मंगलवार, 29 जून 2021

*जन्मपत्री देखकर बच्चों की संख्या व लिंग का निर्णय जन्मपत्री देखकर बच्चों की संख्या व लिंग का निर्णय*

*जन्मपत्री देखकर बच्चों की संख्या व लिंग का निर्णय जन्मपत्री देखकर बच्चों की संख्या व लिंग का निर्णय*

प्रश्न: किसी भी पुरुष या स्त्री की जन्मपत्री देखकर बच्चों की संख्या व लिंग का निर्णय कैसे किया जा सकता है गोद लिए बच्चों का क्या प्रावधान है? लग्न, चंद्रमा और गुरु से पंचम भाव पुत्रप्रद होता है। इनसे नवम भाव भी पुत्रप्रद होता है। इन स्थानों के स्वामियों की दशांतर्दशा में जातक को पुत्र लाभ होता है। पंचमेश छठे, आठवें या 12वें भाव में हो तो संतान का अभाव होता है। यदि पंचमेश केंद्र और त्रिकोण में हो तो संतान सुख होता है।

- पांचवें भाव में छः ग्रह हों और पंचमेश 12वें भाव में, लग्नेश, चंद्र बलवान हो तो दत्तक पुत्र से सुख होता है।

1. संतान सुख: - यदि पंचमेश अपनी उच्च राशि में होकर लग्न से दूसरे, पांचवें या नौवें भाव में हो और गुरु से युत या दृष्ट हो तो पुत्र सुख को भोगने वाला होता है।

- संतान (पांचवें) भाव में शुक्र, गुरु, बुध हों और बलवान ग्रह से दृष्ट हो और पंचमेश बली हो तो अनेक संतान होती हैं। लग्न या चंद्रमा से पंचम भाव में शुभ ग्रह या अपने स्वामी से युत या दृष्ट हो तो जातक पुत्र सुख प्राप्त करता है। लग्न से पंचम भाव में चंद्रमा या शु़क्र का वर्ग हो और वह चंद्रमा या शुक्र से युत या दृष्ट हो तथा उसमें पाप ग्रह न हों।

- पंचम से सप्तम (लग्न से एकादश) भाव में शुभ ग्रह की राशि का नवांश हो और एकादशेश शुभ ग्रह से युत या दृष्ट होकर केंद्र या त्रिकोण भावों में स्थित हो तो जातक को पौत्र लाभ होता है।

- शुभ ग्रह की राशिगत पंचमेश यदि केंद्र या त्रिकोण भावों में स्थित हो और शुभ ग्रह से युत हो तो अल्पायु में संतान प्राप्ति होती है।

- पंचम भाव और पंचमेश शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो जातक संतान प्राप्त करता है। सप्तमांश कुंडली से संतान सुख के बारे में जानकारी मिलती है। लग्न और चंद्र कुंडली के पंचमेश कारक गुरु, गुरु से पंचम भाव में स्थित ग्रह यदि सप्तमांश कुंडली से उच्च, स्वगृही, मित्रगृही हों संतान सुख होता है, यदि संबंधित ग्रह सप्तमांश कुंडली में कमजोर हो तो संतानहीन योग बनता है या संतान होने पर भी संतान सुख प्राप्त नहीं होता है।

- गुरु वर्गोत्तम नवांश में हो, लग्नेश के नवांश में शुभ ग्रह हो और वह पंचमेश से युत या दृष्ट हो तो पुत्र योग बनता है।

- पांचवें भाव में राहु शनि के नवांश में न हो, यदि शुभ ग्रह देखता हो तो अनेक पुत्र होते हैं।

- नवांश लग्न से पांचवें भाव का स्वामी यदि शुभ ग्रह से युत या दृष्ट हो तो जातक सत्पुत्रवान होता है। इसके विपरीत होने पर विपरीत फल जानना चाहिए।

2. संतान संख्या: आज के वैज्ञानिक युग में एक या दो बच्चों की अवधारणा है। ऐसे में अतः संतान संख्या का निर्णय विवेकानुसार करना ही उचित होगा।

- पंचम या भाग्य स्थान में गुरु हो, पंचमेश बली हो और धनेश दसवें स्थान में हो तो आठ पुत्र होते हैं। पांचवें भाव भाव से पंचम भाव में शनि हो और पांचवें भाव में पंचमेश हो तो सात पुत्र होते हैं जिनमें दो जुड़वां होते हैं। धनेश पांचवें भाव में और पंचमेश पंचम में हो तो छः पुत्र होते हैं जिनमें तीन मर जाते हैं।

- लग्न से पांचवें भाव में गुरु, गुरु से पांचवें भाव में शनि, शनि से पांचवें में राहु हो तो एक पुत्र होता है।

- यदि पंचमेश स्वराशिगत हो तो जातक अल्प पुत्रवान होता है।

- पंचम भाव के स्वामी का नवांशपति यदि स्वराशि के नवांश में स्थित हो तो जातक को मात्र एक पुत्र की प्राप्ति होती है।

- पंचम भाव में राहु, सूर्य और बुध हों, पुत्रकारक गुरु शुभ ग्रह युत हो और शुभ ग्रह से देखा जाता हो तो अनेक पुत्रों का योग बनता है।

- पंचमेश शुभ ग्रह की राशि में, शुभ ग्रह की दृष्टि हो कारक गुरु केंद्र में हो तो बहु पुत्र योग होता है।

- लग्नेश पांचवें भाव में पंचमेश लग्न में और गुरु केंद्र या त्रिकोण में हो तो अनेक पुत्र होते हैं।

- पंचमेश उच्च राशि में और लग्नेश या कारक शुभ ग्रह से युक्त हो तो बहु पुत्र योग बनता है।

- पंचम स्थान में पंचमेश और गुरु हों और दोनों शुभ ग्रह से दृष्ट या युक्त हों तो बहु संतान योग बनता है।

- गुरु पूर्ण बली हो, लग्नेश पांचवें भाव में, पंचमेश पूर्ण बली हो तो बहु संतान योग बनता है।

- लग्नेश और पंचमेश केंद्र में शुभ ग्रहों से युत हों, धनेश बलवान हो तो संतान योग होता है।

- लग्नेश सातवें भाव में, सप्तमेश लग्न में और धनेश बली हो तो अनेक पुत्र होते हैं।

- जन्म लग्न चक्र के संतान भाव अर्थात पंचम भाव में जितने ग्रह स्थित हों तथा इस भाव को जितने ग्रह देख रहे हों उतनी ही संख्या बच्चों की आंकनी चाहिए।

- पंचम भाव में चंद्रमा दो कन्याएं दे सकता है ऐसा कई आचार्यों का मत है।

- जन्मकाल में जिस जातक के शुभ ग्रहों से दृष्ट सूर्य प्रचम भाव में बैठा हो, उसे तीन पुत्र होने की संभावना रहती है।

- यदि जन्मकाल में पत्रिका के पंचम भाव में शनि की सम राशि में मकर का शनि 400 कलाओं के अंतर्गत विराजमान हो तो उस जातक के तीन पुत्र होते हैं, ऐसा कहा गया है।

- जन्मकाल में किसी भी जातक की जन्मपत्री के पांचवें स्थान अथवा उसके स्वामी से राशि या शुक्र ग्रह जिस राशि में विराजमान हों उस राशि तक जितनी राशियां पड़ती हों उतनी संतान संख्या माननी चाहिए।

- पंचमेश के उच्च बल का साधन करते हुए पंचम भाव के अधिपति ग्रह की रश्मियां निकाल ली जाती हैं। इस पद्धति में पंचम भाव के स्वामी की जितनी रश्मियां निर्धारित की गई हैं उतनी ही संख्या बच्चों की मान ली जाती है।

- मकर राशि के उच्च के मंगल, कन्या राशि के उच्च के बुध और तुला राशि के उच्च के शनि की 5-5 रश्मियां होती हैं।

- कर्क के उच्च के बृहस्पति की 7 रश्मियां होती हैं।

- वृष राशि के उच्च के चंद्रमा की 9 रश्मियां होती हैं।

- मेष राशि के उच्च के सूर्य की 10 रश्मियां होती हैं। उदाहरणार्थ जन्म काल में यदि किसी जातक का जन्म तुला लग्न में शनि के स्थित होने पर हुआ हो तो उसकी संतान संख्या पांच मानी जाएगी क्योंकि पंचमेश के उच्च के शनि की रश्मियां पांच हैं।

3. पुत्र योग - पंचमेश और गुरु यदि वैशिकांश में स्थित हों और नवम भाव के स्वामी से दृष्ट हों तो पुत्र का जन्म होता है।

- सप्तम भाव और समराशिगत पंचमेश या नवमेश यदि पुरुष राशि के वर्ग में हो, पुरुष ग्रहों से दृष्ट हो तो पुत्र का जन्म होता है।

- जन्म लग्न, सूर्य, गुरु और चंद्रमा विषम राशि और विषम राशि के नवमांश में हों तो पुत्रों का जन्म होता है। पंचमेश पुरुष ग्रह हो, विषम राशि या विषम नवमांश में हो तो पुत्रों का जन्म होता है।

- पंचम या सप्तम में बलवान पुरुष ग्रह हों, पंचम भाव पर बली मित्र ग्रहों की दृष्टि हो, यदि पति की कुंडली में स्त्री ग्रहों की अपेक्षा पुरुष ग्रह बलवान हों और पत्नी की कुंडली में भी स्त्री ग्रहों की अपेक्षा पुरुष ग्रह बलवान हों तो उस दंपति को पुत्र ही पुत्र होंगे, कन्या नहीं होगी।

- पंचम भाव के स्वामी का नवांशपति यदि स्वराशि के नवांश में स्थित हो तो मात्र एक पुत्र होता है।

- गर्भाधान के समय गोचर के अनुसार पुरुष ग्रह बली हो तो पुत्र जन्म का योग बनता है, भले ही जन्मकुंडली में कन्या संतति का योग उपस्थित हो। गोचर के आधार पर पुत्र प्राप्ति के योग इस प्रकार हैं।

- सिंह लग्न का स्वामी सूर्य स्वगृही हो तो एक पुत्र संतान देता है।

- पंचमेश उच्च का हो, बली गुरु की पंचम भाव पर दृष्टि हो और पुरुष ग्रह बली हो तो संतान (पुत्र) का योग बनता है।

- पंचमेश विषम (पुरुष) राशि में हो, पंचम भाव में पुरुष ग्रह हो और पंचम भाव पर गुरु की दृष्टि हो तो पुत्र योग बनता है।

4. कन्या संतान योग

- पंचम या नवम का स्वामी लग्न से सप्तम भाव में स्थित हो या समराशिगत हो और वह चंद्रमा या शुक्र से युत या दृष्ट हो तो कन्या का जन्म होता है।

- जन्म लग्न, सूर्य, गुरु और चंद्रमा सम राशि और सम (स्त्री राशि) के नवांश में हों तो कन्याओं का जन्म होता है अर्थात पुत्र नहीं होता है। यदि बली मंगल, चंद्रमा और शुक्र समराशिगत हो तो कन्या का जन्म होता है।

- पंचमेश स्त्री ग्रह हो और पंचम भाव में स्त्री ग्रह स्थित हो तो कन्याओं का जन्म होता है। पंचम या सप्तम में स्त्री ग्रह हो साथ में लग्न पर स्त्री ग्रहों की दृष्टि हो।

- स्त्री की जन्मपत्री में स्त्री ग्रह पुरुष ग्रहों की तुलना में बली हों और पति की कुंडली में भी स्त्री ग्रह बली हों तो उस दम्पति को कन्याएं होती हैं।

- पंचम भाव में समराशि हो पंचमेश भी सम राशि में स्थित हो और पंचम भाव पर स्त्री ग्रहों की दृष्टि हो।

- पंचम भाव पर स्त्री ग्रहों की दृष्टि हो तो कन्या का जन्म होता है।

- पंचम भाव में शनि की राशि, शनि की लग्न और गुरु (संतान कारक) पर दृष्टि हो तो दत्तक योग बनता है।

- पंचम भाव में समराशि, पंचमेश सम राशि में, स्त्री ग्रह बली हों तो कन्या संतान का जन्म होता है।

- पंचमेश सम राशि में हो और जन्मकुंडली में स्त्री ग्रह प्रधान हो तो पुत्रियों का जन्म होता है।

5. जुड़वां बच्चों का योग - द्विस्वभाव राशि के नवांश से युक्त लग्न और ग्रह हों और उन्हें मिथुन नवांशयुक्त बुध देखता हो तो एक कन्याओं और और दो पुत्रों का जन्म होता है।

- द्विस्वभाव राशि के नवांश से युक्त लग्न और ग्रह हों और उनको कन्या नवांश युक्त बुध देखता हो तो दो कन्या एक पुत्र का जन्म होता है

 - जन्म लग्न, सूर्य, गुरु और चंद्रमा द्विस्वभाव राशि और द्विस्वभाव राशि के नवमांश में हों और बुध से दृष्ट हों तो यमल (जुड़वां) का जन्म होता है।

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- यदि द्विस्वभाव की विषम राशि का जन्म हो तो दो पुत्रों का जन्म होता है।

- यदि द्विस्वभाव राशियां सम राशियां हों तो दो कन्याओं का जन्म होता है।

- यदि द्विस्वभाव राशियां और नवांश राशियां सम और विषम (मिश्र) हों तो एक कन्या और एक बालक का जन्म होता है। लग्न और चंद्रमा यदि सम राशि में हों और पुरुष ग्रह (सूर्य, मंगल, गुरु) उन्हें देखते हों तो जुड़वां का जन्म होता है।

6. दत्तक योग: यदि पति या पत्नी या दोनों में संतान उत्पन्न करने की क्षमता नहीं हो या संतान आगे वंश वृद्धि में असमर्थ हो तब पति-पत्नी किसी दूसरे के बच्चे को गोद लेते हैं।

- जन्मकाल में लग्न से पंचम अथवा सप्तम स्थान में मंगल तथा शनि ग्रह विराजमान हों और उन पर किसी भी ग्रह की दृष्टि न पड़ रही हो तो जातक के संतान गोद लेने का योग बनता है।

- दृष्टिविहीन शनि मंगल की जन्मकालीन पंचमस्थ या सप्तमस्थ युति दत्तकपुत्र योग दर्शाती है। इसके अतिरिक्त निम्न योग वाली जन्मकालिक ग्रह स्थिति के होने पर भी जातक अपने वास्तविक माता-पिता द्वारा निःसंतान दंपति को अर्थात नए माता-पिता को गोद दिया जा सकता है:

- शत्रुक्षेत्री ग्रहों से सूर्य या चंद्र की युति।

- चंद्र से चैथे अनिष्टकारी (पापी) ग्रहों की उपस्थिति।

- चतुर्थ भाव से सातवें भाव में अथवा दशम भाव से सातवें भाव में पहली, पांचवीं, आठवीं और 10वीं राशियों में किसी भी राशि की उपस्थिति।

- चैथे या दसवें घर में अशुभ पापी ग्रहों की उपस्थिति।

- सूर्य या चंद्र की राशि में अनिष्टकर पापी ग्रहों का होना।

- पापी ग्रहों की सूर्य या चंद्र के साथ युति या दृष्टि।

- सूर्य से नौवें या दसवें भाव में राहु, मंगल और शनि की उपस्थिति।

- पंचम भाव में भौम व शनि हों, जन्म लग्न में बुध की राशि हो और बुध से दृष्ट या युत हो तो दत्तक पुत्र होता है।

- पंचम भाव में शनि या बुध की राशि हो और गुलिक या शनि से युत या दृष्ट हो तो दत्तक पुत्र होता है।

- पंचमेश शनि से युत हो, भौम बुध से दृष्ट हो और लग्नेश बुध के नवांश में हो तो दत्तक पुत्र से सुख प्राप्त होता है।

- लग्नेश और शुक्र उच्च हांे, पांचवें भाव में शनि हो और कारक बली हो तो दत्तक पुत्र होता है।

- पंचमेश रवि लग्न में और पंचम भाव में शनि व बुध हों और पंचमेश बली हो। - लग्नेश बुध पांचवें भाव में हो और भौम से दृष्ट हो और कारक एकादश भाव में हो।

- लग्नेश गुरु पांचवें भाव में शनि से दृष्ट हो और पंचमेश भौम की राशि में हो तो दत्तक पुत्र होता है।

- समराशि के अथवा शनि के नवमांश में स्थित पंचम भाव का स्वामी यदि सूर्य और बुध के साथ युत हो तो इस योग में उत्पन्न जातक दत्तक पुत्र से पुत्रवान होता है।

- समराशि के लग्न में या लग्न से चतुर्थ भाव में पंचम भाव का स्वामी शनि नवांशस्थ होकर स्थित हो।

- यदि लग्नेश और पंचमेश दुःस्थान छठे, आठवें या 12वें भाव में स्थित होकर शुभ ग्रह से दृष्ट हों तो जातक को दत्तक पुत्र का लाभ होता है।

- पंचम भाव में स्थित ग्रह और उसके कारक (गुरु) में जो बलवान हो उसके षडवर्ग में जो राशियां ग्रह विहीन हों वे जिस जाति की द्योतक हों उस जाति के व्यक्ति से जातक दत्तक पुत्र प्राप्त करता है।

- शनि या बुध की राशि (मकर, कुंभ, मिथुन, कन्या) पंचम भाव में शनि से युत या दृष्ट हो, लग्नेश बलवान हो तो जातक दत्तक पुत्र प्राप्त करता है। गुणसूत्र वाला शुक्राणु अधिक सक्रिय या प्रभावी रहेगा। ज्योतिष द्वारा संतान संबंधी विचार में लग्न को महत्व दिया जाना हार्मोंस और आनुवंशिक आधार पर समर्थन मिलता है।

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2. पंचम और पंचमेश: हमारे प्राचीन ज्योतिषियों ने पंचम, पंचमेश और इनसे युत या दृष्ट ग्रहों को बहुत अधिक महत्व दिया है। इस पर पुनः विचार करें। यदि जन्मकुंडली का अध्ययन शारीरिक अंगों के आधार पर करें तो पंचम भाव और पंचमेश का संबंध आमाशय, यकृत और हृदय से होता है। यकृत द्वारा पाचक रसों की पूर्ति, आमाशय द्वारा भोजन का पाचन और हृदय द्वारा पचित उचित भोज्य पदार्थ समस्त शरीर में (जननांग को छोड़) भेजा जाता है।

- शुक्ल पक्ष में बल प्राप्त करने वाले ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र) यदि शनि के नवांश में स्थित हों तथा गुरु पंचम भाव में स्थित हो तो इस योग में उत्पन्न जातक की वंश वृद्धि उसके दत्तक पुत्र से होती है।

- पंचमेश शनि के नवांश में तथा गुरु और शुक्र अपनी राशियों में स्थित हों तो इस योग में उत्पन्न व्यक्ति दत्तक पुत्र प्राप्त करता है और बाद में अपनी पत्नी से भी पुत्र प्राप्त करता है।

- चंद्रमा यदि पापराशि में स्थित हो, पंचमेश नवम भाव में और यदि लग्नेश भी पंचम या नवम भाव में स्थित हो तो जातक को दत्तक पुत्र प्राप्त होता है।

- निर्बल पंचमेश, सप्तमेश और लग्नेश के मध्य यदि किसी भी प्रकार का संबंध न हो तो जातक दूसरे के पुत्र को गोद लेता है।

7. ज्योतिष के अनुसार लिंग निर्धारण: ज्योतिष के अनुसार लग्न, लग्नेश या चंद्र राशि, राशीश पर पुरुष ग्रहों का प्रभाव यदि अधिक हो तो जातक या जातिका में पुरूषत्व गुण अधिक होंगे। यदि लग्न या चंद्र राशि सम हो और लग्न व लग्नेश पर स्त्री ग्रहों का प्रभाव अधिक हो तो उसके ग्ल् गुणसूत्रों में से ग् ग्रह की युति या दृष्टि हो तो जातक या जातका में पुरुषत्व प्रधान होगा। इसके विपरीत यदि पंचम भाव और पंचमेश के ऊपर स्त्री ग्रहों का प्रभाव हो तो स्त्रीत्व प्रघान होगा। इस प्रकार पंचम भाव संतान संबंधी विचार में महत्वपूर्ण है।

3. सप्तम और सप्तमेश: लग्न कुंडली के आधार पर सप्तम और सप्तमेश का संबंध प्रजननांग से रहता है। लग्न से ठमहपदपदह ए पंचम से च्तवकनबजपवद सप्तम से ब्वससमबजपवददंक डंजमतदपजल अर्थात मुख्य त्मचतवकनबजपअम डंजमतपंस यहां तैयार होता है जो प्रजनन के लिये आवश्यक होते हैं। साथ ही वे स्त्री अंग जिनमें संतान का विकास होता है। अतः सप्तम भाव और सप्तमेश की शुभ स्थिति और शुभयुति या दृष्टि परिपक्व जननांग और जनन क्रिया में सहायक होती है तथा अशुभ दृष्टि या स्थिति असफल जनन क्रिया का कारक होती है।

चूंकि समस्त नियम एक साथ पूरे होने कठिन हैं लेकिन जितने नियम पूरे होंगे उस प्रकार से पुत्र या पुत्री की संभावना अधिक रहेगी। यदि उक्त प्रकार की सिद्धांतों या नियमों को ध्यान में रखकर जातक या जातका की जन्मपत्री का अध्ययन किया जाए तो फलादेश लगभग सही निकलेगा।श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय पंडयाजी सुरेन्द्रनगर गुजरातराज्य+919824417090/
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*विशेष:- जो व्यक्ति सुरेन्द्रनगर से बाहर अथवा देश से बाहर रहते हो, वह ज्योतिषीय परामर्श हेतु paytm या phonepe या Bank transfer द्वारा परामर्श फीस अदा करके, फोन द्वारा ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त कर सकतें है शुल्क- 551/-*+919824417090

॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥

॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, 
चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम् श्री जगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
ॐ नमश्‍चण्डिकायै॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ यद्‌गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
ब्रह्मोवाच
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥
न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारुढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥
माहेश्‍वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥
श्‍वेतरुपधरा देवी ईश्‍वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥
दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥
दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥
मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥२५॥
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खङ्‍गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्‍वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्‍वरी॥२८॥
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्‍वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥३०॥
कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥
नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्‍चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्‍वरी तथा॥३३॥
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश्‍च पित्तं च मुकुटेश्‍वरी॥३४॥
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥३५॥
शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्‍वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥
रसे रुपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्त्वं रजस्तमश्‍चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥
पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥
तत्र तत्रार्थलाभश्‍च विजयः सार्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्‍चितम्।
परमैश्‍वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥
निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः। ४७॥
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराश्‍चैव जलजाश्‍चोपदेशिकाः॥४९॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्‍च महाबलाः॥५०॥
ग्रहभूतपिशाचाश्‍च यक्षगन्धर्वराक्षसाः।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥
यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥
देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥
लभते परमं रुपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥
इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्। श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय पंडयाजी सुरेन्द्रनगर गुजरातराज्य+919824417090/
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रविवार, 27 जून 2021

*पंचगव्यं*

*पंचगव्यं*
प्रश्न = *पंचगव्य गाय के मूत्र-गोबर-दूध-दही और घी के मिश्रण से बनाते हैं। पंचगव्य में इन का अनुपात क्रमशः कितना होना चाहिए?*

1 1:2:3:4:5
2 5:2:4:4:1
3 सभी सामान मात्रा में
4 4:8:6:5:4 
5 उक्त से भिन्न जो अनुपात हो
उत्तर = ताँबे के वर्ण वाली गाय का गोमूत्र आठ भाग,लाल गाय का गोबर सोलह भाग,सफेद गाय का दूध 12 भाग, काली गाय का दही दस भाग और नीली गाय (चितकबरी)का घी आठ भाग लेकर मिलाकर छान लेने से पंचगव्य बनता है।

*गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकं।।*
*ताम्रारुणश्वेतकृष्णनीलानामाहरेद् गवाम्।*
 (वीरमित्रोदय-स्कन्दपुराण)

*अष्ट षोडश अर्कांशा दश अष्ट क्रमेण च।*
 (नृसिंहपुराण)

5 उक्त से भिन्न जो अनुपात हो !!                            गोमूत्र, गोबर का रस, गोदुग्ध, गोदधि व गोघृत का निश्चित अनुपास में मिश्रण ‘पंचगव्य’ कहलाता है । जैसे पृथ्वी, जल, तेज आदि पंचमहाभूत सृष्टि का आधार हैं, वैसे ही स्वस्थ, सुखी व सुसम्पन्न जीवन का आधार गौ प्रदत्त ये पाँच अनमोल द्रव्य हैं । पंचगव्य मनुष्य के शरीर को शुद्ध कर स्वस्थ, सात्त्विक व बलवान बनाता है । इसके सेवन से तन-मन-बुद्धि के विकार दूर होकर आयुष्य बल और तेज की वृद्धि होती है ।

गव्यं पवित्रं च रसायनं च पथ्यं च हृद्यं बलबुद्धिदंस्यात् ।
आयुं प्रदं रक्तविकारहारि त्रिदोष हृद्रोगविषापहं स्यात् ।।

अर्थात् पंचगव्य परम पवित्र रसायन है, पथ्यकर है । हृदय को आनंद देने वाला तथा आयु-बल-बुद्धि प्रदान करने वाला । यह त्रिदोषों का शमन करने वाला, रक्त के समस्त विकारों को दूर करने वाला, हृदयरोग एवं विष के प्रभाव को दूर करने वाला है ।

इसके द्वारा कायिक, वाचिक, मानसिक आदि पाप संताप दूर हो जाते हैं ।

पंचगव्यं प्राशनं महापातकनाशनम् । (महाभारत)

सभी प्रकार के प्रायश्चितों में, धार्मिक कृत्यों व यज्ञों में पंचगव्य-प्राशन का विधान है । वेदों, पुराणों एवं धर्मशास्त्रों में पंचगव्य की निर्माण-विधि एवं सेवन-विधि का वर्णन आता है । पंचगव्य शास्त्रोक्त रीति से अत्यंत शुचिता, पवित्रता व मंत्रोच्चारण के साथ बनाया जाता है ।

पंचगव्य निर्माण विधिः

धर्मशास्त्रों में प्रसिद्ध ग्रंथ ‘धर्मसिंधु‘ के अनुसार पंचगव्य के पाँचों द्रव्यों का अनुपात इस प्रकार हैः-

गोघृत – 8 भाग, गोदुग्ध 1 भाग, गोदधि – 10 भाग, गोमूत्र – 8 भाग, गोबर का रस – 1 भाग और कुशोदक – 4 भाग ।

‘बोधायन स्मृति‘ में इन पाँच द्रव्यों का अनुपात इस प्रकार हैः-

गोघृत – 1 भाग, गोदधि 2 भाग, गोबर का रस – आधा भाग, गोमूत्र – 1 भाग, दूध – 3 भाग और कुशोदक – 1 भाग ।

80 वर्ष के एक अनुभवी वैद्य के अनुसार द्रव्यों का अनुपातः-

गोझरण – 20 भाग, गोघृत – ढाई भाग, गोदुग्ध – 10 भाग, गोबर का रस – डेढ़ भाग व गोदधि – 5 भाग ।

विशेष ध्यान देने योग्य बातें-

1. उपर्युक्त द्रव्य देशी नस्ल की स्वस्थ गाय के होने चाहिए ।

2. गोबर को ज्यों-का-त्यों मिश्रण में नहीं डालना चाहिए बल्कि उसकी जगह गोबर के रस का उपयोग करें ।

ताजे गोबर में सूती कपड़ा दबाकर रखें । कुछ समय बाद उसे निकालकर निचोड़ने से गोबर का रस अर्थात् गोमय रस प्राप्त होता है ।

3. कुश (डाभ) का पंचांग एक दिन तक गंगाजल में डुबोकर रखने से कुशोदक बन जाता है ।

गोमूत्र के अधिष्ठातृ देवता वरुण, गोबर के अग्नि, दूध के सोम, दही के वायु, घृत के सूर्य और कुशोदक के देवता विष्णु माने गये हैं । इन सभी द्रव्यों को एकत्र करने तथा पंचगव्य का पान करने आदि के भिन्न-भिन्न मंत्र शास्त्रों में बताये गये हैं । इन सभी द्रव्यों को एक ही पात्र में डालते समय निम्नलिखित श्लोकों का तीन बार उच्चारण करें-

गोमूत्र

गोमूत्रं सर्वशुद्ध्यर्थं पवित्रं पापशोधनम् ।
आपदो हरते नित्यं पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोमय

अग्रमग्रश्चरन्तीनां औषधीनां रसोद्भवम् ।
तासां वृषभपत्नीनां पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोदुग्ध

पयं पुण्यतमं प्रोक्तं धेनुभ्यश्च समुद्भवम् ।
सर्वशुद्धिकरं दिव्यं पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोदधि

चन्द्रकुन्दसमं शीतं स्वच्छं वारिविवर्जितम् ।
किंचिदाम्लरसालं च क्षिपेत् पात्रे च सुन्दरम् ।।

गोघृत

इदं घृतं महद्दिव्यं पवित्रं पापशोधनम् ।
सर्वपुष्टिकरं चैव पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

कुशोदक

कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः ।
कुशाग्रे शंकरो देवस्तेन युक्तं करोम्यहम् ।।

सर्वप्रथम उपरोक्त द्रव्यों से संबंधित मंत्रों का उच्चारण करते हुए सभी को एकत्र करें । बाद में प्रणव (ॐ) के उच्चारण के साथ कुश से हिलाते हुए उनको मिश्रित करें ।

सेवन-विधिः पंचगव्य सुवर्ण अथवा चाँदी के पात्र में या पलाश-पत्र के दोने में लेकर निम्न मंत्र के तीन बार उच्चारण के पश्चात खाली पेट सेवन करना चाहिए ।

यत् त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके ।
प्राशनात् पंचगव्यस्य दहत्वग्निरिवेन्धनम् ।।

अर्थात् त्वचा, मज्जा, मेधा, रक्त और हड्डियों तक जो पाप मुझमें प्रविष्ट हो गये हैं, वे सब मेरे इस पंचगव्य-प्राशन से वैसे ही नष्ट हो जायें, जैसे प्रज्जवलित अग्नि में सूखी लकड़ी डालने पर भस्म हो जाती है । (महाभारत)

पंचगव्य सेवन की मात्राः बच्चों के लिए 10 ग्राम और बड़ों के लिए 20 ग्राम । पंचगव्य सेवन के पश्चात कम-से-कम 3 घंटे तक कुछ भी न खायें ।

पंचगव्य के नियमित सेवन से मानसिक व्याधियाँ पूर्णतः नष्ट हो जाती हैं । विषैली औषधियों के सेवन से तथा लम्बी बीमारी से शरीर में संचित हुए विष का प्रभाव भी निश्चितरूप से नष्ट हो जाता है । गोमाता से प्राप्त होने वाला, अल्प प्रयास और अल्प खर्च में मानव-जीवन को सुरक्षित  बनाने वाला यह अद्भुत रसायन है ।
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रविवार, 20 जून 2021

*श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ*

*श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ*
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समृद्धं सौभाग्यं सकल वसुधायाः किमपि तत्-
महैश्वर्यं लीला जनित जगतः खण्डपरशोः ।
श्रुतीनां सर्वस्वं सुकृतमथ मूर्तं सुमनसां
सुधासौन्दर्यं ते सलिलमशिवं नः शमयतु॥१॥

(हे माँ!) महेश्वर शिव की लीला जनित इस सम्पूर्ण वसुधा की आप ही समृद्धि और सौभाग्य हो, वेदो का सर्वस्व सारतत्व भी आप ही हो. मूर्तिमान दिव्यता की सौंदर्य-सुधायुक्त आपका जल, हमारे सारे अमंगल का शमनकारी हो.

दरिद्राणां दैन्यं दुरितमथ दुर्वासनहृदाम्
द्रुतं दूरीकुर्वन् सकृदपि गतो दृष्टिसरणिम् ।
अपि द्रागाविद्याद्रुमदलन दीक्षागुरुरिह
प्रवाहस्ते वारां श्रियमयमऽपारां दिशतु नः॥२॥

आपकी दृष्टि मात्र से ही ह्रदय की दुर्वासनाएं और दरिद्रों के दैन्य शीघ्र दूर हो जाते हैं. राग और अविद्या के गुल्म आपके गुरुसम अपार प्रवाह की दीक्षा से समूल नष्ट हो जाएँ और हमें अतुलनीय श्रेय की प्राप्ति हो.

उदञ्चन्मार्तण्ड स्फुट कपट हेरम्ब जननी
कटाक्ष व्याक्षेप क्षण जनितसंक्षोभनिवहाः।
भवन्तु त्वंगंतो हरशिरसि गङ्गातनुभुवः
तरङ्गाः प्रोत्तुङ्गा दुरितभव भङ्गाय भवताम्॥३॥

गणेशजननी की बालार्क कटाक्षदृष्टि से शिव जटाओं में बद्ध गंगा की संक्षोभित उत्ताल तरंगें, कठिन अघयुक्त-भुवनभय भंगकारी हों!

तवालम्बादम्ब स्फुरद्ऽलघुगर्वेण सहसा
मया सर्वेऽवज्ञा सरणिमथ नीताः सुरगणाः ।
इदानीमौदास्यं भजसि यदि भागीरथि तदा
निराधारो हा रोदिमि कथय केषामिह पुरः॥४॥

आपके अवलंबन के आश्रय से सहसा अति गर्वित हो मैंने सभी अन्य देवों की अवज्ञा करली, ऐसे में यदि आप मुझसे उदासीन हो गयी तो मैं निराधार किसके आगे अपना रोना रोऊँ?

स्मृतिं याता पुंसामकृतसुकृतानामपि च या
हरत्यन्तस्तन्द्रां तिमिरमिव चण्डांशु सरणिः।
इयं सा ते मूर्तिः सकलसुरसंसेव्यसलिला
ममान्तःसन्तापं त्रिविधमपि पापं च हरताम्॥५॥

सूर्य रश्मियों की उपस्थिति मात्र से ही जैसे तम का नाश हो जाता है, आपके स्मरण मात्र से ही पुण्यहीनों की भी कुंठाओं का शमन हो जाता है. दिव्यात्माओं द्वारा भी अभिलाषित आपका पावन जल मेरे भी त्रिविध  पाप संताप को दूर कर दे.

अपि प्राज्यं राज्यं तृणमिव परित्यज्य सहसा
विलोलद्वानीरं तव जननि तीरं श्रितवताम् ।
सुधातः स्वादीयः सलिलभरमातृप्ति पिबताम्
जनानामानन्दः परिहसति निर्वाणपदवीम्॥६॥

बड़े बड़े साम्राज्यों का तृणवत त्याग करके, आपके तीर का आश्रय ले कर तृण विलोलित आपके जल के  आतृप्त अमृतपान के आनंद की तुलना में तो निर्वाणपद भी हेय है.

प्रभाते स्नान्तीनां नृपति रमणीनां कुचतटी-
गतो यावन् मातः मिलति तव तोयैर्मृगमदः।
मृगास्तावद्वैमानिक शतसहस्रैः परिवृता
विशन्ति स्वच्छन्दं विमल वपुषो नन्दनवनम्॥७॥

राजमहिषियों द्वारा प्रातःकाल आप में स्नान से  कस्तूरीलेपित वक्षों  से आपके जल में मृगमद अर्पित हो जाने के पुण्य से वे मृग  अनायास ही सहस्रशत विमानों से परिवृत हो दिव्यरूप प्राप्त कर नंदनवन में स्वच्छंद प्रवेश और विचरण करते हैं.

स्मृतं सद्यः स्वान्तं विरचयति शान्तं सकृदपि
प्रगीतं यत्पापं झटिति भवतापं च हरति ।
इदं तद्गङ्गेति श्रवण रमणीयं खलु पदम्
मम प्राण प्रान्त: वदन कमलान्तर्विलसतु॥८॥

स्मरण करते ही जो तुरंत मन में प्रशांति रच देता है, गान करने से जो अविलम्ब भवताप हर लेता है, श्रवण मात्र से “गंगा” यह नाम मेरे मन के कमलवन में और मुख में प्राणांत तक विलास करता रहे.

यदन्तः खेलन्तो बहुलतर सन्तोष भरिता
न काका नाकाधीश्वर नगर साकाङ्क्ष मनसः ।
निवासाल्लोकानां जनि मरण शोकापहरणम्
तदेतत्ते तीरं श्रम शमन धीरं भवतु नः॥९॥

और तो और, आपकी सन्निधि में कौवे भी इतने संतोष से भरे रमते हैं कि उनको अब स्वर्ग की भी चाहना नहीं. आपके तीर का निवास जन्म मरण के शोक का तो हरण करता ही है, इसका नैकट्य भी निष्ठावानों का श्रमहारी हो.

न यत्साक्षाद्वेदैरपि गलितभेदैरवसितम्
न यस्मिञ्जीवानां प्रसरति मनोवागवसरः ।
निराकारं नित्यं निजमहिम निर्वासित तमो-
विशुद्धं यत्तत्त्वं सुरतटि नि तत्त्वं न विषयः॥१०॥

आप नित्य निराकार तमोहारी विशुद्ध दिव्य तत्त्व हो, जीवों के मन वाणी के विषयों से परे, अगोचर हो. सारे भेदों को पार करके साक्षात वेद भी आपका निरूपण नहीं कर सकते.

महादानैः ध्यानैर्बहुविध वितानैरपि च यत्
न लभ्यं घोराभिः सुविमल तपोराजिभिरपि।
अचिन्त्यं तद्विष्णोःपदमखिल साधारणतया
ददाना केनासि त्वमिह तुलनीया कथय नः॥११॥

बहुविधियों से दान, ध्यान बलिदान और घोर ताप से भी जो अचिन्त्य विष्णु पद अप्राप्य रहता है, वो भी आप सहजता से प्रदान कर देती हो तो भला आप किससे तुलनीय हैं?

नृणामीक्षामात्रादपि परिहरन्त्या भवभयम्
शिवायास्ते मूर्तेः क इह महिमानं निगदतु ।
अमर्षम्लानायाः परममनुरोधं गिरिभुवो
विहाय श्रीकण्ठः शिरसि नियतं धारयति याम्॥१२॥

कोई मनुष्य आपको देख भर ले तो भवभय से निर्भय हो जाता है,ऐसी आपकी   महिमा की कौन प्रशस्ति कर सकता है? इसी कारण, अमर्ष से अम्लान हुई पार्वतीजी की भी अनदेखी करते हुए सदाशिव आपको सदा अपने मस्तक पर धारण किये रहते हैं.

विनिन्द्यान्युन्मत्तैरपि च परिहार्याणि पतितैः
अवाच्यानि व्रात्यैः सपुलकमपास्यानि पिशुनैः ।
हरन्ती लोकानामनवरतमेनांसि कियताम्
कदाप्यश्रान्ता त्वं जगति पुनरेका विजयसे॥१३॥

निन्दितों द्वारा भी निंदनीय पापियों को भी आप तार देती हो, जो पतितों द्वारा भी घृणित और नीचों द्वारा भी त्याज्य हैं, ऐसों को भी आप निरंतर आश्रय देते हुए भी श्रमित न होकर इस विश्व में सदैव एकमात्र विजयमान रहती हो.

स्खलन्ती स्वर्लोकादवनितलशोकापहृतये
जटाजूटग्रन्थौ यदसि विनिबद्धा पुरभिदा ।
अये निर्लोभानामपि मनसि लोभं जनयताम्
गुणानामेवायं तव जननि दोषः परिणतः॥१४॥

माँ! शोकग्रस्तों को तारने के लिए आपके  स्वयं को अपने दिव्यलोक से पत्तन करती हुई को निर्लोभी शिव ने अपनी जटाजूट ग्रंथियों में आबद्ध करके मानो स्वयं में लोभ का दोष आरोपित कर आपकी महिमा को निरुपित किया.

जडानन्धान्पङ्गून् प्रकृतिबधिरानुक्तिविकलान्
ग्रहग्रस्तानस्ताखिलदुरितनिस्तारसरणीन् ।
निलिम्पैर्निर्मुक्तानपि च निरयान्तर्निपततो
नरानम्ब त्रातुं त्वमिह परमं भेषजमसि॥१५॥

मूर्खों, अन्धों, पंगुओं, मूक बधिर और ग्रहादि दोषों से ग्रस्त, जिनका पाप से निस्तारण का कोई मार्ग न हो,  देवताओं द्वारा परित्यक्त उन नर्कगामियों की, हे माँ, आप ही परम उद्धारक औषधि हो.

स्वभावस्वच्छानां सहजशिशिराणामयमपाम्
अपारस्ते मातर्जयति महिमा कोऽपि जगति ।
मुदा यं गायन्ति द्युतलमनवद्यद्युतिभृतः
समासाद्याद्यापि स्पुटपुलकसान्द्राः सगरजाः॥१६॥

माँ! आपके स्वच्छ शीतल जल की इस जगत में अपार महिमा अवर्णनीय है. निष्कलंक कीर्ति से स्वर्ग प्राप्त किये सगरपुत्र आज भी पुलकित रोमावलीयुक्त हो आज भी आपकी महिमा का गान करते हैं.

कृतक्षुद्रैनस्कानथ झटिति सन्तप्तमनसः
समुद्धर्तुं सन्ति त्रिभुवनतले तीर्थनिवहाः ।
अपि प्रायश्चित्तप्रसरणपथातीतचरितान्
नरान् दूरीकर्तुं त्वमिव जननि त्वं विजयसे॥१७॥

छोटे मोटे पापों से शीघ्र क्षुब्ध मन वालों के परित्राण के लिए तो हे माँ! इस विश्व में अनेको पवित्र तीर्थ व सरिताएँ हैं, परन्तु जघन्य पापों और पापियों के उद्धार के लिए तो एक मात्र आप ही हैं.

निधानं धर्माणां किमपि च विधानं नवमुदाम्
प्रधानं तीर्थानाममलपरिधानं त्रिजगतः।
समाधानं बुद्धेरथ खलु तिरोधानमधियाम्
श्रियामाधानं नः परिहरतु तापं तव वपुः॥१८॥

सर्व धर्मों की निधान, नव प्रसन्नता की विधान,त्रिभुवन में पवित्रवारि तीर्थों में प्रधान और कुविचारों का तिरोधान कर बुद्धि को समग्र समाधान प्रदान करने वाली माँ, आप ऐश्वर्यों का भंडार हो. आपका वपु हमारे सब तापों का शमन करे.

पुरो धावं धावं द्रविण मदिरा घूर्णित दृशाम्
महीपानां नाना तरुणतर खेदस्य नियतम् ।
ममैवायं मन्तुः स्वहित शत हन्तुर्जडधियो
वियोगस्ते मातः यदिह करुणातः क्षणमपि॥१९॥

मदोन्मत्त शासकों के सामने चाटुकारिता करते करते मुझमे नाना भांति के विकार आ गए हैं  और जड़ बुद्धि हो मैं स्वयं का ही हितनाशक हो गया,क्योंकि क्षण भर का भी आपकी करुणा से वियोग मेरी ही भूल है.

मरुल्लीला लोलल्लहरि लुलिताम्भोज पटली-
स्खलत्पां-सुव्रातच्छुरण विसरत्कौंकुम रुचि ।
सुर स्त्री वक्षोज क्षरद् अगरु जम्बाल जटिलम्
जलं ते जम्बालं मम जनन जालं जरयतु॥२०॥

वायु की लीला से दोलित पंकजों की पतित केसर से केसरिया और सुर ललनाओं के वक्षो से क्षरित अगरु से प्रगाढ़ हुआ आपका जल मेरे जन्म-मृत्यु जाल का निवारक हो.

समुत्पत्तिः पद्मारमण पद पद्मामल नखात्
निवासः कन्दर्प प्रतिभट जटाजूट भवने ।
अथायं व्यासङ्गो हतपतित निस्तारण विधौ
न कस्मादुत्कर्षस्तव जननि जागर्तु जगतः॥२१॥

रमारमण विष्णु के पदकंजों के अमल श्रीनखों से निसरित, मदनारी महादेव के जटाजूट-भवन निवासिनी माँ, आप दुखियों और पतितों के उद्धार में निरत हैं. तो फिर इस जगत की जाग्रति और उन्नति  कैसे न होगी!

नगेभ्यो यान्तीनां कथय तटिनीनां कतमया
पुराणां संहर्तुः सुरधुनि कपर्दोऽधिरुरुहे ।
कया च श्रीभर्तुः पद कमलमक्षालि सलिलैः
तुलालेशो यस्यां तव जननि दीयेत कविभिः॥२२॥

हे देवसरिता! और कौन नदी नगेन्द्र से निकल कर त्रिपुरारी की अलकों  पे चढ़ी है? या जिसने रमापति के चरण कमलों का प्रक्षालन किया है?और हो भी तो क्या कोई कवि उसकी आपसे लेश मात्र भी तुलना कर सकता है?

विधत्तां निःशङ्कं निरवधि समाधिं विधिरहो
सुखं शेषे शेतां हरि: अविरतं नृत्यतु हरः ।
कृतं प्रायश्चित्तैरलमथ तपोदानयजनैः
सवित्री कामानां यदि जगति जागर्ति भवती॥२३॥

जगत में जब आप जाग्रत हो कम्नापूर्ण कर ही रही हैं, तो भले ब्रह्मा निरवधि समाधिस्थ हो जाएँ,विष्णु सुख से शेष शयन करें या शिव अविरत लास्य करें, तप दान बलि यज्ञादि युक्त प्रायश्चित्त परिष्कार की भी कोई आवश्यकता नहीं है.

अनाथः स्नेहार्द्रां विगलितगतिः पुण्यगतिदाम्
पतन् विश्वोद्भर्त्री गदविदलितः सिद्धभिषजम् ।
सुधासिन्धुं तृष्णाऽकुलितहृदयो मातरमयम्
शिशुः संप्राप्तस्त्वामहमिह विदध्याः समुचितम्॥२४॥

मुझ पथभ्रष्ट अनाथ पर आप स्नेहाद्र हो कर पुन्यगति प्रदायिनी हों. आप पतित को विश्व में अभ्यूदयी बनाने वाली, रुग्ण को सिद्धौषधिदायी,तृष्णातुर ह्रदय के लिए सुधासिंधु रूपा हैं, हे माँ,मैं  बाल रूप से आपके पास आया हूँ, आप जैसा उचित समझें, वैसा करें.

विलीनो वै वैवस्वतनगर कोलाहल भरः
गता दूता दूरं क्वचिदपि परेतान् मृगयितुम् ।
विमानानां व्रातो विदलयति वीथीर्दिविषदाम्
कथा ते कल्याणी यदवधि महीमण्डलमगात्॥२५॥

 हे शुभे! जिस दिन से आपकी कथा धरती पर पहुंची है, यमपुरी का कोलाहल शांत हो गया है,दूतों को उन्हें प्राप्य मृतकों की खोज में दूर दूर जाना पड़ता है. दिव्यों के नगर की गलियाँ यानों की घर्घराहट से व्याप्त हो गई हैं.

स्फुरत्काम क्रोध प्रबलतर सञ्जातजटिल-
ज्वरज्वाला जाल ज्वलित वपुषां नः प्रति दिनम् ।
हरन्तां सन्तापं कमपि मरुदुल्लासलहरी-
छटाश्चञ्चत्पाथः,कणसरणयो दिव्यसरितः॥२६॥

हे दिव्यसरित! उल्लसित मारुत  द्वारा आपकी लहरों  से विसरित जल कण, काम और क्रोध की प्रबल ज्वालाओं से  प्रतिदिन दग्ध  हमारे तन के अवर्णनीय ताप को दूर करे.

इदं हि ब्रह्माण्डं सकल भुवनाभोगभवनम्
तरङ्गैर्यस्यान्तर्लुठति परितस्तिन्दुकमिव ।
स एष श्रीकण्ठ प्रवितत जटाजूट जटिलः
जलानां सङ्घातस्तव जननि तापं हरतु नः॥२७॥

माँ! आपका जल, जिसने पूरे ब्रह्माण्ड को तिन्दुक फल की भांति प्लावित कर दिया था,परन्तु   शिव की खोली हुई जटाओं के जाल में आबद्ध हो के रह गया, हमारे लिए तापहारी हो!

त्रपन्ते तीर्थानि त्वरितमिह यस्योद्धृतिविधौ
करं कर्णे कुर्वन्त्यपि किल कपालिप्रभृतयः।
इमं तं मामम्ब त्वमियमनुकम्पार्द्रहृदये
पुनाना सर्वेषां अघमथन दर्पं दलयसि॥२८॥

मुझ जैसे पतित को, जिसे तारने में शिव जैसे देव ने भी कानों पर हाथ रख कर और अनेक तीर्थों ने लज्जित हो कर अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी,अपनी अनुकम्पा से तार कर, हे दयार्द्र हृदया माँ! आपने तो जैसे सभी तारकों के पापहारिता के दर्प का दलन कर दिया.

श्वपाकानां व्रातैरमितविचिकित्साविचलितैः
विमुक्तानामेकं किल सदनमेनः परिषदाम् ।
अहो मामुद्धर्तुं जननि घटयन्त्याः परिकरम्
तव श्लाघां कर्तुं कथमिव समर्थो नरपशुः॥२९॥

मैं तो दुश्चिंताओं से भरे चांडालों से भी त्यक्त पापों का भण्डार हूँ, फिर भी आप मेरे उद्धार तत्पर हैं. आपकी स्तुति करने में मुझ जैसा नर पशु कैसे समर्थ होगा?

न कोऽप्येतावन्तं खलु समयमारभ्य मिलितो
मदुद्धारादाराद्भवति जगतो विस्मयभरः ।
इतीमामीहां ते मनसि चिरकालं स्थितवतीम्
अयं संप्राप्तोऽहं सफलयितुमम्ब प्रथमतः॥३०॥

अनादि काल से हे माँ, आप सोचती रही हैं की क्या कोई ऐसा पतित भी मिलेगा जिसके उद्धार से सम्पूर्ण विश्व विस्मित हो जाय. अंततः आपकी इस इच्छापूर्ती हेतु प्रथम व्यक्ति के रूप में आपको मैं प्राप्त हो ही गया!  

श्ववृत्तिव्यासङ्गो नियतमथ मिथ्याप्रलपनम्
कुतर्केष्वभ्यासः सततपरपैशून्यमननम् ।
अपि श्रावं श्रावं मम तु पुनरेवं गुणगणान्
ऋते त्वां को नाम क्षणमपि निरीक्षेत वदनम् ॥ ३१ ॥

कुतर्की की भांति हर समय मिथ्या प्रलापों में दूसरों की निंदा करते हुए मैंने श्वान वत जीवन जिया है. मेरे इन गुणों को जान कर, आपके सिवा कौन है जो क्षण मात्र के लिए भी मेरी और देखे?

विशालाभ्यामाभ्यां किमिह नयनाभ्यां खलु फलम्
न याभ्यामालीढा परमरमणीया तव तनुः ।
अयं हि न्यक्कारो जननि मनुजस्य श्रवणयोः
ययोर्नान्तर्यातस्तव लहरिलीलाकलकलः ॥ ३२ ॥

चाहे कितनी ही आभा से व्याप्त विशाल क्यों न हो, वो नेत्र ही क्या जिन्होंने आपके परम रमणीय स्वरुप  को ना देखा! धिक् उन मनुष्यों के कानों को जिनमे आपकी लीला लहरी की कलकल न पड़ी!

विमानैः स्वच्छन्दं सुरपुरमयन्ते सुकृतिनः
पतन्ति द्राक्पापा जननि नरकान्तः परवशाः ।
विभागोऽयं तस्मिन्नुभयविध मूर्तिः जनपदे
न यत्र त्वं लीला शमित मनुजाशेषकलुषा ॥ ३३ ॥

ये तो आप से हीन जनपदों की रीत है कि पुण्यवान सुरपुर जाते और पापी परवश हो शीघ्र नारकीय हो जाते हैं. आपकी लीलास्थली में ऐसा नहीं है क्योंकि यहाँ किसी में भी कोई कलुष बचता ही नहीं!

अपि घ्नन्तो विप्रानविरतमुषन्तो गुरुसतीः
पिबन्तो मैरेयं पुनरपि हरन्तश्च कनकम् ।
विहाय त्वय्यन्ते तनुमतनुदानाध्वरजुषाम्
उपर्यम्ब क्रीडन्त्यखिलसुरसंभावितपदाः॥३४॥

ब्रह्महत्या, गुरुतिय गमन, सुरापान, और तो और स्वर्ण चोरी जैसे जघन्य पाप करने वाले भी यदि आपकी सन्निधि में देहत्याग करते हैं तो वे भी दान बलि आदि सत्कर्म कर स्वर्गादि प्राप्त करने वालों से भी ऊँचे सुर सम्मानित दिव्य पद प्राप्त कर लेते हैं.

अलभ्यं सौरभ्यं हरति सततं यः सुमनसाम्
क्षणादेव प्राणानपि विरह शस्त्रक्षत भृताम् ।
त्वदीयानां लीलाचलित लहरीणां व्यतिकरात्
पुनीते सोऽपि द्रागहह पवमानस्त्रिभुवनम्॥३५॥

अहो, पुष्प सौरभयुक्त दुर्लभ पवन भी वियोगपीड़ा  और शस्त्राघात पीड़ितों के प्राण क्षण में हर लेती है, वह भी आपकी अठखेलियाँ करती लहरों का स्पर्श पा तत्क्षण त्रिभुवन पावनी हो जाती है.

कियन्तः सन्त्येके नियतमिह लोकार्थ घटका:
परे पूतात्मानः कति च परलोकप्रणयिनः ।
सुखं शेते मातस्तव खलु कृपातः पुनरयम्
जगन्नाथः शश्वत्त्त्वयि निहितलोकत्रयभरः॥३६॥

माँ, कितने हैं जो सामान्य जन का कल्याण करने को तत्पर हैं? कितनी पुण्यात्माएं परलोकाभिलाषा में हैं. ये तो आपकी करुणा है जिस पर शाश्वत त्रिभुवनतारण का भार जान  कर ये जगन्नाथ निश्चिन्तता से  सुख से सो रहा है. 

भवत्या हि व्रात्याऽधम पतित पाषण्डपरिषत्
परित्राणस्नेहः श्लथयितुमशक्यः खलु यथा।
ममाप्येवं प्रेमा दुरितनिवहेष्वम्ब जगति
स्वभावोऽयं सर्वैरपि खलु यतो दुष्परिहरः॥३७॥

जैसे आप पतित, अधम और पाखंडियों के उद्धार का बिरद नहीं छोड़ सकती, ऐसे ही मैं भी दुष्कर्म और अधमता का त्याग नहीं कर सकता. अरे माँ,कोई कैसे अपने स्वाभाव का परित्याग कर सकता है?

प्रदोषान्तर्नृत्यत्पुरमथनलीलोद्धृतजटा-
तटाभोगप्रेङ्खल्लहरिभुजसन्तानविधुतिः ।
गलक्रोड क्रीडज्जल डमरु टङ्कार सुभगः
तिरोधत्तां तापं त्रिदश तटिनी ताण्डव विधिः॥३८॥

सांध्य तांडव करते भगवान शिव की झूलती जटाओं में से निराबद्ध हो कर, डमरू की टंकारवत क्रीडा करता और हरकंठ को आबद्ध करता हुआ गंगाजल, मानो स्वयं भी ताण्डव रत हो,  मेरे ताप का शमन करे.  

सदैव त्वय्येवार्पित कुशल चिन्ताभरमिमं
यदि त्वं मामम्ब त्यजसि समयेऽस्मिन् सुविषमे ।
तदा विश्वासोऽयं त्रिभुवन तलादस्तमयते
निराधारा चेयं भवति निर्व्याजकरुणा॥३९॥

माँ, मैंने तो अपनी कुशल की सारी चिंताओं का भार सदैव आप पर ही छोड़ा हुआ है. यदि ऐसे विषम समय में आप मेरा त्याग करोगी तो त्रिभुवन में आपकी अहैतुकि करुणा का विश्वास और आधार ही उठ जायेगा.

कपर्दादुल्लस्य प्रणयमिलदर्धाङ्गयुवतेः
मुरारेः प्रेङ्खन्त्यो मृदुलतर सीमन्त सरणौ।
भवान्या सापत्न्या स्फुरितनयनं कोमलरुचा
करेणाक्षिप्तास्ते जननि विजयन्तां लहरयः॥४०॥

भगवान अर्धनारीश्वर की जटाओं से निसृत आपकी लहरों का जल लगने पर  किंचित झुंझलाहट दृष्टि से देखते हुए माँ पारवती ने अपने कोमल करों से हटाया, ऐसी आपकी धन्य लहरें विजयशाली हों.

प्रपद्यन्ते लोकाः कति न भवतीमत्रभवतीम्
उपाधिस्तत्रायं स्फुरति यदभीष्टं वितरसि ।
अये तुभ्यं मातर्मम तु पुनरात्मा सुरधुनि
स्वभावादेव त्वय्यमितमनुरागं विधृतवान्॥४१॥

अभीष्ट की पूर्ती हो जाने के कारण असंख्य लोग आपका आश्रय लेते हैं. जहाँ तक मेरा प्रश्न है, हे माँ, मैं तो स्वभावतः ही आपका अमित अनुरागी हूँ.

ललाटे या लोकैरिह खलु सलीलं तिलकिता
तमो हन्तुं धत्ते तरुणतरमार्तण्डतुलनाम् ।
विलुम्पन्ती सद्यो विधिलिखितदुर्वर्णसरणिं
त्वदीया सा मृत्स्ना मम हरतु कृत्स्नामपि शुचम्॥४२

लोग आपके जल की मृत्तिका का अपने ललाट पर तिलक लगाते हैं जो तमोहारि बालार्क की भांति शोभा पाता है, क्योंकि विधि द्वारा लिखित दुर्भाग्य-तम का इससे तुरंत नाश हो जाता है. ऐसी सद्य मृत्तिका मुझे शुचिता प्रदान करे.

 नरान्मूढांस्तत्तज्जनपदसमासक्तमनसः
हसन्तः सोल्लासं विकच कुसुम व्रातमिषतः ।
पुनानाः सौरभ्यैः सतत मलिनो नित्यमलिनान्
सखायो नः सन्तु त्रिदशतटिनीतीरतरवः॥४३॥

देवसरित के तट पर अवस्थित डोलते पुष्पद्रुमों से लदे वृक्ष मानो उन हत्भागियों पर हँसते हैं तो इससे विमुख हो अपनी ही विषम दुनिया में आसक्त रहते हैं. नित्य मलीन मधुमक्खियों को भी अपनी सुवास से सतत पवित्र करते पुष्पों वाले ये वृक्ष हमारे सखा हों.

भजन्त्येके देवान् कठिनतर सेवांस्तदपरे
वितानव्यासक्ता यमनियमारक्ताः कतिपये ।
अहं तु त्वन्नामस्मरणहितकामस्त्रिपथगे
जगज्जालं जाने जननि तृणजालेन सदृशम्॥४४॥

कोई देवताओं को भजते तो कोई कठिन सेवा में लगते, कोई बलि देते,  कुछ यम नियम में रत रहते या कठोर तपसाधन और ध्यान करते हैं. पर हे त्रिपथगामिनी, मैं तो आराम से मात्र आपका  नाम स्मरण मात्र ही करता हुआ इस जगत्जाल को तृणजालवत अनुभव करता हूँ.

अविश्रान्तं जन्मावधि सुकृतकर्मार्जनकृताम्
सतां श्रेयः कर्तुं कति न कृतिनः सन्ति विबुधाः ।
निरस्तालम्बानाम.ऽकृतसुकृतानां तु भवतीम्
विनामुष्मिन् लोके न परमवलोके हितकरम्॥४५॥

जन्म से ही सतत सत्कर्मियों के लिए श्रेयस्कर तो कई विद्वान और सुकृती होंगे. परन्तु सुकर्म ना करने वाले और अवलम्बनहीनों के उद्धार के लिए मुझे तो आपके अतिरिक्त और कोई नहीं दिखता है. 

पयः पीत्वा मातस्तव सपदि यातः सहचरैः
विमूढैः संरन्तुं क्वचिदपि न विश्रान्तिमगमम् ।
इदानीमुत्सङ्गे मृदुपवनसञ्चारशिशिरे
चिरादुन्निद्रं मां सदयहृदये स्थापय चिरम्॥४६॥

अरे माँ, तेरा पय-जल पान करके भी मैं तुरंत विमूढ़ों के साहचर्य में चला गया, और कहीं भी विश्रांति न पाई. अब तो हे सदय हृदया माँ, मुझे सदा के लिए मृदु शीतल पवन युक्ता अपनी पावन गोद में   चिर विश्राम देदे, काफी देर बाद मेरे जीवन में  आपकी प्रेम के प्रति जागृति आयी है.

बधान द्रागेव द्रढिम रमणीयं परिकरम्
किरीटे बालेन्दुं नियमय पुनः पन्नग गणैः ।
न कुर्यास्त्वं हेलामितर जनसाधारण धिया
जगन्नाथस्य अयं सुरधुनि समुद्धार समयः॥४७॥

हे दिव्य सरिता! अपनी दृढ रमणिक कटि कसकर बालचंद्र के मुकुट को सर्पों के द्वारा सुस्थिर कर लो. ये किसी साधारण अधम जन का प्रकरण नहीं है. इस जगन्नाथ के समुद्धार का समय आ गया है.

शरच्चन्द्रश्वेतां शशिशकल शोभाल मुकुटाम्
करैः कुम्भाम्भोजे वराभय निरासौ विदधतीम् ।
सुधासाराकाराभरणवसनां शुभ्रमकर-
स्थितां त्वां ध्यायन्त्युदयति न तेषां परिभवः॥४८॥

आप शिशिरचन्द्र की धवलता लिए हैं और वक्रचन्द्र शोभित किरीट  आपको शोभित कर रहा है. हाथों में अभयमुद्रा युक्त हाथों में   कुम्भ्सम कुमुद हैं, सुधासार रूप वसन और अलंकार धारण किये हुए आप शुभ्र मकर पर आरूढ़ हैं. ऐसे आपके रूप का जो ध्यान धरता है, उसका कभी परिभव नहीं, अभ्युदय ही शोता है.

दरस्मित समुल्लसद्वदनकान्तिपूरामृतैः
भवज्वलन भर्जिताननिशमूर्जयन्ती नरान् ।
विवेकमय चन्द्रिका चयचमत्कृतिं तन्वती
तनोतु मम शं तनोः सपदि शन्तनोरङ्गना॥४९॥

शांतनु अन्गिनी गंगा! तीन ताप के भवजाल से निरंतर विदग्धित जीवों को अपने स्मितमुस्कान युक्त  मुख, कांतिपूरित वदनामृत और विवेक चन्द्रिका प्रसाद से शीतलता प्रदान करने वाली आप, मेरे भी पाप ताप का शमन कर शांति प्रदान करें.
डॉ0 विजय शंकर मिश्र:
मंत्रैर्मीलितमौषधैर्मुकुलितं त्रस्तं सुराणां गणैः
स्रस्तं सान्द्रसुधा रसैर्विदलितं गारुत्मतैर्ग्रावभिः ।
वीचिक्षालित कालिया हित पदे स्वर्लोक कल्लोलिनि
त्वं तापं निरयाधुना मम भवव्यालावलीढात्मनः॥५०॥

स्वर्गलोक कल्लोलिनी गंगे! आपकी लहरों के स्पर्श से तो कलि बह ही गया! अब मेरी इस त्रस्त आत्मा का भी उद्धार करो. भाव भुजंग से ग्रसित इसका न मन्त्र, न औषधि, न सुरसमूह, न गरिष्ठ सुधा और न ही गरुत्मान मणि उपचार है.

द्यूते नागेन्द्रकृत्ति प्रमथगण मणिश्रेणि नन्दीन्दुमुख्यं
सर्वस्वं हारयित्वा स्वमथपुरभिदिद्राक्पणी कर्तुकामे ।
साकूतं हैमवत्या मृदुलहसितया वीक्षितायास्तवाम्ब
व्यालो लोल्लासि वल्गल्लहरि नटघटी ताण्डवं नः पुनातु॥५१॥

चौसर की द्यूत क्रीडा में दांव पर अपने प्रमथगण,नंदी, ईंदु, गलहार नाग, गजचर्म सहित सब कुछ हारने के बाद जब शिव स्वयं को दांव पर लगाने को तत्पर हुए, तब अकूत जलभंडार युक्त स्वर्णकलश लिए तांडव नर्तक की भांति आपके जिस नर्तन को मृदुल हास्य के साथ पार्वतीजी ने देखा, वो हमारा पवित्र प्रोक्षण करे.

विभूषितानङ्ग रिपूत्तमाङ्गा, सद्यः कृतानेकजनार्तिभङ्गा ।
मनोहरोत्तुङ्गचलत्तरङ्गा,गङ्गा ममाङ्गान्यमली करोतु॥५२॥

अनंग-रिपु शिव के उत्तम भाल को विभूषित करने वाली गंगा असंख्य जनों के कष्टों का क्षण में शमन करती है. मनोहर उत्तंग तरंगों से हे माँ, मेरे अंगों को अमल करदो.

इमां पीयूषलहरीं जगन्नाथेन निर्मिताम् । यः पठेत्तस्य सर्वत्र जायन्ते सुखसम्पदः ॥ ५३॥ श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय पंडयाजी सुरेन्द्रनगर गुजरात राज्य+919824417090/+917802000033...

आपकी जन्मकुंडली और भोजन संबंधी आदतें

आपकी जन्मकुंडली और भोजन संबंधी आदतें
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क्या भोजन का जन्म कुंडली से भी संबंध है। हमारी जन्म लग्न और राशि भी हमारी भोजन सम्बन्धी आदतें बताती है। हमारी कुंडली से न सिर्फ समस्त जीवन का खाका खींचा जा सकता है बल्कि खानपान संबंधी आदतें भी कुंडली से बताई जा सकती हैं।

* कुंडली के धन स्थान से भोजन का ज्ञान होता है। यदि इस स्थान का स्वामी शुभ ग्रह हो और शुभ स्थिति में हो तो व्यक्ति कम भोजन करने वाला होता है।

* यदि धनेश पाप ग्रह हो, पाप ग्रहों से संबंध करता हो तो व्यक्ति अधिक खाने वाला (पेटू) होगा। यदि शुभ ग्रह पाप ग्रहों से दृष्ट हो या पाप ग्रह शुभ से (धनेश होकर) तो व्यक्ति औसत भोजन करेगा।

* लग्न का बृहस्पति अतिभोजी बनाता है मगर यदि अग्नि तत्वीय ग्रह (मंगल, सूर्य बृहस्पति) निर्बल हों तो व्यक्ति की पाचन शक्ति गड़बड़ ही रहेगी।

* धनेश शुभ ग्रह हो, उच्च या मूल त्रिकोण में हो या शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो व्यक्ति आराम से भोजन करता है।

* धनेश मेष, कर्क, तुला या मकर राशि में हो या धन स्थान को शुभ ग्रह देखें तो व्यक्ति जल्दी खाने वाला होता है।

* धन स्थान में पाप ग्रह हो, पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति बहुत धीरे खाता है।

खाने में पसंद आने वाली चीजों की सूचना छठे भाव से मिलती है।

* छठे स्थान में बुध या बृहस्पति हो तो नमकीन वस्तुएँ पसंद आती हैं।

* बृहस्पति बलवान होकर राज्य या धन स्थान में हो तो मीठा खाने का शौकीन होता है।

* शुक्र, मंगल छठे स्थान में हों तो खट्टी वस्तुएँ पसंद आती हैं।

* शुक्र-बुध की युति हो या छठे स्थान पर गुरु-शुक्र की दृष्टि हो तो मीठी वस्तुएँ पसंद आती हैं।

* छठे स्थान में सिंह राशि हो तो तामसी भोजन (मांस-अंडे) पसंद आता है। वृषभ राशि हो तो चावल अधिक खाते हैं।

* बुध पाप ग्रहों से युक्त होने पर मीठी वस्तुएँ बिलकुल नहीं भातीं।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हर राशि के लिए उपयुक्त स्वास्थ्यवर्धक भोजन इस प्रकार है. जैसे:-

मेष लग्न —–

इस लग्न में जन्में जातक तेज जिंदगी जीते है. जिससे शारीरिक शक्ति का अधिक व्यय होता है. यह मस्तिष्क प्रधान राशि है और इसका सिर पर आधिपत्य होता है. इसलिए इन जातकों को मस्तिष्क और शरीर दोनों को शक्तिदायक वस्तुएँ अपने भोजन में सम्मिलित करनी चाहिए. जैसे विटामिन और खनिज तत्वों से भरपूर पालक, गाजर, ककड़ी, मूली, प्याज, गोभी, दूध, दही, पनीर, मछली और दूसरे प्रोटीनयुक्त भोजन. मांस बहुत कम खाना चाहिए और उत्तेजक पदार्थ बिलकुल नहीं लेने चाहिए.

वृष लग्न —–

इस लग्न में जन्मे जातकों का शरीर पुष्ट होता है और वे स्वाद ले कर भोजन करते है. विभिन्न स्वाद का भोजन करने से उनका गला खराब रहता है, इसलिए मोटापे से ह्रदय रोग का भय रहता है. इन्हें मिठाई, केक, पेस्ट्री, मक्खन और दूसरे अधिक चिकिनाई वाले भोजन कम लेने चाहिए. स्वस्थ रहने के लिए विटामिन और खनिज तत्वों से पूर्ण फल, सब्जियां, सलाद, निम्बू, इत्यादि मात्रा में लेने चाहिए.

मिथुन लग्न—-

यह राशि मानसिक और स्नायु प्रधान है. जातक के अधिक मानसिक परिश्रम करने से तथा पाचन क्रिया गड़बड़ होने पर वह बीमार होता है. इन जातकों को वे सब भोज्य पदार्थ, जो मस्तिष्क और स्नायु तंत्र के लिए शक्तिदायक हों, लेने चाहिए. विटामिन बी प्रधान भोजन को प्राथमिकता देनी चाहिए. दूध और फल लाभदायक होते है. मांस बहुत कम खाना चाहिए.

कर्क लग्न—–

इस लग्न के जातक खाने के शौकीन होते है, परन्तु उनकी पाचन क्रिया कमजोर होती है. इसलिए वे वस्तुएं नहीं खानी चाहिए जिनसे पेट में उतेजना बढे और गैस बने. मांस, पेस्ट्री, शराब हानिकारक होते है. दूध, दही, फल, सब्जी, सलाद, नींबू, मेवे और मछली अनुकूल होते है. इन जातकों को सोने से पहले और सुबह उठते ही पानी पीना चाहिए.

सिंह लग्न——

यह कार्यशील राशि है. जिससे जातक अधिक ऊर्जा खर्च करता है. ऐसा भोजन जो सुपाच्य हो, जिससे अधिक ऊर्जा मिले और रक्त में लाल कण बढ़ें, लाभदायक होते है. मोटापा बढाने वाली चरबीदार वस्तुएं ह्रदय के लिए हानिकारक होती है. शाकाहारी भोजन, फल और मेवे जिसमें विटामिन और खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो, लाभदायक होते है.

कन्या लग्न—–

इस राशि में जन्मे जातकों की पाचन प्रणाली कमजोर होने के कारण इनकों अपने भोजन पर विशेष ध्यान देना चाहिए. दूध, फल, सुपच आहार और रोचक पदार्थ लाभदायक होते है. इन्हें एक बार में थोड़ा और भली प्रकार से पकाया भोजन लेना चाहिए. जिससे इनकी मल विसर्जन प्रणाली ठीक रहे.

तुला लग्न——-

इस लग्न वाले जातकों को अच्छे खाने का शौक होता है, पर उनकी मल विसर्जन प्रणाली कमजोर होती है. इन्हें फल और दूध प्रधान भोजन लेना चाहिए. सब्जियों में गाजर, चुकंदर, मटर और फलों में सेवा और अंजीर उतम होते है. अधिक मिठाई और चिकनाई वाले पदार्थ से परहेज करना चाहिए. शराब भी कम ही लेनी चाहिए. जिससे गुर्दों पर बुरा असर न पड़े

वृश्चिक लग्न——

इस लग्न वाले जातक अधिक खाने में रुचि रखते है. परन्तु सभी मोटापा देने वाली और नशे वाली वस्तुएं हानिकारक होती है. हल्का खाना दूध, फल, सब्जी और खून बढाने वाले भोजन, जैसे अंजीर, प्याज, लहसुन , नारियल इत्यादि का सेवन जितना कम लिया जाए उतना स्वास्थ्य अच्छा रहेगा.

धनु लग्न ——-

यह अग्नि तत्व राशि है और जातक काफी चुस्त और फुर्तीला होता है, इसलिए उन्हें रक्त और स्नायु शक्ति को बढाने वाला प्रोटीनयुक्त संतुलित भोजन लेना चाहिए. रात का खाना सोने से काफी पहले कर लेना चाहिए. भोजन के बाद घूमना स्वास्थ्य के लिए अच्छा रहता है.

मकर लग्न ——–

इस राशि के जातक, कर्तव्यपरायण होने के कारण, अधिक ऊर्जा व्यय करते है. इस कारण इन्हें शरीर को ऊर्जा प्रदान करने वाले भोजन को प्राथमिकता देनी चाहिए. भोजन में अंजीर, नारियल, पालक ककड़ी लेना लाभदायक होता है

कुम्भ लग्न——-

इस लग्न के जातक अपने मस्तिष्क और स्नायु शक्ति का अधिक उपयोग करते है. इसलिए मस्तिष्क और स्नायु को शक्ति प्रदान करने वाले तथा रक्त प्रवाह बढाने वाले हल्के तथा सुपाच्य पदार्थ जैसे दूध, पनीर, सलाद, मछली, मूली, गाजर इनके लिए स्वास्थ्यवर्धक होते है.;

मीन लग्न—–

इस लग्न के जातक अधिकतर अपने खाने-पीने में अति के कारण बीमार रहते है. इसलिए उन्हें अपने भोजन के बारे में सचेत रहना चाहिए. मिठाई तथा बहुत चिकनाई वाले पदार्थ कम खाने चाहिए. इन्हें मादक पदार्थ बिल्कुल नहीं लेने चाहिए. दूध, मछली, सलाद, फल और सब्जियों का सेवन लाभदायक होता है।    श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय पंडयाजी सुरेन्द्रनगर गुजरात राज्य+919824417090/+917802000033...

शनिवार, 19 जून 2021

*यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं*

वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं

१. घर में पूजा करने वाला एक ही मूर्ति की पूजा नहीं करें। अनेक देवी-देवताओं की पूजा करें। घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश नहीं रखें।
२. शालिग्राम की मूर्ति जितनी छोटी हो वह ज्यादा फलदायक है।
३. कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
४. मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता हैं। पूजा में टूटे हुए अक्षत के टूकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए।
५. पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती है अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं।
६. तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं।
७. आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं। दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है।
८. कुशा के अग्रभाग से दवताओं पर जल नहीं छिड़के।
९. देवताओं को अंगूठे से नहीं मले। चकले पर से चंदन कभी नहीं लगावें। उसे छोटी कटोरी या बांयी हथेली पर रखकर लगावें।
९. पुष्पों को बाल्टी, लोटा, जल में डालकर फिर निकालकर नहीं चढ़ाना चाहिए।
१०. भगवान के चरणों की चार बार, नाभि की दो बार, मुख की एक बार या तीन बार आरती उतारकर समस्त अंगों की सात बार आरती उतारें।
११. भगवान की आरती समयानुसार जो घंटा, नगारा, झांझर, थाली, घड़ावल, शंख इत्यादि बजते हैं उनकी ध्वनि से आसपास के वायुमण्डल के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। नाद ब्रह्मा होता हैं। नाद के समय एक स्वर से जो प्रतिध्वनि होती हैं उसमे असीम शक्ति होती हैं।
१२. लोहे के पात्र से भगवान को नैवेद्य अपर्ण नहीं करें।
१३. हवन में अग्नि प्रज्वलित होने पर ही आहुति दें। समिधा अंगुठे से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए तथा दस अंगुल लम्बी होनी चाहिए। छाल रहित या कीड़े लगी हुई समिधा यज्ञ-कार्य में वर्जित हैं। पंखे आदि से कभी हवन की अग्नि प्रज्वलित नहीं करें।
१४. मेरूहीन माला या मेरू का लंघन करके माला नहीं जपनी चाहिए। माला, रूद्राक्ष, तुलसी एवं चंदन की उत्तम मानी गई हैं। माला को अनामिका (तीसरी अंगुली) पर रखकर मध्यमा (दूसरी अंगुली) से चलाना चाहिए।
१५. जप करते समय सिर पर हाथ या वस्त्र नहीं रखें। तिलक कराते समय सिर पर हाथ या वस्त्र रखना चाहिए। माला का पूजन करके ही जप करना चाहिए। ब्राह्मण को या द्विजाती को स्नान करके तिलक अवश्य लगाना चाहिए।
१६. जप करते हुए जल में स्थित व्यक्ति, दौड़ते हुए, शमशान से लौटते हुए व्यक्ति को नमस्कार करना वर्जित हैं। बिना नमस्कार किए आशीर्वाद देना वर्जित हैं।
१७. एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए। सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए। बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।
१८. जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।
१९. जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए। जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।
२०. संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।
२१. दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।
२२. यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।

*विशेष:- जो व्यक्ति सुरेन्द्रनगर से बाहर अथवा देश से बाहर रहते हो, वह ज्योतिषीय परामर्श हेतु paytm या phonepe या Bank transfer द्वारा परामर्श फीस अदा करके, फोन द्वारा ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त कर सकतें है शुल्क- 551/-*+919824417090


बुधवार, 16 जून 2021

*गंगा दशहरा (20.06.2021,ज्येष्ठशुक्ल दशमी)*

*गंगा दशहरा (20.06.2021,ज्येष्ठशुक्ल दशमी)*

*दशमी तिथि आरंभ-19.06.21, 6:46 pm*
*दशमी तिथि समाप्त-20.06.21,1:32 pm*

हिन्दु धर्म ग्रंथों के अनुसार गंगा दशहरा के दिन ही, मानव जीवन के उद्धार के लिए स्वर्ग से गंगा मैया का धरती पर अवतरण हुआ था, इसलिए इसे महापुण्यकारी पर्व के रूप में मनाया जाता है, तथा इस दिन मोक्षदायिनी गंगा की पूजा की जाती है।

वराह पुराण के अनुसार गंगा दशहरा के दिन, यानि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, बुधवार के दिन, हस्त नक्षत्र में गंगा स्वर्ग से धरती पर आई थी। इस पवित्र नदी में स्नान करने से दस प्रकार के पाप नष्ट होते है।

इस दिन को यानि ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को संवत्सर का मुख कहा गया है, इस दिन स्नान, दान, (अन्न-वस्त्रादि), जप-तप- उपासना और उपवास करने से दस प्रकार के पाप दूर होते है। (तीन प्रकार के कायिक, चार प्रकार के वाचिक, और तीन प्रकार के मानसिक ) इस दिन गंगा नदी में स्नान करते हुए भी दस बार डुबकी लगानी चाहिए।

*गंगा माँ का स्वरूप:-*
 गंगा का चेहरा बहुत शांत और उज्ज्वल है। उनके चार हाथ हैं जिसमें से एक हाथ में कमल और एक हाथ में कलश है तथा दो अन्य हाथ वर और अभय मुद्रा में है। वे सफेद वस्त्र धारण किए हुए है जो शांति और कोमलता का प्रतीक है। इनके गले में फूलों की माला तथा माथे पर अर्धचंद्राकार चंदन लगा है। यह कमल पर विराजमान रहती हैं। इनका निवास स्थान तीनों लोकों में है।

हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार गंगा जी पर्वतों के राजा हिमवान तथा उनकी पत्नी देवी मीना की पुत्री हैं। गंगा जी देवी पार्वती की बहन हैं।

*गंगा जी के कुछ अन्य नाम :-*
मंदाकिनी,गंगा जी, भोगवती, हरा-वल्लभ, भागीरथी, सावित्री, रम्य ।


*गंगा दशहरा व्रत और पूजन विधि :-*
1. सर्वप्रथम इस दिन पवित्र नदी गंगा जी में स्नान किया जाता है. यदि कोई मनुष्य वहाँ तक जाने में असमर्थ है तब अपने घर के पास किसी नदी या सरोवर में गंगा मैया का ध्यान करते हुए स्नान करने से पुण्य अर्जित कर सकते है ।

यदि नदी, सरोवर के पास भी न जा सके तो घर मे ही गंगा जल से स्नान करके व्रत रखे ।

2. यदि व्रत भी न रख सके तो भी दोनो ही सूरतो मे, गंगाजल से स्नान के उपरांत दैनिक पूजा-पाठ के साथ गंगास्तुति करके दान-पुण्य, पितरी तर्पण इत्यादि अवश्य करे ।

 स्नान के उपरांत गंगामैया की षोड्षोपचार पूजा करे। यदि यह भी संभव न हो तो गंगा मैया की दूध, बताशे, रोली, चावल, मौली, नारियल, दक्षिणा, धूप-दीप द्वारा पूजा करके पुष्पांजलि अर्पित करे ।

*3. गंगा जी का पूजन या स्नान करते हुए निम्न मंत्रो का जाप या उच्चारण करना चाहिए :-*

1. *ॐ ह्रीं गंगायै | ॐ ह्रीं स्वाहा ।।*

2. *ऊँ नम: शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै नम:*

3.*गंगा गायत्री  मंत्र :-*
*ॐ भागीर्थ्ये च विद्महे, विश्नुपत्न्ये च धीमहि ।*
*तन्नो गंगा प्रचोदयात ।।*

4. *गंगा महामंत्र:-*

*ॐ नमः शिवाय गंगायें, शिव दायै नमो नमः ।*
 *नमस्ते विष्णु रूपणायै , ब्रह्म मूर्तिये नमस्तुते ।।*


4. इन मंत्र के साथ मां गंगा की पूजा के बाद निम्नलिखित मंत्र के उच्चारण के साथ, पाँच पुष्प अर्पित करते हुए गंगा को धरती पर लाने वाले ऋषि भगीरथी का नाम से पूजन करना चाहिए ।

 *ऊँ नमो भगवते ऎं ह्रीं श्रीं हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा* 

5. इसके साथ ही गंगा के उत्पत्ति स्थल गोमुख को भी स्मरण करना चाहिए। गंगा जी की पूजा में सभी वस्तुएँ दस प्रकार की होनी चाहिए. जैसे दस प्रकार के फूल, दस गंध, दस दीपक, दस प्रकार का नैवेद्य, दस पान के पत्ते, दस प्रकार के फल होने चाहिए।

6. गंगा पूजन के बाद शिवालय जाकर शिवलिंग पर दस प्रकार के गंध, फूल, धूप-दीप,फल और नैवेद्य अर्पित करके पूजन करे ।

7. फिर पितृरी तर्पण करे । यदि नदी या सरोवर के पास है तो पितरी तर्पण, जल मे कमर तक खडे होकर करे और यदि जल के पास न हो तो यह पितरी तर्पण किसी पात्र मे अवश्य करे, क्योंकि गंगामैया को धरती पर लाने का उद्देश्य ही पितरो की सद्गति करवाना था ।

इस प्रकार इस विधि के द्वारा पूजन करने से स्वयं को भी मृत्यु के उपरांत सदगति की प्राप्ति होती है, तथा पितरो का उद्धार होकर उनका भी कल्याण होता है तथा वह सद्गति को प्राप्त करते है ।
 कायिक, वाचिक, और मानसिक पाप दूर होते है। जिससे मानव को अपार पुण्य की प्राप्ति होती है । 

*दान-पुण्य का महत्व:-*
गंगा दशहरा के दिन दान-पुण्य का विशेष महत्व है । इस दिन सत्तू, केला, नारियल, अनार, सुपारी, खरबूजा, आम, जल भरी सुराई, हाथ का पंखा आदि दान करने से दुगुना फल प्राप्त होता है।

गंगा दशहरा पूजन के उपरांत दान भी दस प्रकार की वस्तुओं का करना चाहिए, परंतु जौ और तिल का दान सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए। दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए। गंगा नदी में स्नान करें तब दस बार डुबकी लगानी चाहिए।

इस प्रकार पूजन तथा दान करने से जन्मकुण्डली मे निर्बल चंद्र, खराब चंद्रमा की दशा, साढे-साती, तथा पितृ दोष से राहत मिलती है । यदि पितरो की शांति हेतु कोई यज्ञ या अनुष्ठान करना हो तो उसके लिए भी गंगादशहरा का दिन बहुत शुभ है ।


*गंगा अवतरण की संक्षेप मे कथा-*
प्राचीन काल मे अयोघ्या मे सगर नाम के राजा राज्य करते थे, उनके केशिनी तथा सुमति नामक दो रानियां थी। केशिनी से एक पुत्र अंशुमान, तथा सुमति से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए । 
एक बार राजा ने अश्वमेध यज्ञ किया। तब यज्ञ का घोडा चुराकर इंद्रदेव कपिल मुनि के आश्रम मे बांध आये। राजा के साठ हजार पुत्र घोडे को खोजते हुए कपिल मुनि के आश्रम पहुुॅचकर चोर-२ पुकारने लगे, तब कपिल मुनि की क्रोधाग्नि से राजा के साठ हजार पुत्र जल कर भस्म हो गये।

तब राजा के जीवित पुत्र अंशुमान को महात्मा गरुड ने सारा वृतांत सुनाकर अंशुमान को भाइयो की मुक्ति हेतू गंगाजी को धरती पर बुलाने को क्हा। 

पहले राजा सगर, उनके बाद अंशुमान और फिर उनकी मृत्यु के उपरांत अंशुमान के पुत्र महाराज दिलीप तीनों ने मृतात्माओं की मुक्ति के लिए घोर तपस्या की ताकि वह गंगा को धरती पर ला सकें किन्तु सफल नहीं हो पाए और अपने प्राण त्याग दिए 

महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए उन्होंने गंगा को धरती पर लाने के लिए गोकर्ण मे जाकर पांव के एक अंगूठे पर खडे होकर घोर तपस्या की और एक दिन ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और भगीरथ को वर मांगने के लिए कहा तब भगीरथ ने गंगा जी को अपने साथ धरती पर ले जाने की बात कही जिससे वह अपने साठ हजार पूर्वजों की मुक्ति कर सकें।

ब्रह्मा जी ने कहा कि मैं गंगा को तुम्हारे साथ भेज तो दूंगा लेकिन उसके अति तीव्र वेग को सहन कौन करेगा? इसके लिए तुम्हें भगवान शिव की शरण लेनी चाहिए वही तुम्हारी मदद करेगें।

अब भगीरथ भगवान शिव की तपस्या एक टांग पर खड़े होकर करते हैं। भगवान शिव भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर गंगाजी को अपनी जटाओं में संभालने को तैयार हो जाते हैं। भगवान शिव गंगा को अपनी जटाओं में रोककर एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड देते हैं।

जिससे गंगा जी भगवान शिव की जटाओ से छूटकर हिमालय की घाटियोे से गुजरती हुई ऋषि जाह्रू के आश्रम पहुॅच गई। जहां ऋषि जाह्रू ने उन्हे अपनी तपस्या मे विघ्न समझकर उन्हे पी गये, तब फिर भगीरथी जी की प्रार्थना करने पर ऋषि जाह्रू ने उन्हे अपनी जांध से निकाल कर मुक्त किया। तभी से गंगा, जाह्रू पुत्री या जाह्नवी कहलाई।

इस प्रकार कठिनाईयो को पारकर गंगा मां ने राजा सगर के साठ हजार पुत्रो के भस्म अवशेषो का उद्धार कर मुक्ति प्रदान की।

तब ब्रह्माजी ने भगीरथ के कठिन तप व प्रयासो से प्रसन्न होकर गंगा का नाम भगीरथी रखा और भगीरथ को अयोध्या का राज्य संभालने को कहकर अंर्तध्यान हो गये।

*(समाप्त)*

प्रतिदिन गंगा स्तोत्र का पाठ करने वाले मनुष्य का मरणोपरांत बैकुंठ मे वास होता है, और जीवन मरण के चक्र से मुक्त होता है । यदि संभव हो तो गंगा स्तोत्र का पाठ कमर तक गंगा मे खड़े होकर करना चाहिए और यदि ये संभव न हो तो गंगा किनारे बैठ कर स्तोत्र पाठ करे ।

*गंगा स्तोत्र :-*
देवि! सुरेश्वरि! भगवति! गंगे त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे ।
शंकरमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥ १ ॥

भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २ ॥

हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३ ॥

तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४ ॥

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ ५ ॥

कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥ ६ ॥

तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥ ७ ॥

पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८ ॥

रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ ९ ॥

अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ १० ॥

वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ ११ ॥

भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ १२ ॥

येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः ॥ १३ ॥

गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ १४ ॥
*हरहर गंगे* 

*जून माह शुभ दिन:-* 16, 17, 19, 20, 22 (दोपहर 2 उपरांत), 24 (दोपहर 2 उपरांत), 25, 26 (सायंकाल 7 तक), 27 (दोपहर 4 उपरांत), 28, 29, 30 (दोपहर 1 तक)

*जून माह अशुभ दिन:-* 18, 21, 23,

*विशेष:- जो व्यक्ति सुरेन्द्रनगर से बाहर अथवा देश से बाहर रहते हो, वह ज्योतिषीय परामर्श हेतु paytm या phonepe या Bank transfer द्वारा परामर्श फीस अदा करके, फोन द्वारा ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त कर सकतें है शुल्क- 551/-*+919824417090