूरा करके यज्ञोपवीत को धारण कर इससे निवृत्त हो जाते हैं। जहां इसे एक पृथक् संस्कार के रुप में सम्पन्न किया जाता है वहां भी उपनयन एक नाटकीय प्रदर्शन ही होता है।

विहाह से पूर्व यज्ञोपवीत
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आनुष्ठानिक विस्तार
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इसके ऐतिहासिक विकास क्रम की उपर्युक्त पृष्ठभूमि में अब इसके आनुष्ठानिक विकास के स्वरुप पर भी किंचित विचार कर लेना अनुचित न होगा। इसका सर्वप्रथम विवरण हमें पार० गृ० सू० में देखने का मिलता है। तदनुसार बटुक का पिता उसे लेकर आचार्य के पास जाता था तथा बटुक आचार्य के पास जाकर विनीत भाव से कहता था, "मैं आपका ब्रह्मचारी हूं' अर्थात् मैं आपका शिष्य बनना चाहता हँ। गुरु वैदिक मंत्र के साथ उसे नवीन वस्र धारण कराता था। तदनन्तर उसकी कटि में मेखला बन्धन करता था। फिर यज्ञोपवीत, अजिन व दण्ड प्रदान करता था और बटुक उसे स्वीकार कर धारण करता था। इसे अनन्तर अपनी अंजलि में जल लेकर उसकी अंजलि में डालता था। फिर सूर्य का दर्शन करा कर उसके दाहिने कन्धे के ऊपर से हाथ ले जाकर उसके हृदय देश का स्पर्श (हृदयालभन) करता था। इसके बाद उसका दाहिना हाथ पकड़ कर पूछता था "तुम्हारा क्या नाम है ? वह अपना नाम लेकर कहता था, मैं अमुक ( नामोच्चार करके ) नाम वाला हूँ'। यह आचार्य पुनः प्रश्न करता था "तुम किसके ब्रह्मचारी ( शिष्य ) हो ? 'इस पर वह उत्तर देता था,"आपका ब्रह्मचारी हूँ।' इस पर वह कहता था ।

"हे वत्स ! तुम इन्द्र परमैश्वर्य संपन्न के ब्रह्मचारी हो,तुम्हारा प्रथम आचार्य अग्नि है, दूसरा आचार्य मैं हूँ।' मैं तुम्हें प्रजापति, सकवता, औषधि, द्यावापृथिवी, विश्वेदेवा एवं सम्पूर्ण भूतों के लिए रक्षार्थ समर्पित करता हूँ।'' इसके साथ ही उपनयन संस्कार का अनुष्ठान पूरा हो जाता था

अपेक्षा है कि ब्राह्मण बन्धु इसे पढ़े और साझा करें।

प्रश्न नहीं स्वाध्याय करे।।