मंगलवार, 30 मार्च 2021

यज्ञ चिकित्सा क्या है ?

यज्ञ चिकित्सा क्या है ?
 
यज्ञ चिकित्सा क्या क्या है ? :- आयुर्वेद के विभिन्न ग्रंथों के प्रयोग से जो अग्नि में औषधी डालकर धूनी से ठीक होते है वह भी यज्ञ चिकित्सा का रूप है।

नीम के पत्ते, वच, कूठ, हरण, सफ़ेद सरसों, गूगल के चूर्ण को घी में मिलाकर धूप दें इससे विषमज्वर नष्ट हो जाता है।
मकोय के एक फल को घृत लगाकर आग पर डालें उसकी धूनी से आँख से कर्मी निकलकर रोग नष्ट हो जाते है।
अगर, कपूर, लोवान, तगर, सुगन्धवाला, चन्दन, राल इनकी धूप देने से दाह शांत होती है।
अर्जुन के फूल बायविडंग, कलियारी की जड़, भिलावा, खस, धूप सरल, राल, चन्दन, कूठ समान मात्रा में बारीक़ कुटें इसके धूम से कर्मी नष्ट होते है। खटमल तथा सिर के जुएं भी नष्ट हो जाते है
सहजने के पत्तों के रस को ताम्र पात्र में डालकर तांबे की मूसली से घोंटें घी मिलाकर धूप दें। इससे आँखों की पीड़ा अश्रुस्राव आंखो का किरकिराहट व शोथ दूर होता है।
असगन्ध निर्गुन्डी बड़ी कटेरी, पीपल के धूम से अर्श (बवासीर) की पीड़ा शांत होती है। महामारी प्लेग में भी यज्ञ से आरोग्य लाभ होता है।
हवन से रोग के कीटाणु नष्ट होते है। जो नित्य हवन करते हैं उनके शरीर व आसपास में ऐसे रोग उत्पन्न ही नहीं होते जिनमें किसी भीतरी स्थान से पीव हो। यदि कहीं उत्पन्न हो गया हो तो वह मवाद हवन गैस से शीघ्र सुख जाता है और घाव अच्छा हो जाता है।
हवन में शक्कर जलने से हे फीवर नहीं होता।
हवन में मुनक्का जलने से टाइफाइड फीवर के कीटाणु नष्ट हो जाते है।
पुष्टिकारक वस्तुएं जलने से मिष्ठ के अणु वायु में फ़ैल कर अनेक रोगों को दूर कर पुष्टि भी प्रदान करते है।
यज्ञ सौरभ महौषधि है। यज्ञ में बैठने से ह्रदय रोगी को लाभ मिलता है।
गिलोय के प्रयोग से हवन करने से कैंसर के रोगी को लाभ होने के उदहारण भी मिलते है।
गूगल के गन्ध से मनुष्य को आक्रोश नहीं घेरता और रोग पीड़ित नहीं करते ।
गूगल, गिलोय, तुलसी के पत्ते, अतीस, जायफल, चिरायते के फल सामग्री में मिलाकर यज्ञ करने से मलेरिया ज्वर दूर होता है।
गूगल, पुराना गुड, केशर, कपूर, शीतलचीनी, बड़ी इलायची, सौंठ, पीपल, शालपर्णी पृष्ठपर्णी मिलाकर यज्ञ करने से संग्रहणी दूर होती है।
चर्म रोगों में सामग्री में चिरायता गूगल कपूर, सोमलता, रेणुका, भारंगी के बीज, कौंच के बीज, जटामांसी, सुगंध कोकिला, हाउवेर, नागरमौथा, लौंग डालने से लाभ होता है।
जलती हुई खांड के धुंए में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति होती है। इससे हैजा, क्षय, चेचक आदि के विष शीघ्र नष्ट हो जाते है।
डा. हैफकिन फ़्रांस के मतानुसार घी जलने से चेचक के कीटाणु मर जाते है। घी और केशर के हवन से इस महामारी का नाश हो सकता है।
शंख वृक्षों के पुष्पों से हवन करने पर कुष्ठ रोग दूर हो जाते है।
अपामार्ग के बीजों से हवन करने पर अपस्मार (मिर्गी) रोग दूर होते है।
ज्वर दूर करने के लिए आम के पत्ते से हवन करें।
वृष्टि लाने के लिए वेंत की समिधाओं और उसके पत्रों से हवन करें।
वृष्टि रोकने के लिए दूध और लवण से हवन करें।
ऋतू परिवर्तन पर होने वाली बहुत सि बीमारियां सर्दी जुकाम मलेरिया चेचक आदि रोगों को यज्ञ से ठीक किया जा सकता है।
एक नज़र कुछ रोगों और उनके नाश के लिए प्रयुक्त होने वाली हवन सामग्री पर
सर के रोग:- सर दर्द, अवसाद, उत्तेजना, उन्माद मिर्गी आदि के लिए
ब्राह्मी, शंखपुष्पी , जटामांसी, अगर , शहद , कपूर , पीली सरसो

स्त्री रोगों, वात पित्त, लम्बे समय से आ रहे बुखार हेतु
बेल, श्योनक, अदरख, जायफल, निर्गुण्डी, कटेरी, गिलोय इलायची, शर्करा, घी, शहद, सेमल, शीशम

पुरुषों को पुष्ट बलिष्ठ करने और पुरुष रोगों हेतु
सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , अश्वगंधा , पलाश , कपूर , मखाने, गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , लौंग , बड़ी इलायची , गोला

पेट एवं लिवर रोग हेतु
भृंगराज , आमला , बेल , हरड़, अपामार्ग, गूलर, दूर्वा , गुग्गुल घी , इलायची

श्वास रोगों हेतु
वन तुलसी, गिलोय, हरड , खैर अपामार्ग, काली मिर्च, अगर तगर, कपूर, दालचीनी, शहद, घी, अश्वगंधा, आक, यूकेलिप्टिस

कैंसर नाशक हवन:-
गुलर के फूल, अशोक की छाल, अर्जन की छाल, लोध, माजूफल, दारुहल्दी, हल्दी, खोपारा, तिल, जो , चिकनी सुपारी, शतावर , काकजंघा, मोचरस, खस, म्न्जीष्ठ, अनारदाना, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, ,गंधा विरोजा, नारवी ,जामुन के पत्ते, धाय के पत्ते, सब को सामान मात्रा में लेकर चूर्ण करें तथा इस में दस गुना शक्कर व एक गुना केसर से हवन करें |

संधि गत ज्वर ( जोड़ों का दर्द ) :-
संभालू ( निर्गुन्डी ) के पत्ते , गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, रल आदि का संभाग लेकर चूरन करें , घी मिश्रित धुनी दें, हवन करें।

निमोनियां नाशक हवन :-
पोहकर मूल, वाच, लोभान, गुग्गल, अधुसा, सब को संभाग ले चूरन कर घी सहित हवन करें व धुनी दें |

जुकाम नाशक :-
खुरासानी अजवायन, जटामासी , पश्मीना कागज, लाला बुरा ,सब को संभाग ले घी सचूर्ण कर हित हवं करें व धुनी दें |

पीनस ( बिगाड़ा हुआ जुकाम ) :-
बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, नीम के पत्ते, वा|य्वडिंग,सहजने की छाल , सब को समभाग ले चूरन कर इस में धूप का चूरा मिलाकर हवन करें व धूनी दें।

श्वास – कास नाशक :-
बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, वच, पोहकर मूल, अडूसा – पत्र, सब का संभाग कर्ण लेकर घी सहित हवं कर धुनी दें |

सर दर्द नाशक :-
काले तिल और वाय्वडिंग चूरन संभाग ले कर घी सहित हवं करने से व धुनी देने से लाभ होगा |

चेचक नाशक –

खसरा गुग्गल, लोभान, नीम के पत्ते, गंधक , कपूर, काले तिल, वाय्वासिंग , सब का संभाग चूरन लेकर घी सहित हवं करें व धुनी दें।

जिह्वा तालू रोग नाशक:-
मुलहठी, देवदारु, गंधा विरोजा, राल, गुग्गल, पीपल, कुलंजन, कपूर और लोभान सब को संभाग ले घी सहित हवं करीं व धुनी दें |

टायफायड :-
यह एक मौसमी व भयानक रोग होता है | इस रोग के कारण इससे यथा समय उपचार न होने से रोगी अत्यंत कमजोर हो जाता है तथा समय पर निदान न होने से मृत्यु भी हो सकती है | यदि ऐसे रोगी के पास नीम , चिरायता , पितपापडा , त्रिफला , आदि जड़ी बूटियों को समभाग लेकर इन से हवन किया जावे तथा इन का धुआं रोगी को दिया जावे तो लाभ होगा |

ज्वर :-
ज्वर भी व्यक्ति को अति परेशान करता है किन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन यग्य करता है , उसे ज्वर नहीं होता | ज्वर आने की अवास्था में अजवायन से यज्ञ करें तथा इस की धुनी रोगी को दें | लाभ होगा |

नजला :-
लगातार बना रहने वाला सिरदर्द जुकाम यह मानव को अत्यंत परेशान करता है | इससे श्रवण शक्ति , आँख की शक्ति कमजोर हो जाते हैं तथा सर के बाल सफ़ेद होने लगते हैं | लम्बे समय तक यह रोग रहने पर इससे दमा आदि भयानक रोग भी हो सकते हैं | इन के निदान के लिए मुनका से हवन करें तथा इस की धुनी रोगी को देने से लाभ होता है |

नेत्र ज्योति :-
नेत्र ज्योति बढ़ाने का भी हवन एक उत्तम साधन है | इस के लिए हवन में शहद की आहुति देना लाभकारी है | शहद का धुआं आँखों की रौशनी को बढ़ता है।

मस्तिष्क बल :-
मस्तिष्क की कमजोरी मनुष्य को भ्रांत बना देती है | इसे दूर करने के लिए शहद तथा सफ़ेद चन्दन से धूनी देना उपयोगी होता है |

वातरोग :-
वातरोग में जकड़ा व्यक्ति जीवन से निराश हो जाता है | इस रोग से बचने के लिए यज्ञ सामग्री में पिप्पली ,शिरीष छाल तथा हरड़ का उपयोग करना चाहिए | इस के धुएं से रोगी को लाभ मिलता है |

मनोविकार :-
मनोरोग से रोगी जीवित ही मृतक समान हो जाता है | इस के निदान के लिए गुग्गल तथा अपामार्ग का उपयोग करना चाहिए | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |

मधुप्रमेह :
यह रोग भी रोगी को अशक्त करता है | इस रोग से छुटकारा पाने के लिए हवन में गुग्गल, लोबान , जामुन वृक्ष की छाल, करेला का द्न्थल, सब संभाग मिला आहुति दें व् इस की धुनी से रोग में लाभ होता है |
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय, पंडयाजी+919824417090
सुरेन्द्रनगर...

कौन से ऋषि का क्या है महत्व-

कौन से ऋषि का क्या है महत्व-

जिज्ञासुओं के लिए महत्वपूर्ण जानकारी 

अंगिरा ऋषि-- ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।

विश्वामित्र ऋषि---गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।

वशिष्ठ ऋषि---- ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।

कश्यप ऋषि--- मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।

जमदग्नि ऋषि--भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।

अत्रि ऋषि---- सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।

अपाला ऋषि--- अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।

नर और नारायण ऋषि---  ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।

पराशर ऋषि---- ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।

भारद्वाज ऋषि--- बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।

आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।

वेदों के अनुवादक ऋषि---ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं। 

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- १.वशिष्ठ, २.विश्वामित्र, ३.कण्व, ४.भारद्वाज, ५.अत्रि, ६.वामदेव और ७.शौनक। 

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- 

वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।

 अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

१. वशिष्ठ--- राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

२. विश्वामित्र--- ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है। 

३. कण्व--- माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

४. भारद्वाज-- वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।

ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में १० ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के ७६५ मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के २३ मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

५. अत्रि--- ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

६. वामदेव-- वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं। 

७. शौनक-- शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे। 

फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।

रविवार, 21 मार्च 2021

*दक्षिणा के नियम*

*दक्षिणा के नियम*

किसी एक ही कर्मकी दक्षिणा देनेमें— दाताके वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) भेदसे दक्षिणामें शास्त्रानुसार अंतर होता है।

*#ब्राह्मण_यजमानको—*
शास्त्रोक्त नियत दक्षिणा ही देनी चाहिए।

*#क्षत्रिय_यजमानको—*
 दुगुनी दक्षिणा देनी चाहिए।

*#वैश्य_यजमान—*
 तिनगुनी दक्षिणा देवे,और 

*#शूद्र_यजमान—*
(जिनके यहां कुछ शास्त्रीय कर्म करनेका अधिकार है ऐसे सत्शूद्रों) को चौगुनी दक्षिणा देनी चाहिए।

*यथोक्तां दक्षिणां दद्याद् ब्राह्मण: क्षत्रियस्तथा।*
*द्विगुणां वैश्यवर्यस्तु त्रिगुणां शूद्रसत्तम:।*
*चतुर्गुणां प्रयच्छेत मन्त्रसिद्धिविधीच्छया।।*                
            (#सिद्धान्तसारसंग्रहे)

इस श्लोकमें कही गई दक्षिणा साधारण यजमानोंके लिए है। यदि यजमान धनाढ्य या निर्धन है तो उनकी व्यवस्था इस प्रकार है—

*धनिको द्विगुणं दद्यात् त्रिगुणन्तु महाधन:।*
*यवार्द्धं तु दरिद्रेण दातव्यं पुण्यलब्घये।।* *दद्यान्महादरिद्रस्तु तदर्द्ध शुल्कमेव तु।।*
                   (#वाराहपुराण)

*#धनिक_यजमान—*
अपने वर्णके अनुसार नियत दक्षिणाको दुगुनी देवें।

*#महाधनिक_यजमानको—*
अपने वर्णके अनुसार कही गई दक्षिणाको तिगुना करके देना चाहिए।

*#दरिद्र_यजमानको—*
पहले वाले श्लोकमें कही गई साधारण दक्षिणाको अपने वर्णके अनुसार आधी दक्षिणा ही देनी चाहिए।

*#महादरिद्र_यजमानको—* पुण्यफलकी प्राप्तिके लिए अपने वर्णके अनुसार निर्णीत दक्षिणाका चौथाई भाग ही देना चाहिए।

*यदि इसप्रकार शास्त्रद्वारा कथित दक्षिणा देनेका किसीके पास धन या मन नहीं है, तो उस व्यक्तिको यज्ञादि कर्म नहीं कराना चाहिए*

क्योंकि अल्प दक्षिणा देनेसे कर्मका फल प्राप्त नहीं होता,  ऐसे व्यक्तियोंको भगवान्नाम संकीर्तन आदि पुण्य कार्य करना चाहिए—

*पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रिय:।*
*न त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजन्ते ह कथञ्चन।।*
          (#मनुस्मृति:- 11/39)

*#दक्षिणाहीन_यज्ञ_शत्रु_है*—

*अन्नहीनो दहेद्राष्ट्रं मन्त्रहीनस्तु ऋत्विज:।*
*यष्टारं दक्षिणाहीनं नास्ति यज्ञसमो रिपु:।।*

*#अर्थ—* यज्ञमें अन्नकी ( हवन, दान या भोजनके रूपमें) कमी होनेपर यज्ञ संपूर्ण राष्ट्रको पीड़ा देता है।

मंत्रसे हीन (अशुद्धमंत्र, कम मंत्र या ठीक विधि न होने) पर यज्ञ ऋत्विजों (ब्राह्मणों) को पीडा दायक होता है। 

और शास्त्रके द्वारा निर्णीत दक्षिणामें कमी करनेपर यज्ञ यजमानका नाश करता है।

 *अतः विधिविहीन यज्ञके समान कोई प्रबल शत्रु नहीं है।*

 इसलिए यज्ञका संपूर्ण फल प्राप्त करनेके लिए हमें शास्त्रोक्त विधिसे ही यज्ञ करना चाहिए, अन्यथा विधिविहीन यज्ञको तामसयज्ञ कहा गया है—

*विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।* 
*श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।*
 (#श्रीमद्भागवतगीता-17/13)

*#अर्थ—* शास्त्रीय विधि रहित, शुद्ध हवि रहित, मंत्रहीन, श्रद्धा और उचित दक्षिणा रहित यज्ञ तामसयज्ञ कहे गए हैं।

अधिक से अधिक दक्षिणा देनेसे कर्मका फल भी अधिक से अधिक प्राप्त होता है । और अल्प से अल्प दक्षिणा देने पर कर्मका फल भी अल्प होता जाता है।

 इसलिए पर्याप्त दक्षिणा देनी चाहिए—

*यथा यथा बहुं दद्यात्तथा तथा फलं लभेत्।*
*यथा यथा स्वल्पं दद्यात्तथा तथा फलं लभेत्।।*
(#यज्ञमीमांसायां_स्वयंभूपुराणे)

*#यज्ञाचार्यकी दोगुनीदक्षिणा—*
*सर्वत्र द्विगुणां दद्यादाचार्याय तु दक्षिणाम्।*
*बहुपूरुषनिष्पाद्ये उत्तमा प्रतिपूरुषम्।।*                    
               (#यज्ञमीमांसायाम्) 

*#दक्षिणा_तत्काल_देवें—*

*#अर्थ—* दक्षिणा देने में एक मुहूर्तका विलंब करने पर दक्षिणा दुगुनी हो जाती है 

एक रात बीतने पर 6 गुनी 

तीन रात बीतने पर 10 गुनी 

1 सप्ताह व्यतीत होने पर 20 गुनी

 एक महीना बीतने पर लाख गुनी 

1 वर्ष व्यतीत होने पर करोड़ गुनी दक्षिणा हो जाती है।
जिसे यजमान कभी भी नहीं दे सकता।

इस प्रकार यजमानके द्वारा कराया गया कर्म भी निष्फल हो जाता है।

और वह यजमान दक्षिणा न देनेके पातकसे ब्रह्मस्वापहारी (ब्राह्मणका धन अपहरण करने वाला), कर्मका नाश करने वाला, अपवित्र, दरिद्र, व्याधि युक्त हो जाता है।

उसके घरसे लक्ष्मीजी भी कठिन शाप देकर अन्यत्र चली जाती हैं।
पितृगण भी उसके दिए हुए श्राद्ध, तर्पण आदिको ग्रहण नहीं करते।
और देवगण उसकी पूजा तथा आहुति स्वीकार नहीं करते।

 और अंतमें वह ब्रह्मस्वापहारी 
कुंभीपाक नामक नरकमें जाता है—

*मुहूर्ते समतीते च द्विगुणा सा भवेद् ध्रुवम्।*
*एकरात्रे व्यतीते तु भवेद्र सगुणा च सा।।*

*त्रिरात्रे वै दशगुणं सप्ताहे द्विगुणा तत:।*
*मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ब्रह्मणानां च वर्द्धते।।*

*संवत्सरे व्यतीते तु सा त्रिकोटिगुणा भवेत्।*
*कर्म तद् यजमानानां सर्वं वै निष्फलं भवेत्।।*

*तद् गृहाद्याति लक्ष्मीश्च शापं दत्वा सुदारुणम्।*
*पितरो नैव गृह्णन्ति तद्दत्तं श्राद्धतर्पणम्।।*

*#दक्षिणा_जरूर_लेवें—*

*दाता ददाति नो दानं ग्रहीता तन्न याचते।*
*उभौ तौ नरकं यातश्छिन्नरज्जुर्यथा घट:।।*

*#अर्थ—* देने वाला यदि दक्षिणा न देवे और ग्रहण करने वाला यदि दक्षिणा आदि न मांगे तो - ऐसी स्थितिमें दोनों ही नर्कके अधिकारी होते हैं।

जिस प्रकार रस्सी टूट जाने पर भरे हुए घटके साथ  उतनी भी जल में डूब जाता है उस घटके साथ उससे बंधी हुई उतनी रस्सी भी जाती है।

ऐसा नहीं है कि ये नियम अन्यों पर ही लागू होंगे, यदि कोई ब्राह्मण भी यज्ञ करवाता है तो उसे भी दक्षिणा देनेमें ये ही नियम पालन करना चाहिए...
श्री रांदल ज्योतिष कार्यालय पंडयाजी सुरेन्द्रनगर+919824417090...

गुरुवार, 4 मार्च 2021

*_दुर्गा सप्तशती के पाठ का महत्व_*

*_दुर्गा सप्तशती के पाठ का महत्व_*

माँ दुर्गा की आराधना और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ सर्वोत्तम है । 

दुर्गा शक्ति की उत्पत्ति तथा उनके ‍चरित्रों का वर्णन मार्कण्डेय पुराणां के अंतर्गत देवी माहात्म्य में किया गया है। भुवनेश्वरी संहिता में कहा गया है- 

जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है।

दुर्गा सप्तशती 700 श्लोकों में देवी-चरित्र का वर्णन है। दुर्गा सप्तशती में कुल 13 अध्याय हैं, और यह मुख्य रूप से ये तीन चरित्र प्रथम चरित्र (इसमें प्रथम अध्याय), मध्यम चरित्र (इसमें दूसरा, तीसरा, और चौथा अध्याय) और उत्तम (‍इसमें पाँचवे से तेरहवें अध्याय) में है । 

प्रथम चरित्र की देवी महाकाली, 
मध्यम चरित्र की देवी महालक्ष्मी और 
तीसरे उत्तम ‍चरित्र की देवी महासरस्वती मानी गई है।

 दुर्गा सप्तशती में माँ महाकाली की स्त‍ुति एक अध्याय में, माँ महालक्ष्मी की स्तुति तीन अध्यायों में और माँ महासरस्वती की स्तुति नौ अध्यायों में वर्णित की गयी है।

इस दुर्गा सप्तशती में 
मारण के 90,
मोहन के 90,
उच्चाटन के 200,
स्तंभन के 200
वशीकरण के 60 और
विद्वेषण के भी 60 प्रयोग दिए गए हैं। 
इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं।

दुर्गा सप्तशती में राजा सुरथ जिनका शत्रुओं और दुष्ट मंत्रियों के कारण सम्पूर्ण राजपाट, कोष , सेना और बहुमूल्य वस्तुएँ सब कुछ हाथ से छिन गया था और समाधि नामक वैश्य जिसकी दुष्ट स्त्री और पुत्र ने धन के लोभ में उसको घर से निकाल दिया था लेकिन इतना सब कुछ हो जाने के बाद निराशा से घिरे होने के बाद भी उन दोनों का मन अपने घर परिवार, अपने राज्य और अपने परिजनों में ही आसक्त था उन दोनों को मेघा ऋषि ने ज्ञान दिया है।

इस देवी महात्म्य के श्रवण के बाद राजा सुरथ और समाधि वैश्य दोनों ने ही माँ आदि शक्ति की आराधना की। तत पश्चात देवी की कृपा से राजा सुरथ को उनका खोया राज्य और वैश्य को भी पूर्ण जान प्राप्त हुआ। 
उसी प्रकार जो व्यक्ति माँ भगवती की आराधना करते हैं सभी मनोरथ पूर्ण होते है। ऐसी मान्यता है कि दुर्गा सप्तशती के केवल 100 बार पाठ करने से सभी तरह की सिद्धियाँ प्राप्त होती है।

महर्षि मेधा ने सर्वप्रथम राजा सुरथ और समाधि वैश्य को यह अदभुत दुर्गा का चरित्र सुनाया। उसके पश्चात महर्षि मृकण्डु के पुत्र चिरंजीवी मार्कण्डेय ने मुनिवर भागुरि को यही कथा सुनाई थी । 

यही कथा द्रोण पुत्र पक्षिगण ने महर्षि जैमिनी को सुनाई थी। जैमिनी ऋषि महर्षि वेदव्यास जी के शिष्य थे। 
फिर इसी कथा संवाद का सम्पूर्ण जगत के प्राणियों के कल्याण के लिए महर्षि वेदव्यास ने मार्कण्डेय पुराण में यथावत् क्रम वर्णन किया है ।
मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्माजी ने मनुष्यों की रक्षा के लिए परम गोपनीय साधन, माँ का देवी कवच एवं परम पवित्र किन्तु आसान उपाय संपूर्ण प्राणियों को बताये है । 

श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ सभी तरह के मनोरथ सिद्धि के लिए करते है । 

श्री दुर्गा सप्तशती महात्म्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करता है। दुर्गा सप्तशती के सभी तेरह अध्याय अलग अलग इच्छित मनोकामना की सहर्ष ही पूर्ति करते है ।

* प्रथम अध्याय: - इसके पाठ से सभी प्रकार की चिंता दूर होती है एवं शक्तिशाली से शक्तिशाली शत्रु का भी भय दूर होता है शत्रुओं का नाश होता है ।

* द्वितीय अध्याय:- इसके पाठ से बलवान शत्रु द्वारा घर एवं भूमि पर अधिकार करने एवं किसी भी प्रकार के वाद विवाद आदि में विजय प्राप्त होती है ।

* तृतीय अध्याय: - तृतीय अध्याय के पाठ से युद्ध एवं मुक़दमे में विजय, शत्रुओं से छुटकारा मिलता है ।

* चतुर्थ अध्याय: - इस अध्याय के पाठ से धन, सुन्दर जीवन साथी एवं माँ की भक्ति की प्राप्ति होती है ।

* पंचम अध्याय: - पंचम अध्याय के पाठ से भक्ति मिलती है, भय, बुरे स्वप्नों और भूत प्रेत बाधाओं का निराकरण होता है ।

* छठा अध्याय: - इस अध्याय के पाठ से समस्त बाधाएं दूर होती है और समस्त मनवाँछित फलो की प्राप्ति होती है ।

* सातवाँ अध्याय: - इस अध्याय के पाठ से ह्रदय की समस्त कामना अथवा किसी विशेष गुप्त कामना की पूर्ति होती है ।

* आठवाँ अध्याय: - अष्टम अध्याय के पाठ से धन लाभ के साथ वशीकरण प्रबल होता है ।

* नौवां अध्याय:- नवम अध्याय के पाठ से खोये हुए की तलाश में सफलता मिलती है, संपत्ति एवं धन का लाभ भी प्राप्त होता है ।

* दसवाँ अधयाय:- इस अध्याय के पाठ से गुमशुदा की तलाश होती है, शक्ति और संतान का सुख भी प्राप्त होता है ।

* ग्यारहवाँ अध्याय:- ग्यारहवें अध्याय के पाठ से किसी भी प्रकार की चिंता, व्यापार में सफलता एवं सुख-संपत्ति की प्राप्ति होती है ।

* बारहवाँ अध्याय:- इस अध्याय के पाठ से रोगो से छुटकारा, निर्भयता की प्राप्ति होती है एवं समाज में मान-सम्मान मिलता है ।

* तेरहवां अध्याय:- तेरहवें अध्याय के पाठ से माता की भक्ति एवं सभी इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है ।

मनुष्य जब तक जीवित है तब तक उसके जीवन में उतार चढ़ाव आते ही रहते है । 

मनुष्य की इच्छाएं अनंत हुई और इन्ही की पूर्ति के लिए दुर्गा सप्तशती से सुगम और कोई भी मार्ग नहीं है ।

इसीलिए नवरात्र में विशेष रूप से दुर्गा सप्तशती के तेरह अध्यायों का पाठ करने का विधान है।......

भगवत्कृपा हि केवलम् ।

*"ॐ जय शिव ओंकारा"*यह वह प्रसिद्ध आरती है जो देश भर में शिव-भक्त नियमित गाते हैं.

*"ॐ जय शिव ओंकारा"*
यह वह प्रसिद्ध आरती है जो देश भर में शिव-भक्त नियमित गाते हैं..

लेकिन, बहुत कम लोग का ही ध्यान इस तथ्य पर जाता है कि... इस आरती के पदों में ब्रम्हा-विष्णु-महेश तीनो की स्तुति है..

*एकानन* (एकमुखी, विष्णु),  *चतुरानन* (चतुर्मुखी, ब्रम्हा) और *पंचानन* (पंचमुखी, शिव) *राजे..*

*हंसासन* (ब्रम्हा) *गरुड़ासन* (विष्णु ) *वृषवाहन* (शिव) *साजे..*

*दो भुज* (विष्णु), *चार चतुर्भुज* (ब्रम्हा), *दसभुज* (शिव) *अति सोहे..*

*अक्षमाला* (रुद्राक्ष माला, ब्रम्हाजी ), *वनमाला* (विष्णु ) *रुण्डमाला* (शिव) *धारी..*

*चंदन* (ब्रम्हा ), *मृगमद* (कस्तूरी विष्णु ), *चंदा* (शिव) *भाले शुभकारी* (मस्तक पर शोभा पाते हैं)..

*श्वेताम्बर* (सफेदवस्त्र, ब्रम्हा) *पीताम्बर* (पीले वस्त्र, विष्णु) *बाघाम्बर* (बाघ चर्म ,शिव) *अंगे..*

*ब्रम्हादिक* (ब्राह्मण, ब्रह्मा) *सनकादिक* (सनक आदि, विष्णु ) *प्रेतादिक* (शिव ) *संगे* (साथ रहते हैं)..

*कर के मध्य कमंडल* (ब्रम्हा), *चक्र* (विष्णु), *त्रिशूल* (शिव) *धर्ता..*

*जगकर्ता* (ब्रम्हा) *जगहर्ता* (शिव ) *जग पालनकर्ता* (विष्णु)..

*ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका* (अविवेकी लोग इन तीनो को अलग अलग जानते हैं।)
*प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका*

(सृष्टि के निर्माण के मूल ऊँकार नाद में ये तीनो एक रूप रहते है... आगे सृष्टि-निर्माण, सृष्टि-पालन और संहार हेतु त्रिदेव का रूप लेते हैं.

संभवतः इसी *त्रि-देव रुप के लिए वेदों में ओंकार नाद को ओ३म्* के रुप में प्रकट किया गया है ।
🙏🙏🙏  

(इसआरती का गूढार्थ/शब्दार्थ पता नही था, आज इस पोस्ट ने  भावार्थ बता- भावविभोर कर दिया -  इसे आगे भी बढ़ायें)